Tuesday, April 8, 2014
धन-संपत्ति, यश-वैभव या लम्बी उम्र क्या चाहिये?
जैसा बीज वैसा फल........, जैसा दान वैसा लाभ ....... इस तरह की लोक कहावतें हम सभी सुनते आ रहे हैं। कोई घटना या प्रसंग कहावत के रूप में तभी प्रसिद्ध होता है, जब उसे हजारों लाखों लोग आजमा लेते हैं। वैसे तो दान को धर्म का अंग यानि कि हिस्सा माना ही जाता है। किन्तु क्या और कितना दान देने से प्रतिक्रिया के रूप में लौटकर देने वाले को क्या लाभ होता है, यह बहुत महत्वपूर्ण बात है। शास्त्र और जानकारों का मानना है कि दान देने से कई लाभ होते हैं। कहते हैं जैसा दान होता है वैसा ही लाभ होता है। जानें, किस वस्तु के दान से क्या लाभ होता है-
वस्तु - लाभ
जल - तृप्ति
अन्न - अक्षय सुख
तिल - अभीष्ट संतान इच्छानुसार
भूमि - पदार्थ
स्वर्ण - लंबी उम्र
चांदी - अच्छा रूप
- उत्तम भवन
वस्त्र- चंद्रलोक
अश्व- अश्विनीकुमार का लोक
बैल- विपुल संपत्ति
गाय- सूर्यलोक
यान या शय्या- पत्नी
धान्य- अनंत सुख
वेदाध्यापन- ब्रह्म का सान्निध्य
ज्ञानोपदेश- स्वर्गलोक
गाय को घास- पापों से मुक्ति
काष्ठ- तेजस्विता
औषधि- सुख
भोजन- दीर्घायु
दीपदान- अच्छे नेत्र
अभयदान- ऐश्वर्य
वस्तु - लाभ
जल - तृप्ति
अन्न - अक्षय सुख
तिल - अभीष्ट संतान इच्छानुसार
भूमि - पदार्थ
स्वर्ण - लंबी उम्र
चांदी - अच्छा रूप
- उत्तम भवन
वस्त्र- चंद्रलोक
अश्व- अश्विनीकुमार का लोक
बैल- विपुल संपत्ति
गाय- सूर्यलोक
यान या शय्या- पत्नी
धान्य- अनंत सुख
वेदाध्यापन- ब्रह्म का सान्निध्य
ज्ञानोपदेश- स्वर्गलोक
गाय को घास- पापों से मुक्ति
काष्ठ- तेजस्विता
औषधि- सुख
भोजन- दीर्घायु
दीपदान- अच्छे नेत्र
अभयदान- ऐश्वर्य
सिर्फ अहंकार ही व्यर्थ होता है
नारद पुराण की इस कथा में निरभिमानता का महत्व दर्शाया गया है। एक ऋषि थे- सर्वथा सहज, निराभिमानी, वैरागी और परम ज्ञानी। दूर-दूर से लोग उनके पास ज्ञानार्जन के लिए आते थे। एक दिन एक युवक ने आकर उनके समक्ष शिष्य बनने की इच्छा प्रकट की। ऋषि ने सहमति दे दी। युवक, ऋषि के पास रहने लगा। वह ऋषि की शिक्षा को पूर्ण मनोयोग से ग्रहण करता। एक दिन ऋषि ने कहा-जाओ, वत्स। तुम्हारी शिक्षा पूर्ण हुई। अब तुम इसका उपयोग कर दूसरों का जीवन बेहतर बनाओ। युवक ने उन्हें गुरुदक्षिणा देना चाही, तो ऋषि बोले-यदि तुम गुरुदक्षिणा देना ही चाहते हो तो वह चीज लेकर आओ जो बिल्कुल व्यर्थ हो।युवक व्यर्थ चीज की खोज में चल पड़ा। उसने चलते-चलते सोचा कि मिट्टी ही सबसे व्यर्थ हो सकती है। यह सोचकर उसने मिट्टी को लेने के लिए हाथ बढ़ाया तो वह बोल उठी-तुम मुझे व्यर्थ समझते हो? धरती का सारा वैभव मेरे गर्भ से ही प्रकट होता है। ये विविध रूप, रस, गंध क्या मुझसे उत्पन्न नहीं होते? युवक मिट्टी छोड़कर आगे बढ़ा, तो उसे गंदगी का ढेर दिखाई दिया। उसने गंदगी की ओर हाथ बढ़ाया तो उसमें से आवाज आई-क्या मुझसे बेहतर खाद धरती पर और कहीं मिलेगी? सारी फसलें मुझसे ही पोषण पाती है, फिर मैं कैसे व्यर्थ हो सकती हूं। युवक सोचने लगा कि वस्तुत: सृष्टि का प्रत्येक पदार्थ अपने आप में उपयोगी है। व्यर्थ और तुच्छ तो वह है जो दूसरों को व्यर्थ व तुच्छ समझता है और वह अहंकार के सिवाय और क्या हो सकता है। वह तत्काल ऋषि के पास जाकर बोला कि वह गुरुदक्षिणा में अपना अहंकार देने आया है। यह सुनकर ऋषि बोले-ठीक समझे वत्स। अहंकार के विसर्जन से ही विद्या सार्थक व फलवती होती है।कथा का सार है कि दुनिया में व्यर्थ सिर्फ अहंकार ही होता है। जो कुछ देने के स्थान पर है , उसे भी नष्ट कर देता है। इससे सदैव बचना चाहिए।
जैसा भाव रखोगे, वैसा ही मिलेगा/सब भगवान को अर्पण कर दो
जैसा भाव रखोगे, वैसा ही मिलेगा
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु
वः।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।। गीता 3/11
हे अर्जुन! इस यज्ञ से तुम देवताओं को प्रसन्न करो और वे देवता तुमको प्रसन्न रखेंगे। इस प्रकार एक-दूसरे को प्रसन्न करते हुए तुम्हारा परम कल्याण होगा।
संसार में सब एक-दूसरे से मिलजुल कर ही काम कर सकते हैं। आपकी भावनाएं दूसरों के लिए साफ होनी चाहिए क्योंकि जैसी भावना आप दूसरे के लिए रखते हैं, वैसी ही वह आपके लिए रखता है। आप किसी को प्यार करते हैं तो वह आपको प्यार करता है। आप किसी को प्रसन्न करते हैं तो वह भी आपको प्रसन्न करता है। ऐसे ही अगर आप किसी से नफरत करते हैं तो वह भी आपसे नफरत ही करेगा। अगर आप किसी पर गुस्सा करते हैं तो वह भी आप पर गुस्सा ही करेगा। संसार में जैसा दूसरे के साथ व्यवहार करते हैं, वैसा ही वापस मिलता है।
जब तक आप खुद के कामों को अनासक्त भाव से नहीं करेंगे, तब तक मन की सफाई नहीं होगी। क्योंकि साफ मन ही सबकी भलाई का भाव रख सकता है इसलिए भगवान कृष्ण कहते हैं कि तुम सभी के लिए प्रसन्नता का भाव रखो, बदले में वह भी तुम्हारे लिए प्रसन्नता का भाव ही रखेंगे और इस प्रकार एक-दूसरे को प्रसन्न रखते हुए तुम अपने लक्ष्य को पा सकोगे।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।। गीता 3/11
हे अर्जुन! इस यज्ञ से तुम देवताओं को प्रसन्न करो और वे देवता तुमको प्रसन्न रखेंगे। इस प्रकार एक-दूसरे को प्रसन्न करते हुए तुम्हारा परम कल्याण होगा।
संसार में सब एक-दूसरे से मिलजुल कर ही काम कर सकते हैं। आपकी भावनाएं दूसरों के लिए साफ होनी चाहिए क्योंकि जैसी भावना आप दूसरे के लिए रखते हैं, वैसी ही वह आपके लिए रखता है। आप किसी को प्यार करते हैं तो वह आपको प्यार करता है। आप किसी को प्रसन्न करते हैं तो वह भी आपको प्रसन्न करता है। ऐसे ही अगर आप किसी से नफरत करते हैं तो वह भी आपसे नफरत ही करेगा। अगर आप किसी पर गुस्सा करते हैं तो वह भी आप पर गुस्सा ही करेगा। संसार में जैसा दूसरे के साथ व्यवहार करते हैं, वैसा ही वापस मिलता है।
जब तक आप खुद के कामों को अनासक्त भाव से नहीं करेंगे, तब तक मन की सफाई नहीं होगी। क्योंकि साफ मन ही सबकी भलाई का भाव रख सकता है इसलिए भगवान कृष्ण कहते हैं कि तुम सभी के लिए प्रसन्नता का भाव रखो, बदले में वह भी तुम्हारे लिए प्रसन्नता का भाव ही रखेंगे और इस प्रकार एक-दूसरे को प्रसन्न रखते हुए तुम अपने लक्ष्य को पा सकोगे।
सब भगवान को अर्पण कर दो!
इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते
यज्ञभाविताः।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुक्ते स्तेन एव सः ।।
तुम लोग जो मांग रहे हो, यज्ञ से खुश होकर देवता उस इच्छा को पूरा करेंगे। लेकिन इच्छापूर्ति के बाद मिले फल को ईश्वर को अर्पित किए बिना भोग करने वाला मनुष्य चोर ही है।
यज्ञ का मतलब है कि जो भी कर्म करो, भगवान को अर्पण कर दो। और उसमें अपना स्वार्थ नहीं, बल्कि सबकी भलाई का भाव हो। जब हर काम भगवान को समर्पित करके किया जाता है तो यज्ञ भाव से कर्म होगा और प्रभु प्रसन्न होकर हमारी हर जरूरत अवश्य पूरी करते रहेंगे और हमारी सभी वाज़िब इच्छाओं का ध्यान रखेंगे।
जब भगवान की कृपा से इच्छा पूरी हो जाए, तब उनके द्वारा दिए गए भोग को पहले उनको ही अर्पण के भाव से समर्पित कर दो। वैसे भी ब्रह्मांड में जो कुछ भी है ईश्वर का ही है, ऐसे में सब पहले उसको ही समर्पित कर दें। भगवान को अर्पण करने का अर्थ है कि उस भोग में मेरा भाव हटाकर, भगवान की दी हुई चीजों को लेने की आज्ञा लेना।वैसे भी अगर हम किसी की चीज ले रहे हैं तो उससे अनुमति तो लेनी ही पड़ती है, वरना वह चोरी ही कहलाती है। भगवान भी यही कह रहे हैं कि भोगने से पहले मुझे अर्पण कर दो वरना चोर ही कहलाओगे।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुक्ते स्तेन एव सः ।।
तुम लोग जो मांग रहे हो, यज्ञ से खुश होकर देवता उस इच्छा को पूरा करेंगे। लेकिन इच्छापूर्ति के बाद मिले फल को ईश्वर को अर्पित किए बिना भोग करने वाला मनुष्य चोर ही है।
यज्ञ का मतलब है कि जो भी कर्म करो, भगवान को अर्पण कर दो। और उसमें अपना स्वार्थ नहीं, बल्कि सबकी भलाई का भाव हो। जब हर काम भगवान को समर्पित करके किया जाता है तो यज्ञ भाव से कर्म होगा और प्रभु प्रसन्न होकर हमारी हर जरूरत अवश्य पूरी करते रहेंगे और हमारी सभी वाज़िब इच्छाओं का ध्यान रखेंगे।
जब भगवान की कृपा से इच्छा पूरी हो जाए, तब उनके द्वारा दिए गए भोग को पहले उनको ही अर्पण के भाव से समर्पित कर दो। वैसे भी ब्रह्मांड में जो कुछ भी है ईश्वर का ही है, ऐसे में सब पहले उसको ही समर्पित कर दें। भगवान को अर्पण करने का अर्थ है कि उस भोग में मेरा भाव हटाकर, भगवान की दी हुई चीजों को लेने की आज्ञा लेना।वैसे भी अगर हम किसी की चीज ले रहे हैं तो उससे अनुमति तो लेनी ही पड़ती है, वरना वह चोरी ही कहलाती है। भगवान भी यही कह रहे हैं कि भोगने से पहले मुझे अर्पण कर दो वरना चोर ही कहलाओगे।
मैं नहीं, बस तू ही तू
यज्ञशिष्टाशिनः संतो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषै:।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ।।
हे अर्जुन! वह संत सब पापों से मुक्त हो जाते हैं, जो यज्ञ से बचा अन्न खाते हैं, लेकिन जो केवल अपने लिए ही पकाते हैं, वह पाप खाते हैं।
जब किसी इंसान में बिना स्वार्थ के सबकी भलाई की भावना होती है तब वह दूसरों के लिए सबसे पहले सोचता है। हालांकि ऐसा कम ही होता है, क्योंकि मन में तो हमेशा यही रहता है कि पहले मेरा काम होना चाहिए। खाना खाने के वक्त सोचते हैं कि पहले ही खा लेते हैं, पता नहीं बाद में मिले ना मिले। कहने का मतलब पहले अपना पेट भर लो, भले दूसरे के लिए बचे या न बचे।
अक्सर देखने में आता है कि जब पार्टी
में जाते है तो पनीर की सब्जी प्लेट में पहले ही भर लेते हैं, क्योंकि पता नहीं बाद
में पनीर बचे ना बचे। धीरे-धीरे इस तरह की आदत बन जाती है और फिर ये स्वार्थ की भावना
मन में हमेशा दोष पैदा करती है। भगवान कह रहे हैं कि यदि तुम केवल अपने लिए पकाते हो
और सोचते हो कि मेरा ही पेट भरना चाहिए तो यह गलत है। ऐसे में खाया गया भोजन पाप का
हिस्सा बनता है।
जब सबका पेट पहले भरे, बाद में मुझे मिले की भावना होती है, तब मन और आत्मा की सफाई की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। अब मैं और मेरा कम होकर, तू ही तू पक्का होने लगता है।
जब सबका पेट पहले भरे, बाद में मुझे मिले की भावना होती है, तब मन और आत्मा की सफाई की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। अब मैं और मेरा कम होकर, तू ही तू पक्का होने लगता है।
बच्चों का पालन-पोषण अच्छी तरह करें
चाणक्य नीति के दूसरे अध्याय के अंश:
1. जिस प्रकार सभी पर्वतों पर मणि नहीं मिलती, सभी हाथियों के मस्तक में मोती उत्पन्न नहीं होता और सभी वनों में चंदन का वृक्ष नहीं होता, उसी प्रकार सज्जन पुरुष सभी जगहों पर नहीं मिलते हैं।
2. भोजन के लिए अच्छे पदार्थों का उपलब्ध होना, उन्हें पचाने की शक्ति का होना, प्रचुर धन के साथ-साथ धन देने की इच्छा होना। ये सभी सुख मनुष्य को बहुत कठिनता से प्राप्त होते हैं।
1. जिस प्रकार सभी पर्वतों पर मणि नहीं मिलती, सभी हाथियों के मस्तक में मोती उत्पन्न नहीं होता और सभी वनों में चंदन का वृक्ष नहीं होता, उसी प्रकार सज्जन पुरुष सभी जगहों पर नहीं मिलते हैं।
2. भोजन के लिए अच्छे पदार्थों का उपलब्ध होना, उन्हें पचाने की शक्ति का होना, प्रचुर धन के साथ-साथ धन देने की इच्छा होना। ये सभी सुख मनुष्य को बहुत कठिनता से प्राप्त होते हैं।
3. चाणक्य का मानना है कि वही गृहस्थी
सुखी है, जिसकी संतान उनकी आज्ञा का पालन करती है। पिता का भी कर्तव्य है कि वह पुत्रों
का पालन-पोषण अच्छी तरह से करे। इसी प्रकार ऐसे व्यक्ति को मित्र नहीं कहा जा सकता
है, जिस पर विश्वास नहीं किया जा सके और ऐसी पत्नी व्यर्थ है जिससे किसी प्रकार का
सुख प्राप्त न हो।
4. जो मित्र आपके सामने चिकनी-चुपड़ी बातें करता हो और पीठ पीछे आपके कार्य को बिगाड़ देता हो, उसे त्याग देने में ही भलाई है। चाणक्य कहते हैं कि वह उस बर्तन के समान है, जिसके ऊपर के हिस्से में दूध लगा है परंतु अंदर विष भरा हुआ होता है।
5. चाणक्य कहते हैं कि जो व्यक्ति अच्छा मित्र नहीं है उस पर तो विश्वास नहीं करना चाहिए, परंतु इसके साथ ही अच्छे मित्र के संबंध में भी पूरा विश्वास नहीं करना चाहिए, क्योंकि यदि वह नाराज हो गया तो आपके सारे भेद खोल सकता है। अत: सावधानी अत्यंत आवश्यक है।
6. चाणक्य का मानना है कि व्यक्ति को कभी अपने मन का भेद नहीं खोलना चाहिए। उसे जो भी कार्य करना है, उसे अपने मन में रखे और पूरी तन्मयता के साथ समय आने पर उसे पूरा करना चाहिए।
7. चाणक्य का कहना है कि मूर्खता के समान यौवन भी दुखदायी होता है क्योंकि जवानी में व्यक्ति कामवासना के आवेग में कोई भी मूर्खतापूर्ण कार्य कर सकता है। परंतु इनसे भी अधिक कष्टदायक है दूसरों पर आश्रित रहना।
8. चाणक्य कहते हैं कि बचपन में संतान को जैसी शिक्षा दी जाती है, उनका विकास उसी प्रकार होता है। इसलिए माता-पिता का कर्तव्य है कि वे उन्हें ऐसे मार्ग पर चलाएं, जिससे उनमें उत्तम चरित्र का विकास हो क्योंकि गुणी व्यक्तियों से ही कुल की शोभा बढ़ती है।
4. जो मित्र आपके सामने चिकनी-चुपड़ी बातें करता हो और पीठ पीछे आपके कार्य को बिगाड़ देता हो, उसे त्याग देने में ही भलाई है। चाणक्य कहते हैं कि वह उस बर्तन के समान है, जिसके ऊपर के हिस्से में दूध लगा है परंतु अंदर विष भरा हुआ होता है।
5. चाणक्य कहते हैं कि जो व्यक्ति अच्छा मित्र नहीं है उस पर तो विश्वास नहीं करना चाहिए, परंतु इसके साथ ही अच्छे मित्र के संबंध में भी पूरा विश्वास नहीं करना चाहिए, क्योंकि यदि वह नाराज हो गया तो आपके सारे भेद खोल सकता है। अत: सावधानी अत्यंत आवश्यक है।
6. चाणक्य का मानना है कि व्यक्ति को कभी अपने मन का भेद नहीं खोलना चाहिए। उसे जो भी कार्य करना है, उसे अपने मन में रखे और पूरी तन्मयता के साथ समय आने पर उसे पूरा करना चाहिए।
7. चाणक्य का कहना है कि मूर्खता के समान यौवन भी दुखदायी होता है क्योंकि जवानी में व्यक्ति कामवासना के आवेग में कोई भी मूर्खतापूर्ण कार्य कर सकता है। परंतु इनसे भी अधिक कष्टदायक है दूसरों पर आश्रित रहना।
8. चाणक्य कहते हैं कि बचपन में संतान को जैसी शिक्षा दी जाती है, उनका विकास उसी प्रकार होता है। इसलिए माता-पिता का कर्तव्य है कि वे उन्हें ऐसे मार्ग पर चलाएं, जिससे उनमें उत्तम चरित्र का विकास हो क्योंकि गुणी व्यक्तियों से ही कुल की शोभा बढ़ती है।
वक्त बड़ा बलवान है
ये बहुत पुरानी पंक्तियां संत कबीर दास
ने कही थीं। और उन्होंने कितनी सही बात कही थी, यह सभी समझ गए होंगे। मगर जीवन में
इस विचार को अपनाते बहुत कम लोग हैं।
आज जिसे देखो अपनी ताकत का गलत इस्तेमाल करता है, चाहे छोटा हो या बड़ा। जहां थोड़ी सी पावर आई नहीं कि उसका गलत इस्तेमाल शुरू कर देते हैं। लेकिन यह नहीं सोचते की वक़्त बदलेगा और वे भी किसी के द्वारा दबाये और शोषित किये जा सकते हैं। वह समय ऐसा भी हो सकता है जब आपके बुरे समय में आपके अच्छे कर्मों को कोई याद ना रखे और सिर्फ आपकी गलतियों को ही याद रखें। ऐसे में कोई भी आपका साथ देने वाला नहीं होगा।
आज जिसे देखो अपनी ताकत का गलत इस्तेमाल करता है, चाहे छोटा हो या बड़ा। जहां थोड़ी सी पावर आई नहीं कि उसका गलत इस्तेमाल शुरू कर देते हैं। लेकिन यह नहीं सोचते की वक़्त बदलेगा और वे भी किसी के द्वारा दबाये और शोषित किये जा सकते हैं। वह समय ऐसा भी हो सकता है जब आपके बुरे समय में आपके अच्छे कर्मों को कोई याद ना रखे और सिर्फ आपकी गलतियों को ही याद रखें। ऐसे में कोई भी आपका साथ देने वाला नहीं होगा।
इसे हर व्यक्ति को सोचना चाहिए- पति,
पुलिस, राज नेता, सरकारी अफसर वगैरह-वगैरह। एक अच्छा देश तभी बनता है जब समाज अच्छा
हो, और समाज तब अच्छा होता है जब समाज का हर व्यक्ति सोचने-विचारने की शक्ति रखता हो।
इसलिए कबीर जैसे महान व्यक्तित्व के लोगों के विचारों को समय समय पर खंगालना ज़रूरी
है, शायद हमें कुछ अक्ल आ जाए।
झूठे लोग जल्दी पहचान में आते हैं
बाना पहिरे सिंह का, चलै भेड़ की
चाल।
बोली बोले सियार की, कुत्ता खावै फाल।।
सिंह का वेश पहनकर, जो भेड़ की चाल चलता और सियार की बोली बोलता है, उसे एक दिन कुत्ता जरूर फाड़ खाएगा।
बोली बोले सियार की, कुत्ता खावै फाल।।
सिंह का वेश पहनकर, जो भेड़ की चाल चलता और सियार की बोली बोलता है, उसे एक दिन कुत्ता जरूर फाड़ खाएगा।
न कोई तुम्हारा मित्र है, न शत्रु
चाणक्य नीति:
1. कोई काम शुरू करने से पहले, स्वयम से तीन प्रश्न कीजिए- मैं ये क्यों कर रहा हूं, इसके परिणाम क्या हो सकते हैं और क्या मैं सफल हो पाऊंगा. और जब गहरई से सोचने पर इन प्रश्नों के संतोषजनक उत्तर मिल जाएं, तभी आगे बढें।
2. संसार एक कड़वा वृक्ष है, इसके दो फल ही अमृत जैसे मीठे होते हैं- एक मधुर वाणी और दूसरी सज्जनों की संगति।
1. कोई काम शुरू करने से पहले, स्वयम से तीन प्रश्न कीजिए- मैं ये क्यों कर रहा हूं, इसके परिणाम क्या हो सकते हैं और क्या मैं सफल हो पाऊंगा. और जब गहरई से सोचने पर इन प्रश्नों के संतोषजनक उत्तर मिल जाएं, तभी आगे बढें।
2. संसार एक कड़वा वृक्ष है, इसके दो फल ही अमृत जैसे मीठे होते हैं- एक मधुर वाणी और दूसरी सज्जनों की संगति।
3. व्यक्ति अकेले पैदा होता है और अकेले
मर जाता है। वो अपने अच्छे और बुरे कर्मों का फल खुद ही भुगतता है। वह अकेले ही नर्क
या स्वर्ग जाता है।
4. एक बार काम शुरू कर लें तो असफलता का डर नहीं रखें और न ही काम को छोड़ें। निष्ठा से काम करने वाले ही सबसे सुखी हैं।
5. कुबेर भी अगर आय से ज्यादा व्यय करे, तो कंगाल हो जाता है।
6. संसार में न कोई तुम्हारा मित्र है न शत्रु। तुम्हारा अपना विचार ही, इसके लिए उत्तरदायी है।
7. भगवान मूर्तियों में नहीं है। आपकी अनुभूति आपका ईश्वर है, आत्मा आपका मंदिर है।
8. अगर सांप जहरीला न भी हो तो उसे खुद को जहरीला दिखाना चाहिए।
9. इस बात को व्यक्त मत होने दीजिए कि आपने क्या करने के लिए सोचा है, बुद्धिमानी से इसे रहस्य बनाये रखिये और इस काम को करने के लिए दृढ रहिए।
10. शिक्षा सबसे अच्छी मित्र है.एक शिक्षित व्यक्ति हर जगह सम्मान पता है।
4. एक बार काम शुरू कर लें तो असफलता का डर नहीं रखें और न ही काम को छोड़ें। निष्ठा से काम करने वाले ही सबसे सुखी हैं।
5. कुबेर भी अगर आय से ज्यादा व्यय करे, तो कंगाल हो जाता है।
6. संसार में न कोई तुम्हारा मित्र है न शत्रु। तुम्हारा अपना विचार ही, इसके लिए उत्तरदायी है।
7. भगवान मूर्तियों में नहीं है। आपकी अनुभूति आपका ईश्वर है, आत्मा आपका मंदिर है।
8. अगर सांप जहरीला न भी हो तो उसे खुद को जहरीला दिखाना चाहिए।
9. इस बात को व्यक्त मत होने दीजिए कि आपने क्या करने के लिए सोचा है, बुद्धिमानी से इसे रहस्य बनाये रखिये और इस काम को करने के लिए दृढ रहिए।
10. शिक्षा सबसे अच्छी मित्र है.एक शिक्षित व्यक्ति हर जगह सम्मान पता है।
जरूरत से ज्यादा अपने परिजनों से
जुड़े रहने पर डर और दुख का माहौल बनता है। हर दुख का मूल कारण बंधन है। जो बंधन से
मुक्त हो जाता है, वह हमेशा सुखी रहता है।
अगर आप एक काम शुरू करते हैं तो नाकामी
के डर से उसे बीच में न छोड़ें। जो मन लगाकर अपना काम करता है, वह हमेशा खुश रहता है।
ज्ञान किसी भी शख्स का सबसे अच्छा
दोस्त होता है। एक ज्ञानी शख्स हर जगह सम्मान का पात्र होता है। किसी की खूबसूरती से
ज्यादा उसके ज्ञान पर गौर किया जाता है।
फूलों की खुशबू सिर्फ हवा की दिशा
में फैलती है लेकिन मनुष्य की अच्छाई हर दिशा में फैलती है।
विदेशों में ज्ञान अच्छा दोस्त है।
घर पर मां अच्छी दोस्त है। जो शख्स बीमारी से पीड़ित है,उसके लिए दवा अच्छी दोस्त है
और मन विचलित होने के दौरान धर्म अच्छा दोस्त है।
एक व्यक्ति के जीवन-मरण, ज्ञान, धन आदि
का निर्धारण भगवान तब करते हैं, जब वह कोख में होता है।
ऐसे पुत्र का भला क्या फायदा, जो न तो पढ़ने-लिखने की इच्छा रखता हो और न ही भगवान के प्रति उसकी आस्था हो। यह ठीक उसी प्रकार है जैसे किसी की अंधी आंखें, जो सिर्फ दर्द का आभास कराती हैं।
जिस प्रकार एक अच्छा वृक्ष अपने खुशबूदार
फूलों से पूरे जंगल को सुगंधित कर देता है, उसी प्रकार अच्छे गुणों से युक्त एक पुत्र
से पूरा परिवार चमकने लगता है।
एक विद्वान और राजा की बराबरी कभी
नहीं की जा सकती। एक राजा सिर्फ अपने राज्य में पूजा जाता है जबकि विद्वान की हर जगह
पूजा होती है।
एक बुद्धिमान व्यक्ति में हर तरह
के गुण होते हैं जबकि मूर्ख में सिर्फ अवगुण ही होते हैं। इसलिए एक बुद्धिमान शख्स
सौ मूर्खों से अच्छा होता है।
यह प्रसन्नता भी दुखों का कारण है
गीता सार:
1. क्यों व्यर्थ चिन्ता करते हो? किससे व्यर्थ डरते हो? कौन तुम्हें मार सकता है? आत्मा न पैदा होती है, न मरती है।
2. जो हुआ, वह अच्छा हुआ। जो हो रहा है, वह अच्छा हो रहा है। जो होगा, वह भी अच्छा ही होगा। तुम भूत का पश्चाताप न करो। भविष्य की चिन्ता न करो। वर्तमान चल रहा है।
3. तुम्हारा क्या गया, जो तुम रोते हो? तुम क्या लाये थे, जो तुमने खो दिया? तुमने क्या पैदा किया था, जो नाश हो गया? न तुम कुछ लेकर आए, जो लिया यहीं से लिया। जो दिया, यहीं पर दिया। जो लिया, इसी (भगवान) से लिया। जो दिया, इसी को दिया। खाली हाथ आये, खाली हाथ चले। जो आज तुम्हारा है, कल किसी और का था, परसों किसी और का होगा। तुम इसे अपना समझकर मग्न हो रहे हो। बस, यही प्रसन्नता तुम्हारे दुखों का कारण है।
1. क्यों व्यर्थ चिन्ता करते हो? किससे व्यर्थ डरते हो? कौन तुम्हें मार सकता है? आत्मा न पैदा होती है, न मरती है।
2. जो हुआ, वह अच्छा हुआ। जो हो रहा है, वह अच्छा हो रहा है। जो होगा, वह भी अच्छा ही होगा। तुम भूत का पश्चाताप न करो। भविष्य की चिन्ता न करो। वर्तमान चल रहा है।
3. तुम्हारा क्या गया, जो तुम रोते हो? तुम क्या लाये थे, जो तुमने खो दिया? तुमने क्या पैदा किया था, जो नाश हो गया? न तुम कुछ लेकर आए, जो लिया यहीं से लिया। जो दिया, यहीं पर दिया। जो लिया, इसी (भगवान) से लिया। जो दिया, इसी को दिया। खाली हाथ आये, खाली हाथ चले। जो आज तुम्हारा है, कल किसी और का था, परसों किसी और का होगा। तुम इसे अपना समझकर मग्न हो रहे हो। बस, यही प्रसन्नता तुम्हारे दुखों का कारण है।
4. परिवर्तन संसार का नियम है। जिसे
तुम मृत्यु समझते हो, वही तो जीवन है। एक क्षण में तुम करोड़ों के स्वामी बन जाते हो,
दूसरे ही क्षण तुम दरिद्र हो जाते हो। मेरा-तेरा, छोटा-बड़ा, अपना-पराया मन से मिटा
दो, विचार से हटा दो। फिर सब तुम्हारा है, तुम सबके हो।
5. न यह शरीर तुम्हारा है, न तुम इस शरीर के हो। यह अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी, आकाश से बना है और इसी में मिल जाएगा। परन्तु आत्मा स्थिर है, फिर तुम क्या हो?
6. तुम अपने आप को भगवान को अर्पित करो। यही सबसे उत्तम सहारा है। जो इसके सहारे को जानता है, वह भय, चिन्ता, शोक से सर्वदा मुक्त है।
7. जो कुछ भी तुम करते हो, उसे भगवान को अर्पण करते चलो। ऐसा करने से तुम सदा जीवन-मुक्ति का आनन्द अनुभव करोगे।
5. न यह शरीर तुम्हारा है, न तुम इस शरीर के हो। यह अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी, आकाश से बना है और इसी में मिल जाएगा। परन्तु आत्मा स्थिर है, फिर तुम क्या हो?
6. तुम अपने आप को भगवान को अर्पित करो। यही सबसे उत्तम सहारा है। जो इसके सहारे को जानता है, वह भय, चिन्ता, शोक से सर्वदा मुक्त है।
7. जो कुछ भी तुम करते हो, उसे भगवान को अर्पण करते चलो। ऐसा करने से तुम सदा जीवन-मुक्ति का आनन्द अनुभव करोगे।
ज्यादा ईमानदारी भी ठीक नहीं
चाणक्य नीति की इसी विशेषता के दर्शन
होते हैं :
- किसी भी व्यक्ति को जरूरत से ज्यादा ईमानदार नहीं होना चाहिए। सीधे तने वाले पेड़ ही सबसे काटे जाते हैं और बहुत ज्यादा ईमानदार लोगों को ही सबसे ज्यादा कष्ट उठाने पड़ते हैं।
- अगर कोई सांप जहरीला नहीं है, तब भी उसे फुफकारना नहीं छोड़ना चाहिए। उसी तरह से कमजोर व्यक्ति को भी हर वक्त अपनी कमजोरी का प्रदर्शन नहीं करना चाहिए।
- सबसे बड़ा गुरुमंत्र : कभी भी अपने रहस्यों को किसी के साथ साझा मत करो, यह प्रवृत्ति तुम्हें बर्बाद कर देगी।
- हर मित्रता के पीछे कुछ स्वार्थ जरूर छिपा होता है। दुनिया में ऐसी कोई दोस्ती नहीं जिसके पीछे लोगों के अपने हित न छिपे हों, यह कटु सत्य है, लेकिन यही सत्य है।
- अपने बच्चे को पहले पांच साल दुलार के साथ पालना चाहिए। अगले पांच साल उसे डांट-फटकार के साथ निगरानी में रखना चाहिए। लेकिन जब बच्चा सोलह साल का हो जाए, तो उसके साथ दोस्त की तरह व्यवहार करना चाहिए। बड़े बच्चे आपके सबसे अच्छे दोस्त होते हैं।
- दिल में प्यार रखने वाले लोगों को दुख ही झेलने पड़ते हैं। दिल में प्यार पनपने पर बहुत सुख महसूस होता है, मगर इस सुख के साथ एक डर भी अंदर ही अंदर पनपने लगता है, खोने का डर, अधिकार कम होने का डर आदि-आदि। मगर दिल में प्यार पनपे नहीं, ऐसा तो हो नहीं सकता। तो प्यार पनपे मगर कुछ समझदारी के साथ। संक्षेप में कहें तो प्रीति में चालाकी रखने वाले ही अंतत: सुखी रहते हैं।
- ऐसा पैसा जो बहुत तकलीफ के बाद मिले, अपना धर्म-ईमान छोड़ने पर मिले या दुश्मनों की चापलूसी से, उनकी सत्ता स्वीकारने से मिले, उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए।
- नीच प्रवृति के लोग दूसरों के दिलों को चोट पहुंचाने वाली, उनके विश्वासों को छलनी करने वाली बातें करते हैं, दूसरों की बुराई कर खुश हो जाते हैं। मगर ऐसे लोग अपनी बड़ी-बड़ी और झूठी बातों के बुने जाल में खुद भी फंस जाते हैं। जिस तरह से रेत के टीले को अपनी बांबी समझकर सांप घुस जाता है और दम घुटने से उसकी मौत हो जाती है, उसी तरह से ऐसे लोग भी अपनी बुराइयों के बोझ तले मर जाते हैं।
- जो बीत गया, सो बीत गया। अपने हाथ से कोई गलत काम हो गया हो तो उसकी फिक्र छोड़ते हुए वर्तमान को सलीके से जीकर भविष्य को संवारना चाहिए।
- असंभव शब्द का इस्तेमाल बुजदिल करते हैं। बहादुर और बुद्धिमान व्यक्ति अपना रास्ता खुद बनाते हैं।
- संकट काल के लिए धन बचाएं। परिवार पर संकट आए तो धन कुर्बान कर दें। लेकिन अपनी आत्मा की हिफाजत हमें अपने परिवार और धन को भी दांव पर लगाकर करनी चाहिए।
- भाई-बंधुओं की परख संकट के समय और अपनी स्त्री की परख धन के नष्ट हो जाने पर ही होती है।
- कष्टों से भी बड़ा कष्ट दूसरों के घर पर रहना है।
- किसी भी व्यक्ति को जरूरत से ज्यादा ईमानदार नहीं होना चाहिए। सीधे तने वाले पेड़ ही सबसे काटे जाते हैं और बहुत ज्यादा ईमानदार लोगों को ही सबसे ज्यादा कष्ट उठाने पड़ते हैं।
- अगर कोई सांप जहरीला नहीं है, तब भी उसे फुफकारना नहीं छोड़ना चाहिए। उसी तरह से कमजोर व्यक्ति को भी हर वक्त अपनी कमजोरी का प्रदर्शन नहीं करना चाहिए।
- सबसे बड़ा गुरुमंत्र : कभी भी अपने रहस्यों को किसी के साथ साझा मत करो, यह प्रवृत्ति तुम्हें बर्बाद कर देगी।
- हर मित्रता के पीछे कुछ स्वार्थ जरूर छिपा होता है। दुनिया में ऐसी कोई दोस्ती नहीं जिसके पीछे लोगों के अपने हित न छिपे हों, यह कटु सत्य है, लेकिन यही सत्य है।
- अपने बच्चे को पहले पांच साल दुलार के साथ पालना चाहिए। अगले पांच साल उसे डांट-फटकार के साथ निगरानी में रखना चाहिए। लेकिन जब बच्चा सोलह साल का हो जाए, तो उसके साथ दोस्त की तरह व्यवहार करना चाहिए। बड़े बच्चे आपके सबसे अच्छे दोस्त होते हैं।
- दिल में प्यार रखने वाले लोगों को दुख ही झेलने पड़ते हैं। दिल में प्यार पनपने पर बहुत सुख महसूस होता है, मगर इस सुख के साथ एक डर भी अंदर ही अंदर पनपने लगता है, खोने का डर, अधिकार कम होने का डर आदि-आदि। मगर दिल में प्यार पनपे नहीं, ऐसा तो हो नहीं सकता। तो प्यार पनपे मगर कुछ समझदारी के साथ। संक्षेप में कहें तो प्रीति में चालाकी रखने वाले ही अंतत: सुखी रहते हैं।
- ऐसा पैसा जो बहुत तकलीफ के बाद मिले, अपना धर्म-ईमान छोड़ने पर मिले या दुश्मनों की चापलूसी से, उनकी सत्ता स्वीकारने से मिले, उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए।
- नीच प्रवृति के लोग दूसरों के दिलों को चोट पहुंचाने वाली, उनके विश्वासों को छलनी करने वाली बातें करते हैं, दूसरों की बुराई कर खुश हो जाते हैं। मगर ऐसे लोग अपनी बड़ी-बड़ी और झूठी बातों के बुने जाल में खुद भी फंस जाते हैं। जिस तरह से रेत के टीले को अपनी बांबी समझकर सांप घुस जाता है और दम घुटने से उसकी मौत हो जाती है, उसी तरह से ऐसे लोग भी अपनी बुराइयों के बोझ तले मर जाते हैं।
- जो बीत गया, सो बीत गया। अपने हाथ से कोई गलत काम हो गया हो तो उसकी फिक्र छोड़ते हुए वर्तमान को सलीके से जीकर भविष्य को संवारना चाहिए।
- असंभव शब्द का इस्तेमाल बुजदिल करते हैं। बहादुर और बुद्धिमान व्यक्ति अपना रास्ता खुद बनाते हैं।
- संकट काल के लिए धन बचाएं। परिवार पर संकट आए तो धन कुर्बान कर दें। लेकिन अपनी आत्मा की हिफाजत हमें अपने परिवार और धन को भी दांव पर लगाकर करनी चाहिए।
- भाई-बंधुओं की परख संकट के समय और अपनी स्त्री की परख धन के नष्ट हो जाने पर ही होती है।
- कष्टों से भी बड़ा कष्ट दूसरों के घर पर रहना है।
वह ज्ञान, अज्ञान से भी ज्यादा खतरनाक
ईश्वर ने हमें दो कान दिए हैं और दो आंखें, लेकिन जीभ केवल एक दी है।
इसलिए हम बहुत अधिक सुनें और बहुत अधिक देखें, लेकिन बोलें कम, बहुत कम।
जब ज्ञान इतना घमंडी हो जाए कि रो भी
न सके, इतना गंभीर बन जाए कि हंस न सके और इतना आत्मकेंद्रित बन जाए कि अपने सिवा और
किसी की चिंता न करे, तो वह ज्ञान अज्ञान से भी ज्यादा खतरनाक होता है।
Monday, July 15, 2013
श्रीमद्भगवद्गीता पंद्रहवाँ अध्याय
श्रीभगवान बोले
ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्॥१५- १॥
अश्वत्थ नाम वृक्ष जिसे अव्यय बताया जाता है, जिसकी जडें ऊपर हैं और शाखायें नीचे हैं, वेद छन्द जिसके पत्ते हैं, जो उसे जानता है वह वेदों का ज्ञाता है।
अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः।
अधश्च मूलान्यनुसंततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके॥१५- २॥
उस वृक्ष की गुणों और विषयों द्वारा सिंचीं शाखाएं नीचे ऊपर हर ओर फैली हुईं हैं। उसकी जडें भी मनुष्य के कर्मों द्वारा मनुष्य को हर ओर से बाँधे नीचे उपर बढी
हुईं हैं।
हुईं हैं।
न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल-मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा॥१५- ३॥
न इसका वास्तविक रुप दिखता है, न इस का अन्त और न ही इस का आदि और न ही इस का मूल स्थान (जहां यह स्थापित है)। इस अश्वथ नामक वृक्ष की बहुत धृढ शाखाओं को असंग रूपी धृढ शस्त्र से काट कर -।
ततः पदं तत्परिमार्गितव्यंयस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्येयतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी॥१५- ४॥
उसके बाद परम पद की खोज करनी चाहिये, जिस मार्ग पर चले जाने के बाद मनुष्य फिर लौट कर नहीं आता। उसी आदि पुरुष की शरण में चले जाना चाहिये जिन से यह पुरातन वृक्ष रूपी संसार उत्पन्न हुआ है।
निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्॥१५- ५॥
मान और मोह से मुक्त, संग रूपी दोष पर जीत प्राप्त किये, नित्य अध्यात्म में लगे, कामनाओं को शान्त किये, सुख दुख जिसे कहा जाता है उस द्वन्द्व से मुक्त हुये, ऐसे मूर्खता हीन महात्मा जन उस परम अव्यय पद को प्राप्त करते हैं।
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥१५- ६॥
न उस पद को सूर्य प्रकाशित करता है, न चन्द्र और न ही अग्नि (वह पद इस सभी लक्षणों से परे है), जहां पहुँचने पर वे पुनः वापिस नहीं आते, वही मेरा परम धाम (स्थान) है।
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति॥१५- ७॥
मेरा ही सनातन अंश इस जीव लोक में जीव रूप धारण कर, मन सहित छे इन्द्रियों (मन और पाँच अन्य इन्द्रियों) को, जो प्रकृति में स्थित हैं, आकर्षित करता है।
शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः।
गृहित्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्॥१५- ८॥
जैसे वायु गन्ध को ग्रहण कर एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाता है, उसी प्रकार आत्मा इन इन्द्रियों को ग्रहण कर जिस भी शरीर को प्राप्त करता है वहां ले जाता है।
श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च।
अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते॥१५- ९॥
शरीर में स्थित हो वह सुनने की शक्ति, आँखें, छूना, स्वाद, सूँघने की शक्ति तथा मन द्वारा इन सभी के विषयों का सेवन करता है।
उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम्।
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः॥१५- १०॥
शरीर को त्यागते हुये, या उस में स्थित रहते हुये, गुणों को भोगते हुये, जो विमूढ (मूर्ख) हैं वे उसे (आत्मा) को नहीं देख पाते, परन्तु जिनके पास ज्ञान चक्षु (आँखें) हैं, अर्थात जो ज्ञान युक्त हैं, वे उसे देखते हैं।
यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम्।
यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः॥१५- ११॥
साधना युक्त योगी जन इसे स्वयं में अवस्थित देखते हैं (अर्थात अपनी आत्मा का अनुभव करते हैं), परन्तु साधना करते हुये भी अकृत जन, जिनका चित अभी ज्ञान युक्त नहीं है, वे इसे नहीं देख पाते।
यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम्।
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम्॥१५- १२॥
जो तेज सूर्य से आकर इस संपूर्ण संसार को प्रकाशित कर देता है, और जो तेज चन्द्र औऱ अग्नि में है, उन सभी को तुम मेरा ही जानो।
गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा।
पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः॥१५- १३॥
मैं ही सभी प्राणियों में प्रविष्ट होकर उन्हें धारण करता हूँ (उनका पालन पोषण करता हूँ)। मैं ही रसमय चन्द्र बनकर सभी औषधीयाँ (अनाज आदि) उत्पन्न करता हूँ।
अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्॥१५- १४॥
मैं ही प्राणियों की देह में स्थित हो प्राण और अपान वायुओं द्वारा चारों प्रकार के खानों को पचाता हूँ।
सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्॥१५- १५॥
मैं सभी प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ। मुझ से ही स्मृति, ज्ञान होते है। सभी वेदों द्वारा मैं ही जानने योग्य हूँ। मैं ही वेदों का सार हुँ और मैं ही वेदों का ज्ञाता हुँ।
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥१५- १६॥
इस संसार में दो प्रकार की पुरुष संज्ञायें हैं - क्षर और अक्षऱ (अर्थात जो नश्वर हैं और जो शाश्वत हैं)। इन दोनो प्रकारों में सभी जीव (देहधारी) क्षर हैं और उन देहों में विराजमान आत्मा को अक्षर कहा जाता है।
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः॥१५- १७॥
परन्तु इन से अतिरिक्त एक अन्य उत्तम पुरुष और भी हैं जिन्हें परमात्मा कह कर पुकारा जाता है। वे विकार हीन अव्यय ईश्वर इन तीनो लोकों में प्रविष्ट होकर संपूर्ण संसार का भरण पोषण करते हैं।
यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः॥१५- १८॥
क्योंकि मैं क्षर (देह धारी जीव) से ऊपर हूँ तथा अक्षर (आत्मा) से भी उत्तम हूँ, इस लिये मुझे इस संसार में पुरुषोत्तम के नाम से जाना जाता है।
यो मामेवमसंमूढो जानाति पुरुषोत्तमम्।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत॥१५- १९॥
जो अन्धकार से परे मनुष्य मुझे पुरुषोत्तम जानता है, वह ही सब कुछ जानता है और संपूर्ण भावना से हर प्रकार मुझे भजता है, हे भारत।
इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ।
एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत॥१५- २०॥
हे अनघ (पाप हीन अर्जुन), इस प्रकार मैंने तुम्हें इस गुह्य शास्त्र को सुनाया। इसे जान लेने पर मनुष्य बुद्धिमान और कृतकृत्य हो जाता है, हे भारत।
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