ज्ञान तथा अज्ञान, प्रकाश तथा अंधकार और इनसे बंधा हुआ सुख-दुःख का प्रवाह अनादि काल से चला आ रहा है। जो सिद्धि ज्ञानी बुद्धि से, ज्ञान से और विद्या-बल से प्राप्त करते हैं उसी को अज्ञानी लठ से और ज्ञानहीन थोथी बातों से सिद्ध करना चाहता है। राजा ने मन्त्री को दो रेखायें एक जैसी डालकर कहा कि बिना काटे इनमें से एक छोटी हो जाये। उसने बुद्धि के प्रभाव से एक को बढ़ाकर अपने आप दूसरी को छोटा कर दिया। वैद्य कहता है कि इस मनुष्य को ज्वर है । जबकि अवैद्य बिना आँख से देखे ज्वर को मान ही नहीं रहा। ज्ञानी आत्मा के अनेक जन्म बतलाता है। पर अज्ञानी को ऐसा मानने में इसलिए भ्रम है कि यदि ऐसा होता तो पूर्व जन्म की बातें क्यों न स्मरण रहतीं। उसे इस वास्तविक तथ्य का ज्ञान ही नहीं कि मनुष्य को इस जन्म की ही सभी बातें स्मरण नहीं, तो पूर्व जन्म का प्रश्न कहॉं ? वह तो स्वार्थ के चक्कर में पड़ा रटता जा रहा है-
यावज्जीवेत् सुखं जीवेत्, ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्। भस्मिभूतस्य देहस्य, पुनरागमनं कुतः।।
आस्तिक कहता है-
"पर्यगाच्छुक्रमकायम्', "न तस्य प्रतिमा अस्ति'
"ईश्वर सर्वभूतानां हृदयेषु तिष्ठति अर्जुन'।
परमात्मा जगत्पिता सर्वव्यापक निराकार है। वह सबके अन्तरात्मा में विराजमान है तथा सबके कर्मों का साक्षी होकर फल दे रहा है। अगर देखना है तो ज्ञान की आँख से देखो।
हर जगह मौजूद है पर वह नजर आता नहीं।
योग साधन के बिना उसको कोई पाता नहीं।।
किन्तु ऐसा पढ़ने और सुनने पर भी क्या अज्ञानी रुकते हैं? नहीं। वस्तुतः यही वह अज्ञान और अन्धविश्वास की एक चिंगारी थी, जिसने भारतीय संस्कृति के सौन्दर्य, महत्व और प्राचीन गौरव के मन्दिर को जलाकर नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। इसी मिथ्यावाद ने अरब देशस्थ यवनों को बरबस भारत पर आक्रमण का निमन्त्रण दिया। मुहम्मद बिन कासिम, महमूद गजनवी और औरंगजेब जैसे अत्याचारियों के द्वारा भारत की मान-मर्यादा और पवित्रता को भरे बाजार बिकवाने और लुटवाने वाला यही मिथ्यावाद है। दक्षिणी तथा पूर्वी भारत के पर्याप्त भाग को ईसा के चेले बनाने और अन्ततः मातृभूमि को घायल कर पाकिस्तान को जन्म देने वाली यही अन्ध विचारधारा थी, जिसकी आज पर्यन्त भी वृद्धि हो रही है। प्रतिदिन नये मन्दिर और नई मूर्तियों की स्थापना इसका उदाहरण है। अतः इस सर्वनाश से बचने के लिये हमें सत्य ज्ञान की शरण लेनी होगी जिससे कि व्यक्ति तथा समाज दोनों वास्तविक शान्ति को प्राप्त कर सकें। ऋषि दयानन्द जी महाराज ने अपने ग्रन्थों में वेदादि सत्य शास्त्रों के आधार पर यह बतलाया कि दर्शन व ज्ञान, जिसे देखना कहते हैं, वह केवल इन बाहरी चमड़े की आँखों से नहीं अपितु आठ प्रकार से होता है- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, ऐतिह्य, अर्थापत्ति, सम्भव और अभाव।
प्रत्यक्ष- इन्द्रिय, मन और आत्मा के संयोग से जो सत्य ज्ञान होता है। अर्थात् जैसा देखना वैसा निश्चय और जैसा निश्चय वैसा देखना। रात को अन्धकार में दूरस्थित स्तम्भ को मनुष्य समझा, प्रातः वहॉं आकर देखा तो प्रतीत हुआ कि यह स्तम्भ है। यह प्रत्यक्ष देखना है।
अनुमान- जो प्रत्यक्ष के पश्चात् ज्ञान हो उसे अनुमान कहते हैं। जैसे प्रत्यक्ष धूयें के पीछे अग्नि का अनुमान। तीन वर्ष के दो छोटे बालकों में से एक को दरिद्र के घर में भूख से व्याकुल और दूसरे को राजगृह में स्वर्णमय झूलों में झूलता देख अदृश्य पूर्व-जन्म के बुरे और अच्छे कर्मों का ज्ञान होता है। प्रत्यक्ष सृष्टि से अदृश्य स्रष्टा का ज्ञान होता है। यह दूसरे प्रकार का दर्शन है।
उमपान- प्रत्यक्ष का किसी अन्य सादृश्य के साथ समता वर्णन, जिसे उपमान व उदाहरण भी कह सकते हैं। जैसे, यज्ञदत्त कैसा है? जैसा देवदत्त। नगर में जाकर वैसी उपमा मिलाकर यज्ञदत्त को ले आया। मुख कैसा है ? चन्द्र के समान ! इत्यादि यह तीसरे प्रकार का दर्शन है।
शब्द- जो आप्त अर्थात् पूर्ण विद्वान धर्मात्मा परोपकारप्रिय सत्यवादी और पुरुषार्थी जितेन्द्रिय पुरुष जैसे अपनी आत्मा में जानता है, जिससे सुख पाया हो उसी को अन्यों के कल्याणार्थ कहता है और वेदादि सत्यशास्त्रों की शिक्षायें, यह सब शब्द प्रमाण है। इसको पढ़-पढ़ा सुन-सुना मनन से साक्षात् करना, यह चौथे प्रकार का दर्शन है। इसमें स्वतः प्रमाण वेद और अन्य सभी परतः प्रमाण।
ऐतिह्य- सत्पुरुषों का आचार जो उनके जीवन चरित्र से मिलता है। इसमें विशेषतया शतपथादि ब्राह्मण ग्रन्थ ही प्रमाण हैं । अन्य इतिहास को प्रक्षिप्त भाग से शुद्ध तथा जॉंच कर ग्रहण करना, यह पांचवॉं दर्शन है।
अर्थापत्ति- एक बात समझ लेने के पश्चात् दूसरी का ज्ञान स्वयमेव हो जाना। जैसे एक ने कहा कि मेघों से वर्षा होती है तो दूसरे ने साथ ही यह भी समझ लिया कि बिना मेघों के वर्षा नहीं होती। राम ने लक्ष्मण को सीता के शिर तथा कंठ के आभूषण दिखाकर कहा कि क्या इन्हें पहचानते हो ? लक्ष्मण ने उत्तर दिया कि मैंने माता सीता का चेहरा ही कभी नहीं देखा। आगे राम स्वयं ही समझ गए कि भूषणों की कथा ही क्या ? यह छठा दर्शन है।
सम्भव- जो सृष्टि नियमानुकूल है वह सम्भव और विरुद्ध असम्भव। जैसे वन्ध्या का पुत्र होना, आकाश के फूल होना आदि । यह सृष्टि-नियम के विरुद्ध होने से असत्य, मिथ्या और असम्भव है। यह सप्तम दर्शन है।
अभाव- मॉं ने कहा कि छोटी मण्डी से सब्जी ले आओ। वहॉं अभाव (न पाकर) पुत्र अन्य स्थान से ले आया जहॉं पर थी। यह है आठवां दर्शन।
जो मनुष्य इन आठ प्रकारों से परम परीक्षा करके ज्ञान चक्षुओं से देखने का यत्न करते हैं उन्हें अपार सुख प्राप्त होता है।
Priyatam Kumar Mishra
यावज्जीवेत् सुखं जीवेत्, ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्। भस्मिभूतस्य देहस्य, पुनरागमनं कुतः।।
आस्तिक कहता है-
"पर्यगाच्छुक्रमकायम्', "न तस्य प्रतिमा अस्ति'
"ईश्वर सर्वभूतानां हृदयेषु तिष्ठति अर्जुन'।
परमात्मा जगत्पिता सर्वव्यापक निराकार है। वह सबके अन्तरात्मा में विराजमान है तथा सबके कर्मों का साक्षी होकर फल दे रहा है। अगर देखना है तो ज्ञान की आँख से देखो।
हर जगह मौजूद है पर वह नजर आता नहीं।
योग साधन के बिना उसको कोई पाता नहीं।।
किन्तु ऐसा पढ़ने और सुनने पर भी क्या अज्ञानी रुकते हैं? नहीं। वस्तुतः यही वह अज्ञान और अन्धविश्वास की एक चिंगारी थी, जिसने भारतीय संस्कृति के सौन्दर्य, महत्व और प्राचीन गौरव के मन्दिर को जलाकर नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। इसी मिथ्यावाद ने अरब देशस्थ यवनों को बरबस भारत पर आक्रमण का निमन्त्रण दिया। मुहम्मद बिन कासिम, महमूद गजनवी और औरंगजेब जैसे अत्याचारियों के द्वारा भारत की मान-मर्यादा और पवित्रता को भरे बाजार बिकवाने और लुटवाने वाला यही मिथ्यावाद है। दक्षिणी तथा पूर्वी भारत के पर्याप्त भाग को ईसा के चेले बनाने और अन्ततः मातृभूमि को घायल कर पाकिस्तान को जन्म देने वाली यही अन्ध विचारधारा थी, जिसकी आज पर्यन्त भी वृद्धि हो रही है। प्रतिदिन नये मन्दिर और नई मूर्तियों की स्थापना इसका उदाहरण है। अतः इस सर्वनाश से बचने के लिये हमें सत्य ज्ञान की शरण लेनी होगी जिससे कि व्यक्ति तथा समाज दोनों वास्तविक शान्ति को प्राप्त कर सकें। ऋषि दयानन्द जी महाराज ने अपने ग्रन्थों में वेदादि सत्य शास्त्रों के आधार पर यह बतलाया कि दर्शन व ज्ञान, जिसे देखना कहते हैं, वह केवल इन बाहरी चमड़े की आँखों से नहीं अपितु आठ प्रकार से होता है- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, ऐतिह्य, अर्थापत्ति, सम्भव और अभाव।
प्रत्यक्ष- इन्द्रिय, मन और आत्मा के संयोग से जो सत्य ज्ञान होता है। अर्थात् जैसा देखना वैसा निश्चय और जैसा निश्चय वैसा देखना। रात को अन्धकार में दूरस्थित स्तम्भ को मनुष्य समझा, प्रातः वहॉं आकर देखा तो प्रतीत हुआ कि यह स्तम्भ है। यह प्रत्यक्ष देखना है।
अनुमान- जो प्रत्यक्ष के पश्चात् ज्ञान हो उसे अनुमान कहते हैं। जैसे प्रत्यक्ष धूयें के पीछे अग्नि का अनुमान। तीन वर्ष के दो छोटे बालकों में से एक को दरिद्र के घर में भूख से व्याकुल और दूसरे को राजगृह में स्वर्णमय झूलों में झूलता देख अदृश्य पूर्व-जन्म के बुरे और अच्छे कर्मों का ज्ञान होता है। प्रत्यक्ष सृष्टि से अदृश्य स्रष्टा का ज्ञान होता है। यह दूसरे प्रकार का दर्शन है।
उमपान- प्रत्यक्ष का किसी अन्य सादृश्य के साथ समता वर्णन, जिसे उपमान व उदाहरण भी कह सकते हैं। जैसे, यज्ञदत्त कैसा है? जैसा देवदत्त। नगर में जाकर वैसी उपमा मिलाकर यज्ञदत्त को ले आया। मुख कैसा है ? चन्द्र के समान ! इत्यादि यह तीसरे प्रकार का दर्शन है।
शब्द- जो आप्त अर्थात् पूर्ण विद्वान धर्मात्मा परोपकारप्रिय सत्यवादी और पुरुषार्थी जितेन्द्रिय पुरुष जैसे अपनी आत्मा में जानता है, जिससे सुख पाया हो उसी को अन्यों के कल्याणार्थ कहता है और वेदादि सत्यशास्त्रों की शिक्षायें, यह सब शब्द प्रमाण है। इसको पढ़-पढ़ा सुन-सुना मनन से साक्षात् करना, यह चौथे प्रकार का दर्शन है। इसमें स्वतः प्रमाण वेद और अन्य सभी परतः प्रमाण।
ऐतिह्य- सत्पुरुषों का आचार जो उनके जीवन चरित्र से मिलता है। इसमें विशेषतया शतपथादि ब्राह्मण ग्रन्थ ही प्रमाण हैं । अन्य इतिहास को प्रक्षिप्त भाग से शुद्ध तथा जॉंच कर ग्रहण करना, यह पांचवॉं दर्शन है।
अर्थापत्ति- एक बात समझ लेने के पश्चात् दूसरी का ज्ञान स्वयमेव हो जाना। जैसे एक ने कहा कि मेघों से वर्षा होती है तो दूसरे ने साथ ही यह भी समझ लिया कि बिना मेघों के वर्षा नहीं होती। राम ने लक्ष्मण को सीता के शिर तथा कंठ के आभूषण दिखाकर कहा कि क्या इन्हें पहचानते हो ? लक्ष्मण ने उत्तर दिया कि मैंने माता सीता का चेहरा ही कभी नहीं देखा। आगे राम स्वयं ही समझ गए कि भूषणों की कथा ही क्या ? यह छठा दर्शन है।
सम्भव- जो सृष्टि नियमानुकूल है वह सम्भव और विरुद्ध असम्भव। जैसे वन्ध्या का पुत्र होना, आकाश के फूल होना आदि । यह सृष्टि-नियम के विरुद्ध होने से असत्य, मिथ्या और असम्भव है। यह सप्तम दर्शन है।
अभाव- मॉं ने कहा कि छोटी मण्डी से सब्जी ले आओ। वहॉं अभाव (न पाकर) पुत्र अन्य स्थान से ले आया जहॉं पर थी। यह है आठवां दर्शन।
जो मनुष्य इन आठ प्रकारों से परम परीक्षा करके ज्ञान चक्षुओं से देखने का यत्न करते हैं उन्हें अपार सुख प्राप्त होता है।
Priyatam Kumar Mishra
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