प्रभु की प्रार्थना आत्मा को परमात्मा बनाने का एक 'कीमिया' है। आत्मा ईश्वर का ही अंश होने से स्वयं शुद्धात्मा होती है किंतु कर्मों की संगति के कारण अशुद्ध होकर भवभ्रमण के अनंत चक्र में फँसकर सुख-दुख भोगती रहती है। फिर परमात्मा का अंश होते हुए भी वह परमात्मा से अलग या दूर हो जाती है और कष्ट भोगने पर बाध्य हो जाती है।
पानी की एक बूँद सागर से अलग होकर जिस प्रकार एक बूँद मात्र हो जाती है और जब वही बूँद सागर में विलीन हो जाती है तो सागर बन जाती है। परमात्मा सर्वव्यापी है। वह सब जानता है। उसे हमारे हर पल की खबर होती है। इसलिए जब भी उससे प्रार्थना करें तो कोई माँग उसके सामने नहीं रखे अन्यथा वह प्रार्थना नहीं होकर हमारी माँगें पूरी करने की याचना मात्र होकर रह जाएगी।
प्रार्थना में कोई माँग नहीं होती। केवल प्रभु के उपकारों की कृतज्ञता का ज्ञापन तथा उसके पावन चरण में शरण या संपूर्ण समर्पण की भावना का हृदय की भाषा में प्रकटीकरण होता है। यह आँखों में आए प्रेम-विह्वलता के दो आँसुओं के रूप में प्रकट होता है।
किसी व्यक्ति का सच्चा समर्पण ही उसके कर्मों से उसकी मुक्ति का आलंबन बनता है और जब प्रभु की करुणा की बरसात जब व्यक्ति पर निरंतर होने लगती है तो काम-क्रोध, लोभ-मोह, मान-माया आदि के सारे कलुष ऐसे बह जाते हैं, जैसे भारी बरसात सारी गंदगी को अपने साथ बहा ले जाती है।
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फिर बचा रहता है अकलुषित निर्मल पवित्र हृदय जिसमें उग आता है आस्था का अखंड खुशबू वाला कमल जिस पर अपने आराध्य परमात्मा स्वयं आ विराजित होते हैं। जब परमात्मा स्वयं हमारे हृदय-कमल पर विराजित हो जाते हैं, तब आत्मा तथा परमात्मा की दूरियाँ समाप्त होकर संपूर्ण समर्पण से बूँद सागर में विलीन होकर मुक्ति या मोक्ष को प्राप्त कर लेती है।
काम-क्रोध, लोभ-मोह आदि शत्रुओं से घिरा मन कभी प्रभु को पा लेने जैसे उत्कृष्ट भाव का विचार तो ठीक, स्वप्न भी नहीं देखता है, क्योंकि जन्म-जन्म की हमारी काम-क्रोध व मोह की बेड़ियाँ हमें उनसे मुक्त ही नहीं होने देतीं। तब प्रभु की प्राप्ति असंभव-सी लगती है। इसलिए सच्ची प्रार्थना वही है, जो निःस्वार्थ भाव से पूरे समर्पण के साथ की जाए। इससे ही आत्मा का रूपांतरण होना संभव है।
पानी की एक बूँद सागर से अलग होकर जिस प्रकार एक बूँद मात्र हो जाती है और जब वही बूँद सागर में विलीन हो जाती है तो सागर बन जाती है। परमात्मा सर्वव्यापी है। वह सब जानता है। उसे हमारे हर पल की खबर होती है। इसलिए जब भी उससे प्रार्थना करें तो कोई माँग उसके सामने नहीं रखे अन्यथा वह प्रार्थना नहीं होकर हमारी माँगें पूरी करने की याचना मात्र होकर रह जाएगी।
प्रार्थना में कोई माँग नहीं होती। केवल प्रभु के उपकारों की कृतज्ञता का ज्ञापन तथा उसके पावन चरण में शरण या संपूर्ण समर्पण की भावना का हृदय की भाषा में प्रकटीकरण होता है। यह आँखों में आए प्रेम-विह्वलता के दो आँसुओं के रूप में प्रकट होता है।
किसी व्यक्ति का सच्चा समर्पण ही उसके कर्मों से उसकी मुक्ति का आलंबन बनता है और जब प्रभु की करुणा की बरसात जब व्यक्ति पर निरंतर होने लगती है तो काम-क्रोध, लोभ-मोह, मान-माया आदि के सारे कलुष ऐसे बह जाते हैं, जैसे भारी बरसात सारी गंदगी को अपने साथ बहा ले जाती है।
काम-क्रोध, लोभ-मोह आदि शत्रुओं से घिरा मन कभी प्रभु को पा लेने जैसे उत्कृष्ट भाव का विचार तो ठीक, स्वप्न भी नहीं देखता है, क्योंकि जन्म-जन्म की हमारी काम-क्रोध व मोह की बेड़ियाँ हमें उनसे मुक्त ही नहीं होने देतीं। तब प्रभु की प्राप्ति असंभव-सी लगती है। इसलिए सच्ची प्रार्थना वही है, जो निःस्वार्थ भाव से पूरे समर्पण के साथ की जाए। इससे ही आत्मा का रूपांतरण होना संभव है।
Priyatam Kumar Mishra
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