Wednesday, July 11, 2012

क्या सन्तान पैदा करने वाली प्रत्येक जननी माता होती है़ ?

बच्चे का निर्माण माता करती है। क्या सन्तान पैदा करने वाली प्रत्येक जननी माता होती है़ ? यह विचारणीय विषय है। सन्तान तो पशु-पक्षी भी पैदा करते हैं। परन्तु उनमें माता की भावना नहीं होती। जन्म देने मात्र से कोई भी नारी जननी हो सकती है। लेकिन माता वही है जो अपनी सन्तान को सुयोग्य बनाती है। उसका निर्माण करती है। माता, पिता का स्थान ले सकती है, परन्तु पिता माता का स्थान नहीं ले सकता।

बालक के नामकरण संस्कार पर जब माता बच्चे को लेकर यज्ञ स्थल पर आती है, तो वह बालक को उसके पिता के 
हाथों में सौपती है। पिता एक बार बालक को लेकर पुनः माता को ही सौंप देता है। इसका भाव यह है कि पिता कहता है कि इसका निर्माण तुम ही करो।

मां बच्चे को नौ मास तक अपने गर्भ में सहेजती है। जन्म देने में जो कष्ट सहन करती है, उसकी कल्पना भी पिता नहीं कर सकते। फिर बच्चे का मल-मूत्र साफ करती है। माता की बच्चे के प्रति ममता को देखो कि उसके जन्म के साथ ही माता के स्तनों में दूध उतर आता है। मां बच्चे के लिए सब कुछ त्याग देती है। बच्चा बड़ा होता है, तो मां उसका पहला गुरु बन कर उसके निर्माण में जुट जाती है। माता से अधिक प्यार संसार में बच्चे को और कौन दे सकता है? कोमलता, मधुरता और ममत्व भगवान ने माता को ही प्रदान किया है। सहनशीलता में माता भूमि के समान है। बच्चा खेलते-खेलते चोट खा जाता है, परन्तु माता की स्नेहमयी गोद में बैठते ही अपनी पीड़ा को भूल जाता है।

मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम ने रावण का वध करके विभीषण को लंका का राजा बना दिया। लक्ष्मण ने लंका की सुन्दरता को देखकर भगवान से लंका में ही रहने को कहा। श्रीराम ने कहा-अपि स्वर्णमयि लंका, न मे लक्ष्मण रोचते। जननी जनमभूमिश्च, स्वर्गादपि गरीयसि। भगवान श्रीराम ने माता को स्वर्ग से भी महान बताया। यक्ष के द्वारा प्रश्न पूछे जाने पर युधिष्ठिर ने उत्तर दिया- हे यक्ष ! भूमि से बड़ी माता है।

स्वामी विवेकानन्द ने माता को मनुष्य निर्माण का प्रथम विश्वविद्यालय कहा है। एक बार स्वामी विवेकानन्दजी अमेरिका गये हुए थे । एक मां अपने पुत्र के साथ आई और अपने बालक को स्वामीजी के चरणों में बैठाकर बोली स्वामीजी ! मै अपने पुत्र को विवेकानन्द बनाना चाहती हूं। कृपया उस विश्वविद्यालय का नाम बताइए, जिसमें विवेकानन्द बना है। स्वामीजी ने कहा माताजी, जिस विश्वविद्यालय में विवेकानन्द बना है, वह तो अब नहीं रहा। मां ने आश्चर्य से पूछा, क्या एक विवेकानन्द बनाकर ही कोई विश्वविद्यालय बन्द हो गया और वह भी भारत में ? स्वामीजी ने कहा-हां मां, वह विश्वविद्यालय मेरी जननी माता थी। वह अब संसार में नहीं है। 

हमारा अमर इतिहास साक्षी है कि माताओं ने अपने वीर पुत्रों का निर्माण कैसे किया। वैदिक काल में महारानी मदालसा वीरांगना और विदुषी हुई। उसका कहना था कि मेरे गर्भ में जन्मे पुत्र को दोबारा जन्म नहीं लेना पड़ेगा अर्थात्‌ मै उसको मोक्ष प्राप्ति के मार्ग पर लगा दूंगी। हुआ भी यही कि उसने अपने चार में से तीन पुत्रों को तो योगी बना दिया। चौथे को राज्य सौंपते समय उपदेश देकर चली गई। कुछ समय पश्चात्‌ वह भी उसी मार्ग पर चल पड़ा।

रानी सुरूचि द्वारा राजा उत्तानपाद की गोदी से अलग करने पर बालक ध्रुव रोता हुआ अपनी मां सुनीति के पास गया तो मां सुनीति ने कहा- रो मत मेरे ध्रुव ! यदि तुझे तेरे पिता ने अपनी गोद में नहीं बैठाया तो कोई बात नहीं। तू अपने सच्चे पिता की शरण में जा, वह परमात्मा ही सबका पिता है। उसकी गोदी में बैठकर तू चिरकाल तक अलौकिक आनन्द को प्राप्त कर। माता का उपदेश सुनकर ध्रुव योग साधना के लिए चल पड़ा। कालान्तर में ध्रुव ने मोक्ष को प्राप्त किया। 

जननी जनै तै भगत जनै, या दाता या शूर ।
ना तै जननी बांझ रहे, क्यों व्यर्थ गंवावै नूर ।।


महारानी शकुन्तला ने महर्षि कण्य के आश्रम में भरत को जन्म दिया था। वह भरत को शिक्षा देती थी- बेटा, इस बीहड़ जंगल में शेर, चीते आदि ही तेरे भाई है। तू इनसे ही मेल कर, इन्हीं के साथ खेल। भरत शेरों के दांत गिनता था। उनके साथ कुश्ती करता था। आगे चलकर यही भरत चक्रवर्ती सम्राट हुआ।

माता सुभद्रा ने अभिमन्यु को वीर, कुशल, योद्धा और चक्रव्यूह को बेधने योग्य बनाया, जिससे अभिमन्यु ने द्रोण, जयद्रथ, दुर्योधन, दुःशासन और कर्ण जैसे महारथी योद्धाओं को भी पराजित कर दिया।

माता कुन्ती ने जब शान्ति के सभी मार्गों को बन्द देखा और योगेश्वर श्रीकृष्ण से कहा, हे कृष्ण ! तुम मेरे बेटों के पास जाकर कहना कि क्षत्राणियां जिस दिन के लिए अपनी सन्तान को जन्म देती हैं, वह दिन आ गया है। अर्थात्‌ वे युद्ध के लिए कटिबद्ध हो जाएं।
वीर माता जीजाबाई को अपने शिवा को छत्रपति बनाने लिए अपने पति से भी विमुख होना पड़ा। वह अपने शिवा को राम, कृष्ण, हनुमान, भीष्म, शंकर और महाराणा सांगा जैसे वीर महापुरुषों की कहानियां सुनाया करती थी। उसको तलवार, घुड़सवारी, तीर आदि चलाना सिखाती थी। शिवाजी की रग-रग में साहस और वीरता कूट-कूट कर भर दी थी जीजाबाई ने और फिर शिवाजी को मुगल साम्राज्य के विरुद्ध लड़ने के लिए तैयार किर दिया। यही वह शिवाजी था जिसने औरंगजेब की नींद हराम कर दी थी और विशाल एवं सुदृढ़ मराठा साम्राज्य की नींव रखी।

नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल, सरदार भगतसिंह, उधमसिंह, अशफाक उल्ला खां आदि देशभक्त वीरों को उनकी वीर माताओं ने स्वतन्त्रता प्राप्ति के मार्ग में आने वाली बाधाओं को सहन करने योग्य बनाया।

गंगा माता ने कौरवों और पाण्डवों के पितामह अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रतधारी महारथी भीष्म को बनाया, जिन्होंने युद्ध क्षेत्र में अपने गुरु परशुराम को भी परास्त कर दिया था। जिन्होंने मौत को चुनोती दे दी थी। कई मास तक बाणों से बिंधे हुए बाणों की ही शय्‌या पर लेटे हुए अपनी इच्छा से ही उन्होंने इस नश्वर देह को त्यागा था। महारानी लक्ष्मीबाई, अहिल्या बाई आदि वीरांगनाओं को क्या कभी भुलाया जा सकता है?

निष्कर्ष यह है कि माता के अन्दर इतनी शक्ति विद्यमान है कि वह अपनी सन्तान को जैसा चाहे बना सकती है। राम, कृष्ण, हनुमान, भीष्म, शंकर, दयानन्द, गांधी, सुभाष, भगतसिंह जैसे महानपुरूष देशभक्त इन्हीं माताओं की गोदी में पले और महान बने।

आज मातृशक्ति सोई हुई है। वह अपने कर्त्तव्य को भूलकर साज-श़ृंगार के साथ सज-धजकर पार्टियों में जाने में ही अपनी शान समझती है। सन्तान निर्माण के लिए उसके पास समय ही नहीं है। आज आवश्यकता है, देश की माताओं को दिव्य संतान निर्माण का निश्चय करने की ! देश को महान भी ये ही बनाती हैं और नरक के गर्त में भी ये ही ले जाती हैं। इसलिए नारी को मातृत्व जुटाने के लिए सजग होने की आवश्यकता है । आज भी वही हनुमान, भीष्म, राम, कृष्ण, कपिल, कणाद आदि सन्तानें बनाने में समर्थ हैं।







Priyatam Kumar Mishra

मां ! तुम धन्य-धन्य हो

भारतीय अस्मिता एवं आस्था का मूल वैदिक वाड्‌मय के पारदर्शी विवेचन से ही अनुप्राणित है। भारतीय मनीषा में वेद विहित ही स्वीकार्य और ग्राह्‌य है। प्रायः समानान्तर सिद्धान्त जो अपने को अवैदिक कहते हैं वे भी वेदमूलक ही हैं, क्योंकि उनके केन्द्र में वेद ही रहता है । वेदों का विवेचन समग्र मानवीयता के उद्बोधन, प्रबोधन और पल्लवन के लिए ही है। सुदूर अतीत की अपनी देवभाषा में उपनिबद्ध ये ग्रन्थ सहजता से ग्राह्‌य नहीं भी हों, परन्तु जनजीवन, बहुविकसित परम्पराएं और मान्यताएं भी वेदानुमोदित ही हैं। वे ही सांस्कृतिक एवं सदाचारनिष्ठ हैं, जिनमें वेदों का भावान्तरण है। ज्ञान का प्रसार भी जाति, वर्ग, लिंग, वय और सीमा को पार करके ही सुशोभित होता है। जो सार्वजनिक, सर्वहिताय और लोकोपयोगी होता है वही राष्ट्रीय होता है। राष्ट्र जीवन देश काल वातावरण के अनुसार अपनी अक्षरा संस्कृति के साथ चतुर्दिंक प्रवाहित होता रहता है। विचार, संरक्षण, संवर्द्धन, पोषण की वृत्तियों में परस्पर समन्वय ही समृद्ध और संगठित राष्ट्र का निर्माण कर सकता है। जीवन को गतिशील बनाने के लिए पशु-सम्पत्ति, शस्य संपत्ति और वन्य सम्पत्ति की भी अनिवार्य आवश्यकता होती है। यज्ञ प्रधान विविध विवेचनों में भी यजमान को स्वस्ति मंगल के रूप में यजुर्वेद का अभिमत समग्र राष्ट्र का मंगल ही करता है। वैदिक राष्ट्रगान का मंत्र द्रष्टव्य है-

आ ब्रह्यन्‌ ब्राह्मणो बह्मवर्चसी जायताम्‌
आ राष्ट्रे राजन्यः शूर इषव्यः अति
व्याधी महारथो जायताम्‌
दोग्ध्री धेनुर्वोढानड्‌वानाशुः सप्तिः
पुरंध्रिर्योषा जिष्णू रथेष्ठाः सभेयो
युवाअस्य यजमानस्य वीरो जायतां
निकामे निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु
फलवत्यो न ओषधयः पच्यन्ताम्‌
योगक्षेमो नः कल्पताम्‌ 


वैदिक संस्कृति की व्यवस्था में विचारों की उच्चता का सर्वश्रेष्ठ स्थान है। यदि विचारों में श्रेष्ठता होगी तो आचरण भी श्रेष्ठ होगा और जनमानस का वैचारिक स्तर उन्नत होगा तथा सर्वाभ्युदय संभव हो सकेगा। वेदों का तेज, ज्ञान का प्रकाश, ब्रह्मचर्य का ओज, संयम की ऊर्जा जिसमें भरपूर रहती है, वही ब्राह्मण राष्ट्र के लिए अपने चिन्तन और विचारों की आहुति दे सकेगा तथा उसके उदात्त चिन्तन से ही राष्ट्रजीवन को ऊर्जा प्राप्त होगी। यज्ञ संस्था की दृढ़ता और व्यापकता में वृद्धि होगी। ब्रह्मवर्चस्‌ की अराधना के बिना न तो ब्राह्मणत्व बचता है और न ही समष्टि चिन्तन को प्रेरणा और गति मिल पाती है। राष्ट्र की रक्षा में राजवंश का उचित विनियोग तभी होगा जब वह शूरवीर हो, परन्तु शूरता तभी सफल होगी जब वह लक्ष्यवेध में प्रवीण हो, लक्ष्यवेध की सफलता भी तभी है जब वह शूर शत्रुनाश कर सके। इस देश का वीरबालक सैनिक ही नहीं सेनानायक अर्थात्‌ महारथी बने। महारथी में शत्रुविनाश, शूरवीरता, लक्ष्यवेधता होने पर ही देश का संकट दूर हो सकेगा।

देश की रक्षा की व्यवस्था के बिना यज्ञ प्रवर्तन संभव नहीं हो सकता। निर्विघ्न यज्ञ संपादन और ऋषि परम्परा के निर्वाह के लिए पुष्ट और प्रसन्न गायों का होना आवश्यक है। उनके दुग्ध के बिना हव्य-कव्य की क्रिया और स्वाहा स्वधा की प्रवृत्ति देश में नहीं हो सकेगी। दोग्ध्री धेनुः का भाव है कि धेनु तो अपने सेवक को प्रसन्न ही करती है, दूध भी दे और प्रसन्न भी रहे यह गौमाता का ही कार्य है। पत्र्चगव्य ही देव ऋषि और पितृजनों को तृप्त करते हैं। वैचारिक तर्पण के लिए भी गव्य में ही अपार क्षमता होती है। कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य के लिए वोढा अर्थात्‌ प्रापक या प्राप्त कराने वाला, धारण करने कराने वाला भी होना चाहिए और पोषण पालन के बिना राष्ट्र सबल या समर्थ नहीं हो सकता है। गायों के सपूत अगर व्यापार व्यवसाय के माघ्यम हो जाएं तभी देश समृद्ध होगा। वृषभ (बैल) को धर्म का प्रतीक भी माना जाता है। जब इस देश का व्यापारी वर्ग धर्म को वृषभ (बैल) बनाकर वस्तुओं के विनिमय का आधार बना लेगा तो हवाला, घोटाला, तहलका और बोफोर्स की खबरें नहीं होंगी। गमनागमन में यदि प्रमाद नहीं हुआ, इच्छानुसार आवागमन होता रहेगा तो राष्ट्रीय जीवन गतिशील रहेगा। आशु सप्तिः कहते हुए ऋषि ने शीघ्रगामी अश्व का संकेत दिया है। यह रक्षकों और पोषकों दोनों के लिए आवश्यक है। रक्षकी की शूरता और पोषकी की पालनीयता अश्व या वाहन या गमनागमन पर ही अवलंबित रहती है। ये सभी वृत्तियां तब व्यर्थ हो जाती हैं, जब देश की नारी कुल का या परिवार का चतुराई से पोषण न करे। परिवार राष्ट्र की सबसे छोटी इकाई है और उसका पालन, पोषण रक्षण, संवर्द्धन सब नारी पर आश्रित है। ऋषि ने पुरंध्रिर्योषा कहा है। यज्ञ परम्परा के निर्वाहक यजमान होते हैं। वे तभी सफल होंगे जब उनके घर आंगन की शोभा वीर बालक से बढ़ती रहे। यह बालक सभा में बैठने वाला हो और सभा का व्यवहार, आचार और शील जानने समझने में कुशल हो। जो युवक रथी बने, सैनिक बने उसमें देश के लिए जीतने या विजय प्राप्त करने की उत्कट अभिलाषा हो, तभी वह विजयी हो सकेगा। मानवीय जीवन ओर उसकी अपेक्षाओं के साथ राष्ट्रीय अभ्युदय के लिए यज्ञों की सफलता से पैदा होने वाले बादलों से यथासमय अपेक्षित बरसात की प्रार्थना की गयी है। शस्य संपत्ति के बिना राष्ट्र का पोषण नहीं हो पाता है।

जीवन में विघ्न करने वाले रोगों और टूटते जीवन के क्रम को ध्यान में रखकर ही वैदिक ऋषि ने औषधियों की फलवत्ता के लिए व्यापक देवता से प्रार्थना की है। यह सब होने पर भी देव से यही प्रार्थना की गयी है कि जो हमारे पास नहीं है वह भी मिलता रहे अर्थात्‌ योग बने और उसकी शाश्वतता के लिए क्षेम के लिए भी अपेक्षा की गयी है।

जिस देश में पारदर्शी ज्ञान की ऊर्जा समृद्ध हो, सीमा पर प्रहरी सचेष्ट और लक्ष्यनिष्ठ हों, समाज का पालन-पोषण करने वाले धर्मशील हों, स्त्रियां परिवार की प्रतिष्ठा का प्रतीक हों, गौएं देवर्षि पितृ कार्यों में सक्षम हों, युवाजन निर्भयता पूर्वक अपनी शक्ति का देशहित में विनियोग करते रहें, अवर्षा का जहां प्रभाव न हो, कृषि फलवती हो, औषधियां परिणामकारिणी हों, वही राष्ट्र समृद्ध और समर्थ हो सकेगा। गृह, रक्षा, व्यापार, शिक्षा, चिकित्सा विभाग जहां युक्त होते हैं, वहां प्रत्येक घर-परिवार प्रसन्न, उन्नत और सबल राष्ट्र का अंग बन सकता है। वैदिक राष्ट्र चिन्तन का यह एक उदाहरण मात्र है। यह प्रार्थना आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी राष्ट्र के लिए उस समय थी।







Priyatam Kumar Mishra

ज्ञान

वैदिक संस्कृति वह अन्तःसलिला सरस्वती है, जो चिरकाल से लोगों को पावन करती चली आई है और अनन्त काल तक पावन करती चली जायेगी। वेदों के उद्गम स्थान से निकली हुई आर्य संस्कृति की पावन धारा अक्षुण्ण है।

वेद समस्त धर्मों का मूल है। मनु जी ने तो धर्म को जानने की इच्छा करने वाले साधकों के लिए वेदों को परमप्रमाण बताया हैं। जो धारक तत्व हैं, वे ही धर्म हैं। धर्म की आज की सारी परिभाषाएं एकांगी हैं। धर्म के अन्तर्गत, आध्यात्मिकता, भौतिकता, राष्ट्रीयता, सामाजिकता सभी का समावेश है। इन सभी पहलुओं का मूल वेद है। इसलिए वेदों को केवल भौतिक शास्त्र या केवल अध्यात्म शास्त्र मानना एक भंयकर भूल है।

वेदों में राष्ट्रीय भावना-वेद राष्ट्रीय भावना के भण्डार हैं। मनु जी ने अपनी स्मृति में स्पष्ट लिखा है- एक वेद ज्ञाता सेनापति, राजा, दण्ड-शासक के सभी काम कर सकता है, यहां तक कि वह सब लोकों का शासक भी बन सकता है।

वैदिक ऋषि जटाजूट बढाकर जंगलों में जाकर, कन्दमूल पर अपना जीवन निर्वाह करने वाले असभ्य या अर्धसभ्य नहीं थे। वे बड़े प्रज्ञावान्‌ और दूरदर्शी थे। उनके सामने अपने राष्ट्र के भविष्य का पूरा नक्शा था। राष्ट्र की उन्नति और विकास का उद्‌देश्य उनके सामने था। आज से हजारों साल पहले उन्होंने राष्ट्र धारक तत्वों का अनुशीलन करके नेताओं की योग्यता निश्चित कर दी थी। राष्ट्र को धारण करने वाले तत्वों का वर्णन अथर्ववेद का ऋषि इस प्रकार करता है-

सत्यं बृहदृतमुग्रं दीक्षा तपो ब्रह्म यज्ञः पृथिवीं धारयन्ति। सा नो भूतस्य भव्यस्य पत्नी उरूं लोकं पृथिवी नः कृणोतु ।। अथर्ववेद 12/1/1

अर्थात्‌ सत्य, विशाल हृदयता, वीरता, चतुरता, तपस्या, ज्ञान और संगठन मातृभूमि को धारण् करते हैं। वह मातृभूमि हम प्रजाओं के भूत और भविष्य का पालन करने वाली हो तथा हमारे लिए कार्य क्षेत्र को विस्तृत करे।

मातृभृमि के लिये ही जीना और मरना- मातृभूमि का सच्चा सपूत मातृभूमि के लिये ही जीता और मरता है। उसकी भूत और भविष्य की सभी योजनाएं मातृभूमि की उन्नति के लिए ही होती हैं। वह अपने ज्ञान का प्रयोग मातृभूमि के विकास के लिए ही करता है। आज की स्थिति विपरीत है। आज मां के सपूत इंग्लैंड, अमरीका आदि देशों में जाकर ज्ञान प्राप्त करते हैं, पर ज्ञान प्राप्त करके वे वहीं के नागरिक होकर वहीं रह जाते हैं। इस प्रकार उनके ज्ञान का लाभ उन देशों को होता है और भारत माता तरसती रह जाती है। यह शासकों का काम है कि वे ऐसी योग्य प्रतिभाओं को बुलाकर उन्हें उनकी योग्यता के अनुसार कार्यक्षेत्र प्रदान करके मातृभूमि की सेवा करने का अवसर प्रदान करें।

अनेकता में एकता- वैदिक काल में भी भारत में अनेक भाषा-भाषी और नाना धर्म वाले लोग थे, पर आज की तरह भाषावार प्रान्त के रूप में भारत टुकड़ों में बंटा हुआ नहीं था और ना ही भाषावाद के झगड़े ही थे। सारा भारत अखंड था और सभी जन नाना भाषा-भाषी होने पर भी उतने ही प्रेम से रहते थे, जिस प्रकार एक परिवार के लोग रहते हैं-

जनं बिभ्रती बहुधा विवाचसं नानाधर्माणं पृथिवी यथौकसम्‌। सहस्त्रं धारा द्रविणस्य मे दुहां ध्रुवेव धेनुरनपस्फुरन्ती।। अथर्ववेद 12/1/45

अर्थात्‌ यह हमारी मातृभूमि नाना भाषा-भाषी तथा नाना कर्तव्य करने वाले मनुष्यों को एक घर के समान धारण करती है, वह लात न मारने वाली गाय के समान प्रसन्न होकर मेरे लिये धन की हजारों धाराओं को दुहे।

एक राष्ट्र्‌ में विविधता स्वाभाविक है, पर उसमें विघटन न होकर संगठन होना चाहिए। संगठन ही राष्ट्र की शक्ति है। ऋग्वेद के संगठन सूक्त में संदेश है-

संगच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम्‌।
देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते।। 
ऋग्वेद 12/191.4

समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः ।
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति ।। 
ऋग्वेद 12/191.4

अर्थात्‌ हे राष्ट्र की प्रजाओ! तुम सब एक साथ मिलकर प्रेम से चलो, प्रेम से बोलो, तुम्हारे मन उत्तम हों, जिस प्रकार पहले विद्वान ज्ञानपूर्वक राष्ट्र की उपासना करते चले आए, उसी प्रकार तुम भी करो। तुम्हारे संकल्प, तुम्हारे हृदय और मन एक समान हों।

वेदों में सैन्य वर्णन-राष्ट्र की सुरक्षा का प्रश्न उस काल में भी बहुत महत्वपूर्ण समझा जाता था। राष्ट्र की सुरक्षा के लिए ही सेना की व्यवस्था की जाती थी। वैदिककालीन सैन्य व्यवस्था देखकर बड़ा आश्चर्य होता है। सात-सात सैनिकों की सात पंक्तियां होती थी, उनकी भी रक्षा के लिए पार्श्व रक्षक नियुक्त किये जाते थे, इस प्रकार 53 सैनिकों की एक टुकड़ी होती थी। यह सेना बड़ी ही अनुशासित और युद्ध कुशल होती थी। इसी व्यवस्था के समान जर्मनी ने अपनी सेना को अनुशासित किया और अपनी सेना को विश्वविजयी बनाया। दूसरी तरफ वेदों के जन्मदाता भारत में कालान्त्रर में सेना अव्यवस्थित और अनुशासनहीन हो गई । उसका परिणाम यह हुआ कि देश कई बार विदेशियों के द्वारा पददलित हुआ। वेदपाठी केवल मन्त्रपाठ ही करने लगे, अर्थज्ञान की तरफ उनकी कभी प्रवृत्ति नहीं हुई। पेशवाओं की सेना अव्यवस्थित रही, इसलिए वे पराजित हुए। वेदों में सैन्य व्यवस्था का वर्णन बिल्कुल आधुनिक पद्धति की तरह से ही है।

इसके अलावा वेदों में शल्य क्रिया, कायाकल्प, चिकित्सा शास्त्र, स्वराज्य शास्त्र, प्राकृतिक चिकित्सा, मैस्मरेज्म, हिप्नोटिज्म, मनोविज्ञान, सृष्टिज्ञान, ब्रह्‌मज्ञान आदि अनेकों विषयों का विस्तृत वर्णन है।

वेदों की हर प्रार्थना में तेजस्विता भरी पड़ी है। वेदमन्त्रों का ज्ञान मनुष्यों को उत्साहित और बलशाली बनाता है। ऋषियों ने वेदों के माध्यम से जनता को वीरता और शक्ति का संदेश दिया था।

राष्ट्र भाषा संस्कृत- भारत राष्ट्र की उन्नति के लिये वेदों का ज्ञान अत्यन्त आवश्यक है। आज आवश्यकता है कि स्कूलों में प्रारंभ से ही वैदिक शिक्षा का प्रबन्ध किया जाये। इससे विद्यार्थियों के नैतिक चरित्र में सुधार होगा और आगे जाकर वे भारत के सच्चे सेवक बन सकेंगे। संस्कृत भाषा के प्रचार की भी आवश्यकता है। संस्कृत भाषा में ही भारतीय संस्कृति प्रतिबिम्बित होती है। यदि संस्कृत को राष्ट्रभाषा का पद दे दिया जाये, तो भाषावाद का झगड़ा बिल्कुल समाप्त हो जाये। इस भाषा में वे सभी योग्यताएं है, जो एक राष्ट्रभाषा में होनी चाहिएं। जब तक हम अपनी राष्ट्रभाषा का आदर करना नहीं सीखेंगे और विदेशी भाषा को ही हृदय से चिपकाये रहेंगे, तब तक हमारी या हमारे राष्ट्र की उन्नति संभव नहीं। इसलिए हमें चाहिये कि हम अपने देश, अपनी भाषा व अपनी संस्कृति से प्रेम करें।भारत के हर विद्यालय में संस्कृत भाषा को अनिवार्य किया जाये तथा प्राथमिक स्तर से ही संस्कृत भाषा के अध्यापन का प्रबंध हो ।







Priyatam Kumar Mishra

चार वेदः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद

ब्रह्म की विद्या "ब्रह्म" अर्थात्‌ वेद ही है। चार वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद इनमें चार विषय क्रमशः ज्ञान, कर्म, उपासना एवं विज्ञान हैं। यहां एक-एक वेद से एक-एक वाक्य प्रस्तुत किया जा रहा है-

1. मनुर्भव जनया दैव्यं जनम्‌ (ऋग्वेद 10.53.6)-ऋग्वेद तृण से लेकर परमब्रह्म तक का ज्ञान कराता है। उसके ज्ञान का मूलभूत सारतत्व यही है कि हे मनुष्य तू स्वयं सच्चा मनुष्य बन तथा दिव्य गुणयुक्त सन्तानों को जन्म दे अर्थात्‌ सुयोम्य मानवों के निर्माण में सतत प्रयत्नशील रह। मनुष्य, मनुष्य तभी बन सकता है, जब उसमें पशुताओं का प्रवेश न हो। आकार, रूप, रंग से कोई प्राणी मनुष्य दिखाई देता है, किन्तु उसके अन्दर भेड़िया, श्वान, उल्लू गृद्ध आदि आकर अपना डेरा जमा लेते हैं। ऋग्वेद हमें वह सब ज्ञान प्रदान करता है, जिससे व्यक्ति एक प्रबुद्ध मानव रहता है, वह न पशु और न दानव बनने पाता है।

2. आयुर्यज्ञेन कल्पताम्‌ (यजुर्वेद 18.29)- तांबे का कोई भी तार प्रकाश नहीं कर सकता है, किन्तु जब उसमें विद्युत का प्रवाह होने लगता है तो उससे प्रकाश, गति, उर्जा ओर ध्वनि सभी प्राप्त होने लगते हैं। देखने में तार पहले जैसा ही लगता है। इसी प्रकार देखने में सभी मनुष्य एक से लगते हैं, किन्तु जिनमें यज्ञरूपी विद्युत का प्रवाह हो जाता है, वही दिव्य हो जाते हैं। पंच महायज्ञ की बात तो पृथक ही है। सामान्यतया यज्ञ से तीन कर्मों का बोध प्राप्त होता है-देवपूजा, संगतिकरण और दान। सभी सच्चे जड़-चेतन देवताओं के प्रति पूजा-भाव रखते हुए समाज में समन्वय-संगति बनाये रखने के लिए सर्वसुलभ संपदाओं को सुविधानुसार दान करना और कराना, यही सब कार्य यज्ञ कहलाते हैं। यही कर्म मनुष्य को महामानव बना देते हैं। आहार, निद्रा, भय व मैथुन तो हर पशु तथा मानव की आवश्यकता है। पशु केवल इन्हीं के लिए जीता है। किन्तु मनुष्य इनसे ऊपर उठता है। इनको भी धर्म के कर्म अर्थात्‌ यज्ञ का रूप प्रदान करता हुआ जीता भी है और बलिदान भी हो जाता है। अगर हमने किसी को प्रेम नहीं दिया, किसी की सेवा नहीं की, किसी की पीठ नहीं थपथपाई, किसी को सहारा नहीं दिया, किसी को सान्त्वना नहीं दी, तो हमारा जीवन व्यर्थ है, निरर्थक है, एक व्यथा है। अयोग्य हैं हम। केवल अपने लिए जी रहे हैं, यह तो पशु का जीवन है। यही पशु प्रवृत्ति है कि केवल अपना ही ध्यान रखे । वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।

3. सदावृधः सखा (सामवेद 169-682) - इस यज्ञ भावना, कामना एवं कर्मणा को हम सामवेद के इस उपासना परक मन्त्र से प्राप्त कर सकते हैं। हम सदैव उन व्यक्तियों को अपना मित्र बनायें, जो अपने क्षेत्र में बढे हुए हैं, वृद्ध हैं। उनकी सदसंगति से, उनके वचन व उनके अनुकरण से पढे-बेपढे सभी को सद्‌ज्ञान-सद्‌कर्म की प्रेरणा प्राप्त होती रहेगी। उनके समीप बने रहने से मानव में यज्ञ की विद्युत का प्रवाह संचार करता रहेगा, जो इस लोक में तो उपयोगी होगा ही, परलोक में भी "सदावृधः" जो आदि से ही सर्व वृद्धिपूर्ण परमब्रह्‌मा है, उसका भी सखा बना देगा, समान ख्याति का अधिकारी बना देगा। बड़ों की समीपता व उनका सम्मान सदैव आयु, विद्या, यश एवं बल का स्त्रोत होता है। इससे कोई वंचित न हो, अपितु सब सिंचित हों। यही वेद का मधुर सामगान है।

4. माता भूमि पुत्रोहम्‌ पृथिव्याः(अथर्ववेद 12.1.12)-ज्ञान, कर्म, उपासना इन अवयवों के समन्वित रूप से निर्मित रसायन ही अथर्ववेद का विज्ञान है। पश्चिम प्रभावित विज्ञान अपने आविष्कारों से अति विचित्र यन्त्र-उपकरणों का निर्माण कर सकता है। कम्प्यूटर, दूरदर्शन,दूरभाष, इण्टरनेट और न जाने क्या क्या। इन सबसे भौतिक सुख समृद्धि का विस्तार तो होता दिखाई देता है, किन्तु आन्तरिक शान्ति तिरोहित हो जाती है। आविष्कार तो अत्यन्त विस्यमकारक अदभुत लगते हैं, किन्तु इन सबका प्रारम्भ प्रीतिकर, किन्तु परिणाम प्राणहर सिद्ध होता है। आधुनिक भोगवादी विज्ञान के चमत्कार चीत्कार में नित्य परिणत होते देखे जाते हैं। इनमें सर्वाधिक स्थूल पृथ्वी है, जो सम्पूर्ण प्रकृति का प्रत्यक्ष प्रतिनिधित्व करती है। वेद के अनुसार यह हमारी सृजन-पालन व आधार देने वाली माता है, साथ ही हम इसके पुत्र हैं। इसके साथ हमारा व्यवहार माता-पुत्र की भांति होना चाहिए। माता यदि जन्म देकर सन्तान का पालन पोषण करती है, तो सन्तान भी माता का सम्मान और उसकी सेवा में अपने जीवन की बाजी लगाने को प्रस्तुत रहती है। आज की भांति सागर, धरातल, पर्वत, आकाश में पाये जाने वाले पदार्थ यथा रत्न, राशि, जल, वृक्ष-वनस्पति, पत्थर, वायु सभी का भरपूर दोहन करना ही मानव का उद्‌देश्य नहीं होना चाहिए। दोहन भी ऐसा कि इन प्राकृतिक पदार्थों का समूल विनाश होता चला जाये तथा पर्यावरण भयंकर रूप से प्रदूषित हो जाए प्रतिदिन सोने का एक अण्डा देने वाली मुर्गी से सन्तुष्ट न होकर एक बार में ही मुर्गी के पेट को फाड़कर सोने के सारे अण्डे एक साथ निकालने वालों को सोना तो मिलता ही नहीं, मुर्गी से भी हाथ धोना पड़ता है।

भूमि की भांति मानव की अन्य मातायें भी हैं। उनमें से एक माता गाय भी है। उसके पोषणकारी स्वर्णिम दुग्ध से जब जी न भरा तो मानव ने उसके मांस को ही खाना प्रारम्भ कर दिया। कृत्रिम विषैले दूध से मानव सन्तान इधर रोग ग्रस्त होती है, उधर हजारों वधशालाओं में गौओं की हत्या करके गोमांस को भारत से निर्यात किया जाता है। 

यह तो समझ में आता है कि गाय को अंगूर, अन्न, मेवा खिलाकर अधिक गुणवत्ता पूर्ण दुग्ध प्राप्त किया जाए, किन्तु यह समझ में नहीं आता है कि शाकाहारी पशु गाय के अधिक मांस को प्राप्त करने के लिए उसे धोखे से चारे में मांस मिला कर खिला दिया जाये। इस अस्वाभाविक क्रियाकलाप से जब "मैडकाव' बीमारी से मनुष्य प्रभावित हुए, तो बड़ी संख्या में उन गायों को मार कर अपनी जान बचायी। इतना भोगते हुए भी वनस्पतियों की स्वाभाविक प्रोटीन से अतृप्त मानव इनके जनन गुण सूत्र (जीन्स) में जन्तुओं की प्रोटीन प्रविष्ट करके न जाने और कौन सी असाध्य व्याधि बुलाना चाहता है। यह है कभी न पूरी होने वाली मनुष्य की हत्यारी हवश !

अथर्ववेद इस हवश पर नियन्त्रण करके "वरदा वेदमाता' के ऐसे विज्ञान की प्रेरणा देता है, जिससे मानव को जीते जी आयु, प्राणश्क्ति, प्रजा, पशु, कीर्ति एवं ब्रह्मवर्चस्व तो मिलें ही, मरने के बाद ब्रह्मलोक का दिव्य आनन्द भी मिले। ऋग्वेद के ज्ञान के पदों से धर्म का बोध होता है। यजुर्वेद के कर्म सृजित अर्थ से मिलकर पद से पदार्थ बन जाते हैं। सामवेद की सात्विक कामनाओं से यह पदार्थ जगहितार्थ समर्पित हो जाते हैं। यही समर्पण अथर्ववेद के विज्ञान द्वारा मानव को मोक्ष की ओर अग्रसर कर देता है। इस प्रकार मानव "धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष' रूपी पुरुषार्थ चतुष्टय के अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। ज्ञान, कर्म, उपासना एवं विज्ञान-चार वेदों के ये प्रधान चार विषय हैं, किन्तु सामान्य रूप से चारों वेदों के प्रत्येक मन्त्र में इन विषयों का अनुपम सामंजस्य रहता है। बिना किसी भेदभाव के मनुष्य मात्र स्वसामर्थ्यानुसार "वेद का पढ़ना-पढ़ाना, सुनना-सुनाना' परमधर्म का अनुगमन कर अपने जीवन को देदीप्यमान कर सकता है तथा वेद की "मनुर्भव' भावना का जीवन्त स्वरूप बन सकता है।






Priyatam Kumar Mishra

मानव जीवन की सार्थकता

ज्ञान तथा अज्ञान, प्रकाश तथा अंधकार और इनसे बंधा हुआ सुख-दुःख का प्रवाह अनादि काल से चला आ रहा है। जो सिद्धि ज्ञानी बुद्धि से, ज्ञान से और विद्या-बल से प्राप्त करते हैं उसी को अज्ञानी लठ से और ज्ञानहीन थोथी बातों से सिद्ध करना चाहता है। राजा ने मन्त्री को दो रेखायें एक जैसी डालकर कहा कि बिना काटे इनमें से एक छोटी हो जाये। उसने बुद्धि के प्रभाव से एक को बढ़ाकर अपने आप दूसरी को छोटा कर दिया। वैद्य कहता है कि इस मनुष्य को ज्वर है । जबकि अवैद्य बिना आँख से देखे ज्वर को मान ही नहीं रहा। ज्ञानी आत्मा के अनेक जन्म बतलाता है। पर अज्ञानी को ऐसा मानने में इसलिए भ्रम है कि यदि ऐसा होता तो पूर्व जन्म की बातें क्यों न स्मरण रहतीं। उसे इस वास्तविक तथ्य का ज्ञान ही नहीं कि मनुष्य को इस जन्म की ही सभी बातें स्मरण नहीं, तो पूर्व जन्म का प्रश्न कहॉं ? वह तो स्वार्थ के चक्कर में पड़ा रटता जा रहा है-

यावज्जीवेत्‌ सुखं जीवेत्‌, ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्‌। भस्मिभूतस्य देहस्य, पुनरागमनं कुतः।।

आस्तिक कहता है-
"पर्यगाच्छुक्रमकायम्‌', "न तस्य प्रतिमा अस्ति'
"ईश्वर सर्वभूतानां हृदयेषु तिष्ठति अर्जुन'।


परमात्मा जगत्‌पिता सर्वव्यापक निराकार है। वह सबके अन्तरात्मा में विराजमान है तथा सबके कर्मों का साक्षी होकर फल दे रहा है। अगर देखना है तो ज्ञान की आँख से देखो।

हर जगह मौजूद है पर वह नजर आता नहीं।
योग साधन के बिना उसको कोई पाता नहीं।।


किन्तु ऐसा पढ़ने और सुनने पर भी क्या अज्ञानी रुकते हैं? नहीं। वस्तुतः यही वह अज्ञान और अन्धविश्वास की एक चिंगारी थी, जिसने भारतीय संस्कृति के सौन्दर्य, महत्व और प्राचीन गौरव के मन्दिर को जलाकर नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। इसी मिथ्यावाद ने अरब देशस्थ यवनों को बरबस भारत पर आक्रमण का निमन्त्रण दिया। मुहम्मद बिन कासिम, महमूद गजनवी और औरंगजेब जैसे अत्याचारियों के द्वारा भारत की मान-मर्यादा और पवित्रता को भरे बाजार बिकवाने और लुटवाने वाला यही मिथ्यावाद है। दक्षिणी तथा पूर्वी भारत के पर्याप्त भाग को ईसा के चेले बनाने और अन्ततः मातृभूमि को घायल कर पाकिस्तान को जन्म देने वाली यही अन्ध विचारधारा थी, जिसकी आज पर्यन्त भी वृद्धि हो रही है। प्रतिदिन नये मन्दिर और नई मूर्तियों की स्थापना इसका उदाहरण है। अतः इस सर्वनाश से बचने के लिये हमें सत्य ज्ञान की शरण लेनी होगी जिससे कि व्यक्ति तथा समाज दोनों वास्तविक शान्ति को प्राप्त कर सकें। ऋषि दयानन्द जी महाराज ने अपने ग्रन्थों में वेदादि सत्य शास्त्रों के आधार पर यह बतलाया कि दर्शन व ज्ञान, जिसे देखना कहते हैं, वह केवल इन बाहरी चमड़े की आँखों से नहीं अपितु आठ प्रकार से होता है- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, ऐतिह्य, अर्थापत्ति, सम्भव और अभाव।

प्रत्यक्ष- इन्द्रिय, मन और आत्मा के संयोग से जो सत्य ज्ञान होता है। अर्थात्‌ जैसा देखना वैसा निश्चय और जैसा निश्चय वैसा देखना। रात को अन्धकार में दूरस्थित स्तम्भ को मनुष्य समझा, प्रातः वहॉं आकर देखा तो प्रतीत हुआ कि यह स्तम्भ है। यह प्रत्यक्ष देखना है।

अनुमान- जो प्रत्यक्ष के पश्चात्‌ ज्ञान हो उसे अनुमान कहते हैं। जैसे प्रत्यक्ष धूयें के पीछे अग्नि का अनुमान। तीन वर्ष के दो छोटे बालकों में से एक को दरिद्र के घर में भूख से व्याकुल और दूसरे को राजगृह में स्वर्णमय झूलों में झूलता देख अदृश्य पूर्व-जन्म के बुरे और अच्छे कर्मों का ज्ञान होता है। प्रत्यक्ष सृष्टि से अदृश्य स्रष्टा का ज्ञान होता है। यह दूसरे प्रकार का दर्शन है। 

उमपान- प्रत्यक्ष का किसी अन्य सादृश्य के साथ समता वर्णन, जिसे उपमान व उदाहरण भी कह सकते हैं। जैसे, यज्ञदत्त कैसा है? जैसा देवदत्त। नगर में जाकर वैसी उपमा मिलाकर यज्ञदत्त को ले आया। मुख कैसा है ? चन्द्र के समान ! इत्यादि यह तीसरे प्रकार का दर्शन है।

शब्द- जो आप्त अर्थात्‌ पूर्ण विद्वान धर्मात्मा परोपकारप्रिय सत्यवादी और पुरुषार्थी जितेन्द्रिय पुरुष जैसे अपनी आत्मा में जानता है, जिससे सुख पाया हो उसी को अन्यों के कल्याणार्थ कहता है और वेदादि सत्यशास्त्रों की शिक्षायें, यह सब शब्द प्रमाण है। इसको पढ़-पढ़ा सुन-सुना मनन से साक्षात्‌ करना, यह चौथे प्रकार का दर्शन है। इसमें स्वतः प्रमाण वेद और अन्य सभी परतः प्रमाण।

ऐतिह्य- सत्पुरुषों का आचार जो उनके जीवन चरित्र से मिलता है। इसमें विशेषतया शतपथादि ब्राह्मण ग्रन्थ ही प्रमाण हैं । अन्य इतिहास को प्रक्षिप्त भाग से शुद्ध तथा जॉंच कर ग्रहण करना, यह पांचवॉं दर्शन है।

अर्थापत्ति- एक बात समझ लेने के पश्चात्‌ दूसरी का ज्ञान स्वयमेव हो जाना। जैसे एक ने कहा कि मेघों से वर्षा होती है तो दूसरे ने साथ ही यह भी समझ लिया कि बिना मेघों के वर्षा नहीं होती। राम ने लक्ष्मण को सीता के शिर तथा कंठ के आभूषण दिखाकर कहा कि क्या इन्हें पहचानते हो ? लक्ष्मण ने उत्तर दिया कि मैंने माता सीता का चेहरा ही कभी नहीं देखा। आगे राम स्वयं ही समझ गए कि भूषणों की कथा ही क्या ? यह छठा दर्शन है। 

सम्भव- जो सृष्टि नियमानुकूल है वह सम्भव और विरुद्ध असम्भव। जैसे वन्ध्या का पुत्र होना, आकाश के फूल होना आदि । यह सृष्टि-नियम के विरुद्ध होने से असत्य, मिथ्या और असम्भव है। यह सप्तम दर्शन है।

अभाव- मॉं ने कहा कि छोटी मण्डी से सब्जी ले आओ। वहॉं अभाव (न पाकर) पुत्र अन्य स्थान से ले आया जहॉं पर थी। यह है आठवां दर्शन।

जो मनुष्य इन आठ प्रकारों से परम परीक्षा करके ज्ञान चक्षुओं से देखने का यत्न करते हैं उन्हें अपार सुख प्राप्त होता है।





Priyatam Kumar Mishra

Saturday, November 26, 2011

कुतुब मीनार: एक भटकता इतिहास



पृथ्वी राज चौहान महाभारत काल की बंसा वली में आखरी हिंदू राजा था। मोहम्‍मद गोरी ने छल से उसे सन् 1192 ई में उसे हराया। उसे से पहले वहीं मोहम्‍मद गोरी 16 बार हारा। उसे अंधा कर के अपनी राजधानी ले गया। जहां उसके भाट चंद्रबरदाई ने एक तरकीब से अंधे पृथ्‍वी राज के हाथों मोहम्‍मद गोरी को उसे शब्‍द भेदी बाण से मरवा दिया। कहते है दो का जन्‍म और मरण दिन एक ही था। क्‍योंकि उसने खुद पृथ्‍वी राज को मार कर खुद को भी मार डाला।

क्‍या हो गया था इस बीच भारतीय शासन काल में जिसे मोहम्‍मद गज़नवी की हिम्‍मत नहीं हुई की दिल्‍ली की तरफ मुंह कर सके। उसे मोहम्‍मद गोरी जैसी अदना से शासक ने हरा दिया। इस की तह में कोई राज तो होगा। पहला तो छल था। दूसरा उस समय के जो 52 गढ़ थे वो सभी राजा आपस में भंयकर युद्धों में लिप्‍त थे। इनमें भी मोह बे के चार भाई आल्हा, उदूल, धॉदू और एक चचेरा भाई मल खान ने शादी जैसी परम्‍परा को मान अपमान का करण बना कर युद्ध करते रहे। आज भी बुंदेल खँड़ में बरसात के दो महीनों में वहाँ पर आल्‍हा गाई जाती है, उन दिनों हत्‍या और खून की वारदातें दोगुनी हो जाती है। बड़ी अजीब बात है। पृथ्‍वी राज चौहान की आखरी लड़ाई मोहम्‍मद गोरी से पहले इन्‍हीं आल्‍हा उदल से हुई थी। आल्‍हा का लड़का इंदल पृथ्‍वी राज चौहान की लड़की से शादी करने के लिए आ गए। उन का एक भाई तो पहले से ही धा दु तो पृथ्‍वी राज चौहान के यहां नौकर था वो अपने भाई यों से नाराज हो कर आ गया। युद्ध में बरात के साथ दुल्हा भी मारा गया। और पृथ्‍वी राज चौहान की लड़की बेला वहाँ पर सती हुई। उस समय दिल्‍ली को पथोरा गढ़ के नाम से जानते थे। इन्‍हीं अंदरूनी लडाई यों ने हिंदू राजाओं को कम जोर कर दिया। शादी के लिए इतनी हिंसा….आज भी आप जो बरात देखते है। वो क्‍या है एक फौज है और दुल्हा घोड़े पर बैठ कर तलवार ले कर चलता है। बड़ी अजीब सी रित-रिवाज है। नहीं ये वहीं लड़ाई की परम्‍परा को दोहरा रहे है। आज भी राजस्‍थान, हरियाणा,पंजाब, मध्‍य प्रदेश, और यू पी के बहुत से हिस्‍सों में आप बारात में जब जाकर देखेंगे की जब शादी के फेरे हो रहे होते है। वहां के लोक गीतों में लड़कियां औरतें दुल्हे को कोसती है।

महाभारत के 4000हजार साल तक जो हिन्दू साम्राज्य रहा कमाल है। उसे ने दिल्‍ली में कोई महल परकोटा शिकार गाह, आदी कुछ नहीं बनवाए। आज जीतने भी ऐतिहासिक स्मारक दिल्‍ली में देखेंगे वो सब मुगल कालिन या गुलाम बंस के बनवाए हुए है। और सभी में मजार कब्रगाह की मात्रा अधिक है। इतिहास के साथ न्‍याय नहीं हुआ हमारे देश में क्‍योंकि हमारे देश के राजनेता लम्पट है स्‍वार्थी है। बोट के लिए इस सब का इस्‍तेमाल करते है। बाबरी मस्जिद या राम लल्‍ला जैसे स्मारकों को ऐतिहासिक सच्‍चाई से उन्‍हें कोई लेना देना नहीं उन्‍हें तो बस राज सिंगा हसन पर आसिन होना हे। फिर चाहे वहां कितनी ही लाशें गिरे उन्‍हें इस सब से कुछ लेना देना नहीं है।

इस लिए पुराने इतिहास पर शोध करने वाले भी राजनैतिक प्रभाव या पूर्व धारणा को ले कर ही चलते है। पूर्व धारण आपको या आग्रह हमें सच्‍चाई तक कभी नहीं ले जा सकता। कम से कम बुद्धिजीवी वर्ग को तो एक ऐसी पीढी तैयार करनी होगी जो सत्‍य को आत्‍म सात कर सके। और उसे ढूंढ सके।

स्मारकों की बात हो रही थी। अब लाल किले को ही ले लीजिए उस के ठीक सामने जैन मंदिर है। कोई और शाहजहाँ जिसे ने लाल किला बनवाया उस ने जमा मस्जिद को एक कोने में बनवा दिया और इतनी दरियाँ दिली कि जैन मंदिर को इतना सम्‍मान की गेट से निकलते ही पहले उस के दर्शन हो। बात बड़ी बेबुझीसी पहेली लगती है…….

इसी तरह कहते है कुतुब मीनार को कुतुबुद्दीन ऐबक ने बनवाया था। कोन था कुतुबुद्दीन ऐबक मात्र एक दास था। मोहम्मद गोरी को बड़ा दरियाँ दिली दिखाई एक दास ने कुतुब की मीनार बना दी और उसके उसका शासन काल कितना था। ।1193-1206 ई और उस के पास जो ‘’अलाई मीनार’’ है, जो 1290-1320 यानि खिल जी वंश के बेहतरीन युग में बनने लगी और उसे खील जी कुतुब की मीनार से दो गुणा बड़ा बनाना चाहते थे। 30 साल के शासन काल में पहली ही मंजिल का ढांचा तैयार हो सका। क्‍या कारण है एक मीनार जो उन्‍हें के पूर्व उतराधिकारी ने बनाई उसी को कम करने के लिए उस से दो गुण बड़ा बनाया जा रहा है। कुछ इतिहास कार कहते है कुतुबुद्दीन ऐबक ने तीन मंजिल बनवाई,बाद की दो मंजिल इल्‍तुतमिश ने और बाद में सन् 1368 ई में फिरोज शाह तूगलक ने पांचवी मंजिल बनवाई यानि कुल मिला कर 175 वर्ष लगे कुतुबुद्दीन के ख्‍वाब को पूरा होने में वो भी तीन वंश ने मिल कर ये काम किया। कुछ इतिहासकार तो यहाँ तक कहते है कि इस का नाम बगदाद के कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी के नाम से इस मीनार का नाम रखा गया है। कुतुब मीनार जिस लाल पत्‍थर से बनी है और जिस से आयतें लिखी है उन के रंग में भी भेद है। जो सपाट लाल पत्‍थर लगा है। वो एक दम लाली लिए है। और जिस से आयतें लिखी गई है वो बदरंग लाल है। और उन आयतें को उस के उपर लगया गया है जिससे वो मीनार बहार की तरफ उभरी है। अगर एक साथ लगया गया होता उसके संग मिला कर लगाया जाता। और आप बिना किसी विचार ओर धारण के केवल कुतुब को देखे तो वो आयतें उस की खूबसूरती को बदरंग कर रही है। चिकना धरातल मन को शांत और गहरे उतरनें लग जाता हे। मीनार ध्‍यान के लिए बनी थी। अलग-अलग चक्र पर पहुंचे साधक अलग-अलग मंजिल पर बैठ कर ध्‍यान करते होगें। क्‍योंकि जिन लोग न ध्‍यान करने के लिए कुतुब मीनार को बनवाया होगा वह इस रहस्‍य को जरूर जानते होगें। वो ये भी जरूर जानते थे पृथ्‍वी के गुरुत्वाकर्षण हमारी उर्जा को अपनी और खींचता है। इसी लिए उचे पहाड़ों पर जा कर लोग मंदिर बनाते है। आप जितना गुरूत्व केन्द्र से उपर जाओगे पृथ्‍वी को खिचाव कम होने लग जात है। कुतुब की लाट अध्‍यात्‍म की चरम अवस्‍था पर पहुँचे साधकों की आने वाली पीढी को महानतम देन है। जिसे इतिहास के गलियारों ले भूल भुलैया बना कर रख दिया। महान राज भोज ने ही तंत्र की साधना में लीन उन एक लाख साधकों को मरवा दिया था वो महान राजा भी जब ध्‍यान के रहस्‍यों से इतना अंजान था जिससे एक विज्ञान जो खोजा गया था पृथ्‍वी से लगभग खत्‍म हो गया। एक मंद बुद्धि राज भोज जिसे इतिहास इतने सम्मान और आदर से देखता हे। उज्जयिनी की उस पवित्र नगरी को अपनी पाशविकता के अति पर ले गया। जो इतिहास की सब से कुरूप तम घटनाओं में एक मानता हूं।

कुतुब मीनार की आज पाँच मंज़िले है उन की ऊँचाई 72.5 मीटर है,और सीढ़ियां 379 है। कुतुब मीनार की सात मंज़िले थी। यानि उस की उँचाई पूरी 100 मीटर, मानव शरीर के अनुपान के रे सो की तरह उसकी मंज़िलों का विभाजन किया गया था। मानव शरीर को सात चक्रों में विभाजित किया गया है। उसी अनुपात को यानि मानव ढांचे को सामने रख कर उस की सात मंज़िले बनवाई गई थी। पहले तीन चक्र अध्‍यात्‍मिक जगत के कम और संसारी जगत के अधिक होते है। इस लिए मानव उन्‍हीं में जीता है और लगभग उन्‍हीं में बार-बार मर जाता है। मूलाधार, स्वादिष्ठता, मणिपूर ये तीन चक्र इसके बाद अनाहत, विशुद्ध दो अध्यात्म का रहस्‍य और आंदन है। फिर आज्ञा चक्र ओर सहस्त्र सार अति है। इस लिए सात हिन्दूओ की बड़ी बेबुझीसी रहस्‍य मय पहली है। सात रंग है। सात सुर है। प्रत्‍येक सुर एक-एक चक्र की धवनि को इंगित करता है। जैसे सा…मूलाधार रे….स्वादिष्ठता….इसी तरह रंग भी सा के लिए काला……रे के लिए कबूतरी……। हिन्दू शादी जैसे अनुष्‍ठान के समय वर बधू के फेरे भी सात ही लगवाते है।

कुतुब मीनार एक अध्‍यात्‍मिक केंद्र था। जिसे बुद्धो ने इसे विकसित किया था। इस का लोह स्तंभ भी गुप्त काल से भी प्रचीन है। इस शिलालेख भी मिले है। शायद चंद्र गुप्‍त के काल से भी प्राचीन। आज भी वहाँ भग्नावशेष अवस्‍था में कला के बेजोड़ नमूनों के अवशेष देखे जा सकते है। जो कला की दृष्टि में अजन्‍ता कोणार्क और खजुराहो से कम नहीं आँकें जा सकते उन स्तम्भों में उन आकृतियों के चेहरे को बडी बेदर्दी से तोड़ा दिए गये है। खूब सुरत खंबों में घंटियों की नक्‍काशी जो किसी मुसलिम को कभी नहीं भाती एक चित्र में गाय अपने बछड़े को दुध पीला रही है। शिव पर्वती, नटराज, भगवान बुद्ध और अनेक खजुराहो की ही तरह भगना वेश अवस्‍था में। आँजता या खजुराहो की मूर्तियां तो मिटटी से ढक दी गई थी वहां किसी मुस्‍लिम शासक की पहुच नहीं हुई अाजंता के तो उस स्‍थान को दर्शनीय बना दिया जहां से एक अंग्रेज आफिसर ने पहली बार खड़े होकर उन गुफाओं को देखा था। आज नहीं कल हमें उन्‍हें फिर से जनता के लिए बंद करना पड़ेगा। वो कोई देखने की वस्‍तु नहीं है वह तो पीने के केन्‍द्र है। वहां तो ध्‍यान के सागर हिलोरे मारते है। जो उस में तैरना जानते है वहीं उस का आनंद उठा सकते है। बाकी लोगों के कौतूहल की वस्तु भर है। यहाँवहाँ अपना नाम लिख कर थोड़ा शोर मचा कर वापस आ जाएँगे। सच ये स्‍थान देखने के काम के लिए नहीं बनाए गये थे।

कुल मिला कर कुतुब मीनार कोई किला या महल या कोई दिखावे की वस्‍तु नहीं थी। वो तो अध्‍यात्‍म के रहस्‍यों को जानने के लिए एक केन्‍द्र था। जहां पर हजारों साधक ध्‍यान करते थे। क्योंकि पास ही ढ़िल्‍लिका (दिल्‍ली) प्रचीन तोमर वंश और चौहान की राजधानी थी। उसे आज भी लाल कोटा के नाम से जानते थे।

ये सब विषय शोध कार्य करने वालों के अपने रहस्‍यों को छू पाए बैठे। लेकिन हम एक धारण को पहले ही मान लेते है। शोध के लिए कोई धारण आग्रह नहीं होना चाहिए एक कोरी किताब जिसे उन्‍होंने इतिहास को उकेरना है। उसकी बीते कल को जीवित करना है। देखो हम कब इस सब में कामयाब होते है……




Priyatam Kumar Mishra

कामवासना ओर प्रेम—


कामवासना अंश है प्रेम का, अधिक बड़ी संपूर्णता का। प्रेम उसे सौंदर्य देता है। अन्‍यथा तो यह सबसे अधिक असुंदर क्रियाओं में से एक है। इसलिए लोग अंधकार में कामवासना की और बढ़ते है। वे स्‍वयं भी इस क्रिया का प्रकाश में संपन्‍न किया जाना पसंद नहीं करते है। तुम देखते हो कि मनुष्‍य के अतिरिक्‍त सभी पशु संभोग करते है दिन में। कोई पशु रात में कष्‍ट नहीं उठाता; रात विश्राम के लिए होती है। सभी पशु दिन में संभोग करते है; केवल आदमी संभोग करता है रात्रि में। एक तरह का भय होता है कि संभोग की क्रिया थोड़ी असुंदर है। और कोई स्‍त्री अपनी खुली आंखों सहित कभी संभोग नहीं करती है। क्‍योंकि उनमें पुरूष की अपेक्षा ज्‍यादा सुरुचि-संवेदना होती है। वे हमेशा मूंदी आंखों सहित संभोग करती है। जिससे कि कोई चीज दिखाई नहीं देती। स्‍त्रियां अश्‍लील नहीं होती है, केवल पुरूष होते है ऐसे।

इसीलिए स्‍त्रियों के इतने ज्‍यादा नग्‍न चित्र विद्यमान रहते है। केवल पुरूषों का रस है देह देखने में; स्‍त्रियों की रूचि नहीं होती इसमें। उनके पास ज्‍यादा सुरुचि संवेदना होती है। क्‍योंकि देह पशु की है। जब तक कि वह दिव्‍य नहीं होती, उसमें देखने को कुछ है नहीं। प्रेम सेक्‍स को एक नयी आत्‍मा दे सकता है। तब सेक्‍स रूपांतरित हो जाता है—वह सुंदर बन जाता है। वह अब कामवासना का भाव न रहा,उसमें कहीं पार का कुछ होता है। वह सेतु बन जाता है।

तुम किसी व्‍यक्‍ति को प्रेम कर सकते हो। इसलिए क्‍योंकि वह तुम्‍हारी कामवासना की तृप्‍ति करता है। यह प्रेम नहीं, मात्र एक सौदा है। तुम किसी व्‍यक्‍ति के साथ कामवासना की पूर्ति कर सकते हो इसलिए क्‍योंकि तुम प्रेम करते हो। तब काम भाव अनुसरण करता है छाया की भांति, प्रेम के अंश की भांति। तब वह सुंदर होता है; तब वह पशु-संसार का नहीं रहता। तब पार की कोई चीज पहले से ही प्रविष्‍ट हो चुकी होती है। और यदि तुम किसी व्‍यक्‍ति से बहुत गहराई से प्रेम किए चले जाते हो, तो धीरे-धीरे कामवासना तिरोहित हो जाती है। आत्‍मीयता इतनी संपूर्ण हो जाती है कि कामवासना की कोई आवश्‍यकता नहीं रहती। प्रेम स्‍वयं में पर्याप्‍त होता है। जब वह घड़ी आती है तब प्रार्थना की संभावना तुम पर उतरती है।

ऐसा नहीं है कि उसे गिरा दिया गया होता है। ऐसा नहीं है कि उसका दमन किया गया, नहीं। वह तो बस तिरोहित हो जाती है। जब दो प्रेमी इतने गहने प्रेम में होते है कि प्रेम पर्याप्‍त होता है। और कामवासना बिलकुल गिर जाती है। तब दो प्रेमी समग्र एकत्‍व में होते है। क्‍योंकि कामवासना, विभक्‍त करती है। अंग्रेजी का शब्‍द ‘सेक्‍स’ तो आता ही उस मूल से है जिसका अर्थ होता है, विभेद। प्रेम जोड़ता है; कामवासना भेद बनाती है। कामवासना विभेद का मूल कारण है।

जब तुम किसी व्‍यक्‍ति के साथ कामवासना की पूर्ति करते हो, स्‍त्री या पुरूष के साथ, तो तुम सोचते हो कि सेक्‍स तुम्‍हें जोड़ता है। क्षण भर को तुम्‍हें भ्रम होता है एकत्‍व का, और फिर एक विशाल विभेद अचानक बन आता है। इसीलिए प्रत्‍येक काम क्रिया के पश्‍चात एक हताशा, एक निराशा आ घेरती है। व्‍यक्‍ति अनुभव करता है कि वह प्रिय से बहुत दुर है। कामवासना भेद बना देती है। और जब प्रेम ज्‍यादा और ज्‍यादा गहरे में उतर जाता है तो और ज्‍यादा जोड़ देता है तो कामवासना की आवश्‍यकता नहीं रहती। तुम इतने एकत्‍व में रहते हो कि तुम्‍हारी आंतरिक ऊर्जाऐं बिना कामवासना के मिल सकती है।

जब दो प्रेमियों की कामवासना तिरोहित हो जाती है तो जो आभा उतरती है तुम देख सकते हो उसे। वह दो शरीरों की भांति एक आत्‍मा में रहते है। आत्‍मा उन्‍हें घेरे रहती है। वह उनके शरीर के चारों और एक प्रदीप्‍ति बन जाती है। लेकिन ऐसा बहुत कम घटता है।

लोग कामवासना पर समाप्‍त हो जाते है। ज्‍यादा से ज्‍यादा जब इकट्ठे रहते है; तो वे एक दूसरे के प्रति स्‍नेहपूर्ण होने लगते है—ज्‍यादा से ज्‍यादा यही होता है। लेकिन प्रेम कोई स्‍नेह का भाव नहीं है, वह आत्‍माओं की एकमायता है—दो ऊर्जाऐं मिलती है। और संपूर्ण इकाई हो जाती है। जब ऐसा घटता है। केवल तभी प्रार्थना। संभव होती है। तब दोनों प्रेमी अपनी एकमायता में बहुत परितृप्‍त अनुभव करते है। बहुत संपूर्ण कि एक अनुग्रह का भाव उदित होता है। वे गुनगुनाना शुरू कर देते है प्रार्थना को।

प्रेम इस संपूर्ण अस्‍तित्‍व की सबसे बड़ी चीज है। वास्‍तवमें, हर चीज हर दूसरी चीज के प्रेम में होती है। जब तुम पहुंचते हो शिखर पर, तुम देख पाओगे कि हर चीज हर दूसरी चीज को प्रेम करती है। जब कि तुम प्रेम की तरह की भी कोई चीज नहीं देख पाते। जब तुम धृणा अनुभव करते हो—धृणा का अर्थ ही इतना होता है कि प्रेम गलत पड़ गया है। और कुछ नहीं। जब तुम उदासीनता अनुभव करते हो, इसका केवल यही अर्थ होता है कि प्रेम प्रस्‍फुटित होने के लिए पर्याप्‍त रूप से साहसी नहीं रहा है। जब तुम्‍हें किसी बंद व्‍यक्‍ति का अनुभव होता है,उसका केवल इतना अर्थ होता है कि वह बहुत ज्‍यादा भय अनुभव करता है। बहुत ज्‍यादा असुरक्षा—वह पहला कदम नहीं उठा पाया। लेकिन प्रत्‍येक चीज प्रेम है।

सारा अस्‍तित्‍व प्रेममय है। वृक्ष प्रेम करते है पृथ्‍वी को। वरना कैसे वे साथ-साथ अस्‍तित्‍व रख सकते थे। कौन सी चीज उन्‍हें साथ-साथ पकड़े हुए होगी? कोई तो एक जुड़ाव होना चाहिए। केवल जड़ों की ही बात नहीं है, क्‍योंकि यदि पृथ्‍वी वृक्ष के साथ गहरे प्रेम में न पड़ी हो तो जड़ें भी मदद न देंगी। एक गहन अदृष्‍य प्रेम अस्‍तित्‍व रखता है। संपूर्ण अस्‍तित्‍व, संपूर्ण ब्रह्मांड घूमता है प्रेम के चारों और। प्रेम ऋतम्‍भरा है। इस लिए कल कहा था मैंने सत्‍य और प्रेम का जोड़ है ऋतम्भरा। अकेला सत्‍य बहुत रूखा-रूखा होता है।

केवल एक प्रेमपूर्ण आलिंगन में पहली बार देह एक आकार लेती है। प्रेमी का तुम्‍हें तुम्‍हारी देह का आकार देती है। वह तुम्‍हें एक रूप देती है। वह तुम्‍हें एक आकार देती है। वह चारों और तुम्‍हें घेरे रहती है। तुम्‍हें तुम्‍हारी देह की पहचान देती है। प्रेमिका के बगैर तुम नहीं जानते तुम्‍हारा शरीर किस प्रकार का है। तुम्‍हारे शरीर के मरुस्थल में मरू धान कहां है, फूल कहां है? कहां तुम्‍हारी देह सबसे अधिक जीवंत है, और कहां मृत है? तुम नहीं जानते। तुम अपरिचित बने रहते हो। कौन देगा तुम्‍हें वह परिचय? वास्‍तव में जब तुम प्रेम में पड़ते हो और कोई तुम्‍हारे शरीर से प्रेम करता है तो पहली बार तुम सजग होते हो। अपनी देह के प्रति कि तुम्‍हारे पास देह है।

प्रेमी एक दूसरे की मदद करते है अपने शरीरों को जानने में। काम तुम्‍हारी मदद करता है दूसरे की देह को समझने में—और दूसरे के द्वारा तुम्‍हारे अपने शरीर की पहचान और अनुभूति पाने में। कामवासना तुम्‍हें देहधारी बनाती है। शरीर में बद्धमूल करती है। और फिर प्रेम तुम्‍हें स्‍वयं का, आत्‍मा का स्‍वय का अनुभव देता है—वह है दूसरा वर्तुल। और फिर प्रार्थना तुम्‍हारी मदद करती है अनात्‍म को अनुभव करने में,या ब्रह्म को, या परमात्‍मा को अनुभव करने में।

ये तीन चरण है: कामवासना से प्रेम तक, प्रेम से प्रार्थना तक। और प्रेम के कई आयाम होते है। क्‍योंकि यदि सारी ऊर्जा प्रेम है तो फिर प्रेम के कई आयाम होने ही चाहिए। जब तुम किसी स्‍त्री से या किसी पुरूष से प्रेम करते हो तो तुम परिचित हो जाते हो अपनी देह के साथ। जब तुम प्रेम करते हो गुरु से, तब तुम परिचित हो जाते हो अपने साथ। अपनी सत्‍ता के साथ और उस परिचित द्वारा, अकस्‍मात तुम संपूर्ण के प्रेम में पड़ जाते हो।

स्‍त्री द्वार बन जाती है गुरु का, गुरु द्वार बन जाता है परमात्‍मा का अकस्‍मात तुम संपूर्ण में जा पहुंचते हो, और तुम जाते हो अस्‍तित्‍व के अंतरतम मर्म में।

ओशो

By

Priyatam Kumar Mishra