जैसा भाव रखोगे, वैसा ही मिलेगा
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु
वः।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।। गीता 3/11
हे अर्जुन! इस यज्ञ से तुम देवताओं को प्रसन्न करो और वे देवता तुमको प्रसन्न रखेंगे। इस प्रकार एक-दूसरे को प्रसन्न करते हुए तुम्हारा परम कल्याण होगा।
संसार में सब एक-दूसरे से मिलजुल कर ही काम कर सकते हैं। आपकी भावनाएं दूसरों के लिए साफ होनी चाहिए क्योंकि जैसी भावना आप दूसरे के लिए रखते हैं, वैसी ही वह आपके लिए रखता है। आप किसी को प्यार करते हैं तो वह आपको प्यार करता है। आप किसी को प्रसन्न करते हैं तो वह भी आपको प्रसन्न करता है। ऐसे ही अगर आप किसी से नफरत करते हैं तो वह भी आपसे नफरत ही करेगा। अगर आप किसी पर गुस्सा करते हैं तो वह भी आप पर गुस्सा ही करेगा। संसार में जैसा दूसरे के साथ व्यवहार करते हैं, वैसा ही वापस मिलता है।
जब तक आप खुद के कामों को अनासक्त भाव से नहीं करेंगे, तब तक मन की सफाई नहीं होगी। क्योंकि साफ मन ही सबकी भलाई का भाव रख सकता है इसलिए भगवान कृष्ण कहते हैं कि तुम सभी के लिए प्रसन्नता का भाव रखो, बदले में वह भी तुम्हारे लिए प्रसन्नता का भाव ही रखेंगे और इस प्रकार एक-दूसरे को प्रसन्न रखते हुए तुम अपने लक्ष्य को पा सकोगे।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।। गीता 3/11
हे अर्जुन! इस यज्ञ से तुम देवताओं को प्रसन्न करो और वे देवता तुमको प्रसन्न रखेंगे। इस प्रकार एक-दूसरे को प्रसन्न करते हुए तुम्हारा परम कल्याण होगा।
संसार में सब एक-दूसरे से मिलजुल कर ही काम कर सकते हैं। आपकी भावनाएं दूसरों के लिए साफ होनी चाहिए क्योंकि जैसी भावना आप दूसरे के लिए रखते हैं, वैसी ही वह आपके लिए रखता है। आप किसी को प्यार करते हैं तो वह आपको प्यार करता है। आप किसी को प्रसन्न करते हैं तो वह भी आपको प्रसन्न करता है। ऐसे ही अगर आप किसी से नफरत करते हैं तो वह भी आपसे नफरत ही करेगा। अगर आप किसी पर गुस्सा करते हैं तो वह भी आप पर गुस्सा ही करेगा। संसार में जैसा दूसरे के साथ व्यवहार करते हैं, वैसा ही वापस मिलता है।
जब तक आप खुद के कामों को अनासक्त भाव से नहीं करेंगे, तब तक मन की सफाई नहीं होगी। क्योंकि साफ मन ही सबकी भलाई का भाव रख सकता है इसलिए भगवान कृष्ण कहते हैं कि तुम सभी के लिए प्रसन्नता का भाव रखो, बदले में वह भी तुम्हारे लिए प्रसन्नता का भाव ही रखेंगे और इस प्रकार एक-दूसरे को प्रसन्न रखते हुए तुम अपने लक्ष्य को पा सकोगे।
सब भगवान को अर्पण कर दो!
इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते
यज्ञभाविताः।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुक्ते स्तेन एव सः ।।
तुम लोग जो मांग रहे हो, यज्ञ से खुश होकर देवता उस इच्छा को पूरा करेंगे। लेकिन इच्छापूर्ति के बाद मिले फल को ईश्वर को अर्पित किए बिना भोग करने वाला मनुष्य चोर ही है।
यज्ञ का मतलब है कि जो भी कर्म करो, भगवान को अर्पण कर दो। और उसमें अपना स्वार्थ नहीं, बल्कि सबकी भलाई का भाव हो। जब हर काम भगवान को समर्पित करके किया जाता है तो यज्ञ भाव से कर्म होगा और प्रभु प्रसन्न होकर हमारी हर जरूरत अवश्य पूरी करते रहेंगे और हमारी सभी वाज़िब इच्छाओं का ध्यान रखेंगे।
जब भगवान की कृपा से इच्छा पूरी हो जाए, तब उनके द्वारा दिए गए भोग को पहले उनको ही अर्पण के भाव से समर्पित कर दो। वैसे भी ब्रह्मांड में जो कुछ भी है ईश्वर का ही है, ऐसे में सब पहले उसको ही समर्पित कर दें। भगवान को अर्पण करने का अर्थ है कि उस भोग में मेरा भाव हटाकर, भगवान की दी हुई चीजों को लेने की आज्ञा लेना।वैसे भी अगर हम किसी की चीज ले रहे हैं तो उससे अनुमति तो लेनी ही पड़ती है, वरना वह चोरी ही कहलाती है। भगवान भी यही कह रहे हैं कि भोगने से पहले मुझे अर्पण कर दो वरना चोर ही कहलाओगे।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुक्ते स्तेन एव सः ।।
तुम लोग जो मांग रहे हो, यज्ञ से खुश होकर देवता उस इच्छा को पूरा करेंगे। लेकिन इच्छापूर्ति के बाद मिले फल को ईश्वर को अर्पित किए बिना भोग करने वाला मनुष्य चोर ही है।
यज्ञ का मतलब है कि जो भी कर्म करो, भगवान को अर्पण कर दो। और उसमें अपना स्वार्थ नहीं, बल्कि सबकी भलाई का भाव हो। जब हर काम भगवान को समर्पित करके किया जाता है तो यज्ञ भाव से कर्म होगा और प्रभु प्रसन्न होकर हमारी हर जरूरत अवश्य पूरी करते रहेंगे और हमारी सभी वाज़िब इच्छाओं का ध्यान रखेंगे।
जब भगवान की कृपा से इच्छा पूरी हो जाए, तब उनके द्वारा दिए गए भोग को पहले उनको ही अर्पण के भाव से समर्पित कर दो। वैसे भी ब्रह्मांड में जो कुछ भी है ईश्वर का ही है, ऐसे में सब पहले उसको ही समर्पित कर दें। भगवान को अर्पण करने का अर्थ है कि उस भोग में मेरा भाव हटाकर, भगवान की दी हुई चीजों को लेने की आज्ञा लेना।वैसे भी अगर हम किसी की चीज ले रहे हैं तो उससे अनुमति तो लेनी ही पड़ती है, वरना वह चोरी ही कहलाती है। भगवान भी यही कह रहे हैं कि भोगने से पहले मुझे अर्पण कर दो वरना चोर ही कहलाओगे।
मैं नहीं, बस तू ही तू
यज्ञशिष्टाशिनः संतो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषै:।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ।।
हे अर्जुन! वह संत सब पापों से मुक्त हो जाते हैं, जो यज्ञ से बचा अन्न खाते हैं, लेकिन जो केवल अपने लिए ही पकाते हैं, वह पाप खाते हैं।
जब किसी इंसान में बिना स्वार्थ के सबकी भलाई की भावना होती है तब वह दूसरों के लिए सबसे पहले सोचता है। हालांकि ऐसा कम ही होता है, क्योंकि मन में तो हमेशा यही रहता है कि पहले मेरा काम होना चाहिए। खाना खाने के वक्त सोचते हैं कि पहले ही खा लेते हैं, पता नहीं बाद में मिले ना मिले। कहने का मतलब पहले अपना पेट भर लो, भले दूसरे के लिए बचे या न बचे।
अक्सर देखने में आता है कि जब पार्टी
में जाते है तो पनीर की सब्जी प्लेट में पहले ही भर लेते हैं, क्योंकि पता नहीं बाद
में पनीर बचे ना बचे। धीरे-धीरे इस तरह की आदत बन जाती है और फिर ये स्वार्थ की भावना
मन में हमेशा दोष पैदा करती है। भगवान कह रहे हैं कि यदि तुम केवल अपने लिए पकाते हो
और सोचते हो कि मेरा ही पेट भरना चाहिए तो यह गलत है। ऐसे में खाया गया भोजन पाप का
हिस्सा बनता है।
जब सबका पेट पहले भरे, बाद में मुझे मिले की भावना होती है, तब मन और आत्मा की सफाई की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। अब मैं और मेरा कम होकर, तू ही तू पक्का होने लगता है।
जब सबका पेट पहले भरे, बाद में मुझे मिले की भावना होती है, तब मन और आत्मा की सफाई की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। अब मैं और मेरा कम होकर, तू ही तू पक्का होने लगता है।
बच्चों का पालन-पोषण अच्छी तरह करें
चाणक्य नीति के दूसरे अध्याय के अंश:
1. जिस प्रकार सभी पर्वतों पर मणि नहीं मिलती, सभी हाथियों के मस्तक में मोती उत्पन्न नहीं होता और सभी वनों में चंदन का वृक्ष नहीं होता, उसी प्रकार सज्जन पुरुष सभी जगहों पर नहीं मिलते हैं।
2. भोजन के लिए अच्छे पदार्थों का उपलब्ध होना, उन्हें पचाने की शक्ति का होना, प्रचुर धन के साथ-साथ धन देने की इच्छा होना। ये सभी सुख मनुष्य को बहुत कठिनता से प्राप्त होते हैं।
1. जिस प्रकार सभी पर्वतों पर मणि नहीं मिलती, सभी हाथियों के मस्तक में मोती उत्पन्न नहीं होता और सभी वनों में चंदन का वृक्ष नहीं होता, उसी प्रकार सज्जन पुरुष सभी जगहों पर नहीं मिलते हैं।
2. भोजन के लिए अच्छे पदार्थों का उपलब्ध होना, उन्हें पचाने की शक्ति का होना, प्रचुर धन के साथ-साथ धन देने की इच्छा होना। ये सभी सुख मनुष्य को बहुत कठिनता से प्राप्त होते हैं।
3. चाणक्य का मानना है कि वही गृहस्थी
सुखी है, जिसकी संतान उनकी आज्ञा का पालन करती है। पिता का भी कर्तव्य है कि वह पुत्रों
का पालन-पोषण अच्छी तरह से करे। इसी प्रकार ऐसे व्यक्ति को मित्र नहीं कहा जा सकता
है, जिस पर विश्वास नहीं किया जा सके और ऐसी पत्नी व्यर्थ है जिससे किसी प्रकार का
सुख प्राप्त न हो।
4. जो मित्र आपके सामने चिकनी-चुपड़ी बातें करता हो और पीठ पीछे आपके कार्य को बिगाड़ देता हो, उसे त्याग देने में ही भलाई है। चाणक्य कहते हैं कि वह उस बर्तन के समान है, जिसके ऊपर के हिस्से में दूध लगा है परंतु अंदर विष भरा हुआ होता है।
5. चाणक्य कहते हैं कि जो व्यक्ति अच्छा मित्र नहीं है उस पर तो विश्वास नहीं करना चाहिए, परंतु इसके साथ ही अच्छे मित्र के संबंध में भी पूरा विश्वास नहीं करना चाहिए, क्योंकि यदि वह नाराज हो गया तो आपके सारे भेद खोल सकता है। अत: सावधानी अत्यंत आवश्यक है।
6. चाणक्य का मानना है कि व्यक्ति को कभी अपने मन का भेद नहीं खोलना चाहिए। उसे जो भी कार्य करना है, उसे अपने मन में रखे और पूरी तन्मयता के साथ समय आने पर उसे पूरा करना चाहिए।
7. चाणक्य का कहना है कि मूर्खता के समान यौवन भी दुखदायी होता है क्योंकि जवानी में व्यक्ति कामवासना के आवेग में कोई भी मूर्खतापूर्ण कार्य कर सकता है। परंतु इनसे भी अधिक कष्टदायक है दूसरों पर आश्रित रहना।
8. चाणक्य कहते हैं कि बचपन में संतान को जैसी शिक्षा दी जाती है, उनका विकास उसी प्रकार होता है। इसलिए माता-पिता का कर्तव्य है कि वे उन्हें ऐसे मार्ग पर चलाएं, जिससे उनमें उत्तम चरित्र का विकास हो क्योंकि गुणी व्यक्तियों से ही कुल की शोभा बढ़ती है।
4. जो मित्र आपके सामने चिकनी-चुपड़ी बातें करता हो और पीठ पीछे आपके कार्य को बिगाड़ देता हो, उसे त्याग देने में ही भलाई है। चाणक्य कहते हैं कि वह उस बर्तन के समान है, जिसके ऊपर के हिस्से में दूध लगा है परंतु अंदर विष भरा हुआ होता है।
5. चाणक्य कहते हैं कि जो व्यक्ति अच्छा मित्र नहीं है उस पर तो विश्वास नहीं करना चाहिए, परंतु इसके साथ ही अच्छे मित्र के संबंध में भी पूरा विश्वास नहीं करना चाहिए, क्योंकि यदि वह नाराज हो गया तो आपके सारे भेद खोल सकता है। अत: सावधानी अत्यंत आवश्यक है।
6. चाणक्य का मानना है कि व्यक्ति को कभी अपने मन का भेद नहीं खोलना चाहिए। उसे जो भी कार्य करना है, उसे अपने मन में रखे और पूरी तन्मयता के साथ समय आने पर उसे पूरा करना चाहिए।
7. चाणक्य का कहना है कि मूर्खता के समान यौवन भी दुखदायी होता है क्योंकि जवानी में व्यक्ति कामवासना के आवेग में कोई भी मूर्खतापूर्ण कार्य कर सकता है। परंतु इनसे भी अधिक कष्टदायक है दूसरों पर आश्रित रहना।
8. चाणक्य कहते हैं कि बचपन में संतान को जैसी शिक्षा दी जाती है, उनका विकास उसी प्रकार होता है। इसलिए माता-पिता का कर्तव्य है कि वे उन्हें ऐसे मार्ग पर चलाएं, जिससे उनमें उत्तम चरित्र का विकास हो क्योंकि गुणी व्यक्तियों से ही कुल की शोभा बढ़ती है।
वक्त बड़ा बलवान है
ये बहुत पुरानी पंक्तियां संत कबीर दास
ने कही थीं। और उन्होंने कितनी सही बात कही थी, यह सभी समझ गए होंगे। मगर जीवन में
इस विचार को अपनाते बहुत कम लोग हैं।
आज जिसे देखो अपनी ताकत का गलत इस्तेमाल करता है, चाहे छोटा हो या बड़ा। जहां थोड़ी सी पावर आई नहीं कि उसका गलत इस्तेमाल शुरू कर देते हैं। लेकिन यह नहीं सोचते की वक़्त बदलेगा और वे भी किसी के द्वारा दबाये और शोषित किये जा सकते हैं। वह समय ऐसा भी हो सकता है जब आपके बुरे समय में आपके अच्छे कर्मों को कोई याद ना रखे और सिर्फ आपकी गलतियों को ही याद रखें। ऐसे में कोई भी आपका साथ देने वाला नहीं होगा।
आज जिसे देखो अपनी ताकत का गलत इस्तेमाल करता है, चाहे छोटा हो या बड़ा। जहां थोड़ी सी पावर आई नहीं कि उसका गलत इस्तेमाल शुरू कर देते हैं। लेकिन यह नहीं सोचते की वक़्त बदलेगा और वे भी किसी के द्वारा दबाये और शोषित किये जा सकते हैं। वह समय ऐसा भी हो सकता है जब आपके बुरे समय में आपके अच्छे कर्मों को कोई याद ना रखे और सिर्फ आपकी गलतियों को ही याद रखें। ऐसे में कोई भी आपका साथ देने वाला नहीं होगा।
इसे हर व्यक्ति को सोचना चाहिए- पति,
पुलिस, राज नेता, सरकारी अफसर वगैरह-वगैरह। एक अच्छा देश तभी बनता है जब समाज अच्छा
हो, और समाज तब अच्छा होता है जब समाज का हर व्यक्ति सोचने-विचारने की शक्ति रखता हो।
इसलिए कबीर जैसे महान व्यक्तित्व के लोगों के विचारों को समय समय पर खंगालना ज़रूरी
है, शायद हमें कुछ अक्ल आ जाए।
झूठे लोग जल्दी पहचान में आते हैं
बाना पहिरे सिंह का, चलै भेड़ की
चाल।
बोली बोले सियार की, कुत्ता खावै फाल।।
सिंह का वेश पहनकर, जो भेड़ की चाल चलता और सियार की बोली बोलता है, उसे एक दिन कुत्ता जरूर फाड़ खाएगा।
बोली बोले सियार की, कुत्ता खावै फाल।।
सिंह का वेश पहनकर, जो भेड़ की चाल चलता और सियार की बोली बोलता है, उसे एक दिन कुत्ता जरूर फाड़ खाएगा।
न कोई तुम्हारा मित्र है, न शत्रु
चाणक्य नीति:
1. कोई काम शुरू करने से पहले, स्वयम से तीन प्रश्न कीजिए- मैं ये क्यों कर रहा हूं, इसके परिणाम क्या हो सकते हैं और क्या मैं सफल हो पाऊंगा. और जब गहरई से सोचने पर इन प्रश्नों के संतोषजनक उत्तर मिल जाएं, तभी आगे बढें।
2. संसार एक कड़वा वृक्ष है, इसके दो फल ही अमृत जैसे मीठे होते हैं- एक मधुर वाणी और दूसरी सज्जनों की संगति।
1. कोई काम शुरू करने से पहले, स्वयम से तीन प्रश्न कीजिए- मैं ये क्यों कर रहा हूं, इसके परिणाम क्या हो सकते हैं और क्या मैं सफल हो पाऊंगा. और जब गहरई से सोचने पर इन प्रश्नों के संतोषजनक उत्तर मिल जाएं, तभी आगे बढें।
2. संसार एक कड़वा वृक्ष है, इसके दो फल ही अमृत जैसे मीठे होते हैं- एक मधुर वाणी और दूसरी सज्जनों की संगति।
3. व्यक्ति अकेले पैदा होता है और अकेले
मर जाता है। वो अपने अच्छे और बुरे कर्मों का फल खुद ही भुगतता है। वह अकेले ही नर्क
या स्वर्ग जाता है।
4. एक बार काम शुरू कर लें तो असफलता का डर नहीं रखें और न ही काम को छोड़ें। निष्ठा से काम करने वाले ही सबसे सुखी हैं।
5. कुबेर भी अगर आय से ज्यादा व्यय करे, तो कंगाल हो जाता है।
6. संसार में न कोई तुम्हारा मित्र है न शत्रु। तुम्हारा अपना विचार ही, इसके लिए उत्तरदायी है।
7. भगवान मूर्तियों में नहीं है। आपकी अनुभूति आपका ईश्वर है, आत्मा आपका मंदिर है।
8. अगर सांप जहरीला न भी हो तो उसे खुद को जहरीला दिखाना चाहिए।
9. इस बात को व्यक्त मत होने दीजिए कि आपने क्या करने के लिए सोचा है, बुद्धिमानी से इसे रहस्य बनाये रखिये और इस काम को करने के लिए दृढ रहिए।
10. शिक्षा सबसे अच्छी मित्र है.एक शिक्षित व्यक्ति हर जगह सम्मान पता है।
4. एक बार काम शुरू कर लें तो असफलता का डर नहीं रखें और न ही काम को छोड़ें। निष्ठा से काम करने वाले ही सबसे सुखी हैं।
5. कुबेर भी अगर आय से ज्यादा व्यय करे, तो कंगाल हो जाता है।
6. संसार में न कोई तुम्हारा मित्र है न शत्रु। तुम्हारा अपना विचार ही, इसके लिए उत्तरदायी है।
7. भगवान मूर्तियों में नहीं है। आपकी अनुभूति आपका ईश्वर है, आत्मा आपका मंदिर है।
8. अगर सांप जहरीला न भी हो तो उसे खुद को जहरीला दिखाना चाहिए।
9. इस बात को व्यक्त मत होने दीजिए कि आपने क्या करने के लिए सोचा है, बुद्धिमानी से इसे रहस्य बनाये रखिये और इस काम को करने के लिए दृढ रहिए।
10. शिक्षा सबसे अच्छी मित्र है.एक शिक्षित व्यक्ति हर जगह सम्मान पता है।
जरूरत से ज्यादा अपने परिजनों से
जुड़े रहने पर डर और दुख का माहौल बनता है। हर दुख का मूल कारण बंधन है। जो बंधन से
मुक्त हो जाता है, वह हमेशा सुखी रहता है।
अगर आप एक काम शुरू करते हैं तो नाकामी
के डर से उसे बीच में न छोड़ें। जो मन लगाकर अपना काम करता है, वह हमेशा खुश रहता है।
ज्ञान किसी भी शख्स का सबसे अच्छा
दोस्त होता है। एक ज्ञानी शख्स हर जगह सम्मान का पात्र होता है। किसी की खूबसूरती से
ज्यादा उसके ज्ञान पर गौर किया जाता है।
फूलों की खुशबू सिर्फ हवा की दिशा
में फैलती है लेकिन मनुष्य की अच्छाई हर दिशा में फैलती है।
विदेशों में ज्ञान अच्छा दोस्त है।
घर पर मां अच्छी दोस्त है। जो शख्स बीमारी से पीड़ित है,उसके लिए दवा अच्छी दोस्त है
और मन विचलित होने के दौरान धर्म अच्छा दोस्त है।
एक व्यक्ति के जीवन-मरण, ज्ञान, धन आदि
का निर्धारण भगवान तब करते हैं, जब वह कोख में होता है।
ऐसे पुत्र का भला क्या फायदा, जो न तो पढ़ने-लिखने की इच्छा रखता हो और न ही भगवान के प्रति उसकी आस्था हो। यह ठीक उसी प्रकार है जैसे किसी की अंधी आंखें, जो सिर्फ दर्द का आभास कराती हैं।
जिस प्रकार एक अच्छा वृक्ष अपने खुशबूदार
फूलों से पूरे जंगल को सुगंधित कर देता है, उसी प्रकार अच्छे गुणों से युक्त एक पुत्र
से पूरा परिवार चमकने लगता है।
एक विद्वान और राजा की बराबरी कभी
नहीं की जा सकती। एक राजा सिर्फ अपने राज्य में पूजा जाता है जबकि विद्वान की हर जगह
पूजा होती है।
एक बुद्धिमान व्यक्ति में हर तरह
के गुण होते हैं जबकि मूर्ख में सिर्फ अवगुण ही होते हैं। इसलिए एक बुद्धिमान शख्स
सौ मूर्खों से अच्छा होता है।
यह प्रसन्नता भी दुखों का कारण है
गीता सार:
1. क्यों व्यर्थ चिन्ता करते हो? किससे व्यर्थ डरते हो? कौन तुम्हें मार सकता है? आत्मा न पैदा होती है, न मरती है।
2. जो हुआ, वह अच्छा हुआ। जो हो रहा है, वह अच्छा हो रहा है। जो होगा, वह भी अच्छा ही होगा। तुम भूत का पश्चाताप न करो। भविष्य की चिन्ता न करो। वर्तमान चल रहा है।
3. तुम्हारा क्या गया, जो तुम रोते हो? तुम क्या लाये थे, जो तुमने खो दिया? तुमने क्या पैदा किया था, जो नाश हो गया? न तुम कुछ लेकर आए, जो लिया यहीं से लिया। जो दिया, यहीं पर दिया। जो लिया, इसी (भगवान) से लिया। जो दिया, इसी को दिया। खाली हाथ आये, खाली हाथ चले। जो आज तुम्हारा है, कल किसी और का था, परसों किसी और का होगा। तुम इसे अपना समझकर मग्न हो रहे हो। बस, यही प्रसन्नता तुम्हारे दुखों का कारण है।
1. क्यों व्यर्थ चिन्ता करते हो? किससे व्यर्थ डरते हो? कौन तुम्हें मार सकता है? आत्मा न पैदा होती है, न मरती है।
2. जो हुआ, वह अच्छा हुआ। जो हो रहा है, वह अच्छा हो रहा है। जो होगा, वह भी अच्छा ही होगा। तुम भूत का पश्चाताप न करो। भविष्य की चिन्ता न करो। वर्तमान चल रहा है।
3. तुम्हारा क्या गया, जो तुम रोते हो? तुम क्या लाये थे, जो तुमने खो दिया? तुमने क्या पैदा किया था, जो नाश हो गया? न तुम कुछ लेकर आए, जो लिया यहीं से लिया। जो दिया, यहीं पर दिया। जो लिया, इसी (भगवान) से लिया। जो दिया, इसी को दिया। खाली हाथ आये, खाली हाथ चले। जो आज तुम्हारा है, कल किसी और का था, परसों किसी और का होगा। तुम इसे अपना समझकर मग्न हो रहे हो। बस, यही प्रसन्नता तुम्हारे दुखों का कारण है।
4. परिवर्तन संसार का नियम है। जिसे
तुम मृत्यु समझते हो, वही तो जीवन है। एक क्षण में तुम करोड़ों के स्वामी बन जाते हो,
दूसरे ही क्षण तुम दरिद्र हो जाते हो। मेरा-तेरा, छोटा-बड़ा, अपना-पराया मन से मिटा
दो, विचार से हटा दो। फिर सब तुम्हारा है, तुम सबके हो।
5. न यह शरीर तुम्हारा है, न तुम इस शरीर के हो। यह अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी, आकाश से बना है और इसी में मिल जाएगा। परन्तु आत्मा स्थिर है, फिर तुम क्या हो?
6. तुम अपने आप को भगवान को अर्पित करो। यही सबसे उत्तम सहारा है। जो इसके सहारे को जानता है, वह भय, चिन्ता, शोक से सर्वदा मुक्त है।
7. जो कुछ भी तुम करते हो, उसे भगवान को अर्पण करते चलो। ऐसा करने से तुम सदा जीवन-मुक्ति का आनन्द अनुभव करोगे।
5. न यह शरीर तुम्हारा है, न तुम इस शरीर के हो। यह अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी, आकाश से बना है और इसी में मिल जाएगा। परन्तु आत्मा स्थिर है, फिर तुम क्या हो?
6. तुम अपने आप को भगवान को अर्पित करो। यही सबसे उत्तम सहारा है। जो इसके सहारे को जानता है, वह भय, चिन्ता, शोक से सर्वदा मुक्त है।
7. जो कुछ भी तुम करते हो, उसे भगवान को अर्पण करते चलो। ऐसा करने से तुम सदा जीवन-मुक्ति का आनन्द अनुभव करोगे।
ज्यादा ईमानदारी भी ठीक नहीं
चाणक्य नीति की इसी विशेषता के दर्शन
होते हैं :
- किसी भी व्यक्ति को जरूरत से ज्यादा ईमानदार नहीं होना चाहिए। सीधे तने वाले पेड़ ही सबसे काटे जाते हैं और बहुत ज्यादा ईमानदार लोगों को ही सबसे ज्यादा कष्ट उठाने पड़ते हैं।
- अगर कोई सांप जहरीला नहीं है, तब भी उसे फुफकारना नहीं छोड़ना चाहिए। उसी तरह से कमजोर व्यक्ति को भी हर वक्त अपनी कमजोरी का प्रदर्शन नहीं करना चाहिए।
- सबसे बड़ा गुरुमंत्र : कभी भी अपने रहस्यों को किसी के साथ साझा मत करो, यह प्रवृत्ति तुम्हें बर्बाद कर देगी।
- हर मित्रता के पीछे कुछ स्वार्थ जरूर छिपा होता है। दुनिया में ऐसी कोई दोस्ती नहीं जिसके पीछे लोगों के अपने हित न छिपे हों, यह कटु सत्य है, लेकिन यही सत्य है।
- अपने बच्चे को पहले पांच साल दुलार के साथ पालना चाहिए। अगले पांच साल उसे डांट-फटकार के साथ निगरानी में रखना चाहिए। लेकिन जब बच्चा सोलह साल का हो जाए, तो उसके साथ दोस्त की तरह व्यवहार करना चाहिए। बड़े बच्चे आपके सबसे अच्छे दोस्त होते हैं।
- दिल में प्यार रखने वाले लोगों को दुख ही झेलने पड़ते हैं। दिल में प्यार पनपने पर बहुत सुख महसूस होता है, मगर इस सुख के साथ एक डर भी अंदर ही अंदर पनपने लगता है, खोने का डर, अधिकार कम होने का डर आदि-आदि। मगर दिल में प्यार पनपे नहीं, ऐसा तो हो नहीं सकता। तो प्यार पनपे मगर कुछ समझदारी के साथ। संक्षेप में कहें तो प्रीति में चालाकी रखने वाले ही अंतत: सुखी रहते हैं।
- ऐसा पैसा जो बहुत तकलीफ के बाद मिले, अपना धर्म-ईमान छोड़ने पर मिले या दुश्मनों की चापलूसी से, उनकी सत्ता स्वीकारने से मिले, उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए।
- नीच प्रवृति के लोग दूसरों के दिलों को चोट पहुंचाने वाली, उनके विश्वासों को छलनी करने वाली बातें करते हैं, दूसरों की बुराई कर खुश हो जाते हैं। मगर ऐसे लोग अपनी बड़ी-बड़ी और झूठी बातों के बुने जाल में खुद भी फंस जाते हैं। जिस तरह से रेत के टीले को अपनी बांबी समझकर सांप घुस जाता है और दम घुटने से उसकी मौत हो जाती है, उसी तरह से ऐसे लोग भी अपनी बुराइयों के बोझ तले मर जाते हैं।
- जो बीत गया, सो बीत गया। अपने हाथ से कोई गलत काम हो गया हो तो उसकी फिक्र छोड़ते हुए वर्तमान को सलीके से जीकर भविष्य को संवारना चाहिए।
- असंभव शब्द का इस्तेमाल बुजदिल करते हैं। बहादुर और बुद्धिमान व्यक्ति अपना रास्ता खुद बनाते हैं।
- संकट काल के लिए धन बचाएं। परिवार पर संकट आए तो धन कुर्बान कर दें। लेकिन अपनी आत्मा की हिफाजत हमें अपने परिवार और धन को भी दांव पर लगाकर करनी चाहिए।
- भाई-बंधुओं की परख संकट के समय और अपनी स्त्री की परख धन के नष्ट हो जाने पर ही होती है।
- कष्टों से भी बड़ा कष्ट दूसरों के घर पर रहना है।
- किसी भी व्यक्ति को जरूरत से ज्यादा ईमानदार नहीं होना चाहिए। सीधे तने वाले पेड़ ही सबसे काटे जाते हैं और बहुत ज्यादा ईमानदार लोगों को ही सबसे ज्यादा कष्ट उठाने पड़ते हैं।
- अगर कोई सांप जहरीला नहीं है, तब भी उसे फुफकारना नहीं छोड़ना चाहिए। उसी तरह से कमजोर व्यक्ति को भी हर वक्त अपनी कमजोरी का प्रदर्शन नहीं करना चाहिए।
- सबसे बड़ा गुरुमंत्र : कभी भी अपने रहस्यों को किसी के साथ साझा मत करो, यह प्रवृत्ति तुम्हें बर्बाद कर देगी।
- हर मित्रता के पीछे कुछ स्वार्थ जरूर छिपा होता है। दुनिया में ऐसी कोई दोस्ती नहीं जिसके पीछे लोगों के अपने हित न छिपे हों, यह कटु सत्य है, लेकिन यही सत्य है।
- अपने बच्चे को पहले पांच साल दुलार के साथ पालना चाहिए। अगले पांच साल उसे डांट-फटकार के साथ निगरानी में रखना चाहिए। लेकिन जब बच्चा सोलह साल का हो जाए, तो उसके साथ दोस्त की तरह व्यवहार करना चाहिए। बड़े बच्चे आपके सबसे अच्छे दोस्त होते हैं।
- दिल में प्यार रखने वाले लोगों को दुख ही झेलने पड़ते हैं। दिल में प्यार पनपने पर बहुत सुख महसूस होता है, मगर इस सुख के साथ एक डर भी अंदर ही अंदर पनपने लगता है, खोने का डर, अधिकार कम होने का डर आदि-आदि। मगर दिल में प्यार पनपे नहीं, ऐसा तो हो नहीं सकता। तो प्यार पनपे मगर कुछ समझदारी के साथ। संक्षेप में कहें तो प्रीति में चालाकी रखने वाले ही अंतत: सुखी रहते हैं।
- ऐसा पैसा जो बहुत तकलीफ के बाद मिले, अपना धर्म-ईमान छोड़ने पर मिले या दुश्मनों की चापलूसी से, उनकी सत्ता स्वीकारने से मिले, उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए।
- नीच प्रवृति के लोग दूसरों के दिलों को चोट पहुंचाने वाली, उनके विश्वासों को छलनी करने वाली बातें करते हैं, दूसरों की बुराई कर खुश हो जाते हैं। मगर ऐसे लोग अपनी बड़ी-बड़ी और झूठी बातों के बुने जाल में खुद भी फंस जाते हैं। जिस तरह से रेत के टीले को अपनी बांबी समझकर सांप घुस जाता है और दम घुटने से उसकी मौत हो जाती है, उसी तरह से ऐसे लोग भी अपनी बुराइयों के बोझ तले मर जाते हैं।
- जो बीत गया, सो बीत गया। अपने हाथ से कोई गलत काम हो गया हो तो उसकी फिक्र छोड़ते हुए वर्तमान को सलीके से जीकर भविष्य को संवारना चाहिए।
- असंभव शब्द का इस्तेमाल बुजदिल करते हैं। बहादुर और बुद्धिमान व्यक्ति अपना रास्ता खुद बनाते हैं।
- संकट काल के लिए धन बचाएं। परिवार पर संकट आए तो धन कुर्बान कर दें। लेकिन अपनी आत्मा की हिफाजत हमें अपने परिवार और धन को भी दांव पर लगाकर करनी चाहिए।
- भाई-बंधुओं की परख संकट के समय और अपनी स्त्री की परख धन के नष्ट हो जाने पर ही होती है।
- कष्टों से भी बड़ा कष्ट दूसरों के घर पर रहना है।
वह ज्ञान, अज्ञान से भी ज्यादा खतरनाक
ईश्वर ने हमें दो कान दिए हैं और दो आंखें, लेकिन जीभ केवल एक दी है।
इसलिए हम बहुत अधिक सुनें और बहुत अधिक देखें, लेकिन बोलें कम, बहुत कम।
जब ज्ञान इतना घमंडी हो जाए कि रो भी
न सके, इतना गंभीर बन जाए कि हंस न सके और इतना आत्मकेंद्रित बन जाए कि अपने सिवा और
किसी की चिंता न करे, तो वह ज्ञान अज्ञान से भी ज्यादा खतरनाक होता है।
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