वैदिक संस्कृति वह अन्तःसलिला सरस्वती है, जो चिरकाल से लोगों को पावन करती चली आई है और अनन्त काल तक पावन करती चली जायेगी। वेदों के उद्गम स्थान से निकली हुई आर्य संस्कृति की पावन धारा अक्षुण्ण है।
वेद समस्त धर्मों का मूल है। मनु जी ने तो धर्म को जानने की इच्छा करने वाले साधकों के लिए वेदों को परमप्रमाण बताया हैं। जो धारक तत्व हैं, वे ही धर्म हैं। धर्म की आज की सारी परिभाषाएं एकांगी हैं। धर्म के अन्तर्गत, आध्यात्मिकता, भौतिकता, राष्ट्रीयता, सामाजिकता सभी का समावेश है। इन सभी पहलुओं का मूल वेद है। इसलिए वेदों को केवल भौतिक शास्त्र या केवल अध्यात्म शास्त्र मानना एक भंयकर भूल है।
वेदों में राष्ट्रीय भावना-वेद राष्ट्रीय भावना के भण्डार हैं। मनु जी ने अपनी स्मृति में स्पष्ट लिखा है- एक वेद ज्ञाता सेनापति, राजा, दण्ड-शासक के सभी काम कर सकता है, यहां तक कि वह सब लोकों का शासक भी बन सकता है।
वैदिक ऋषि जटाजूट बढाकर जंगलों में जाकर, कन्दमूल पर अपना जीवन निर्वाह करने वाले असभ्य या अर्धसभ्य नहीं थे। वे बड़े प्रज्ञावान् और दूरदर्शी थे। उनके सामने अपने राष्ट्र के भविष्य का पूरा नक्शा था। राष्ट्र की उन्नति और विकास का उद्देश्य उनके सामने था। आज से हजारों साल पहले उन्होंने राष्ट्र धारक तत्वों का अनुशीलन करके नेताओं की योग्यता निश्चित कर दी थी। राष्ट्र को धारण करने वाले तत्वों का वर्णन अथर्ववेद का ऋषि इस प्रकार करता है-
सत्यं बृहदृतमुग्रं दीक्षा तपो ब्रह्म यज्ञः पृथिवीं धारयन्ति। सा नो भूतस्य भव्यस्य पत्नी उरूं लोकं पृथिवी नः कृणोतु ।। अथर्ववेद 12/1/1
अर्थात् सत्य, विशाल हृदयता, वीरता, चतुरता, तपस्या, ज्ञान और संगठन मातृभूमि को धारण् करते हैं। वह मातृभूमि हम प्रजाओं के भूत और भविष्य का पालन करने वाली हो तथा हमारे लिए कार्य क्षेत्र को विस्तृत करे।
मातृभृमि के लिये ही जीना और मरना- मातृभूमि का सच्चा सपूत मातृभूमि के लिये ही जीता और मरता है। उसकी भूत और भविष्य की सभी योजनाएं मातृभूमि की उन्नति के लिए ही होती हैं। वह अपने ज्ञान का प्रयोग मातृभूमि के विकास के लिए ही करता है। आज की स्थिति विपरीत है। आज मां के सपूत इंग्लैंड, अमरीका आदि देशों में जाकर ज्ञान प्राप्त करते हैं, पर ज्ञान प्राप्त करके वे वहीं के नागरिक होकर वहीं रह जाते हैं। इस प्रकार उनके ज्ञान का लाभ उन देशों को होता है और भारत माता तरसती रह जाती है। यह शासकों का काम है कि वे ऐसी योग्य प्रतिभाओं को बुलाकर उन्हें उनकी योग्यता के अनुसार कार्यक्षेत्र प्रदान करके मातृभूमि की सेवा करने का अवसर प्रदान करें।
अनेकता में एकता- वैदिक काल में भी भारत में अनेक भाषा-भाषी और नाना धर्म वाले लोग थे, पर आज की तरह भाषावार प्रान्त के रूप में भारत टुकड़ों में बंटा हुआ नहीं था और ना ही भाषावाद के झगड़े ही थे। सारा भारत अखंड था और सभी जन नाना भाषा-भाषी होने पर भी उतने ही प्रेम से रहते थे, जिस प्रकार एक परिवार के लोग रहते हैं-
जनं बिभ्रती बहुधा विवाचसं नानाधर्माणं पृथिवी यथौकसम्। सहस्त्रं धारा द्रविणस्य मे दुहां ध्रुवेव धेनुरनपस्फुरन्ती।। अथर्ववेद 12/1/45
अर्थात् यह हमारी मातृभूमि नाना भाषा-भाषी तथा नाना कर्तव्य करने वाले मनुष्यों को एक घर के समान धारण करती है, वह लात न मारने वाली गाय के समान प्रसन्न होकर मेरे लिये धन की हजारों धाराओं को दुहे।
एक राष्ट्र् में विविधता स्वाभाविक है, पर उसमें विघटन न होकर संगठन होना चाहिए। संगठन ही राष्ट्र की शक्ति है। ऋग्वेद के संगठन सूक्त में संदेश है-
संगच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।
देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते।। ऋग्वेद 12/191.4
समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः ।
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति ।। ऋग्वेद 12/191.4
अर्थात् हे राष्ट्र की प्रजाओ! तुम सब एक साथ मिलकर प्रेम से चलो, प्रेम से बोलो, तुम्हारे मन उत्तम हों, जिस प्रकार पहले विद्वान ज्ञानपूर्वक राष्ट्र की उपासना करते चले आए, उसी प्रकार तुम भी करो। तुम्हारे संकल्प, तुम्हारे हृदय और मन एक समान हों।
वेदों में सैन्य वर्णन-राष्ट्र की सुरक्षा का प्रश्न उस काल में भी बहुत महत्वपूर्ण समझा जाता था। राष्ट्र की सुरक्षा के लिए ही सेना की व्यवस्था की जाती थी। वैदिककालीन सैन्य व्यवस्था देखकर बड़ा आश्चर्य होता है। सात-सात सैनिकों की सात पंक्तियां होती थी, उनकी भी रक्षा के लिए पार्श्व रक्षक नियुक्त किये जाते थे, इस प्रकार 53 सैनिकों की एक टुकड़ी होती थी। यह सेना बड़ी ही अनुशासित और युद्ध कुशल होती थी। इसी व्यवस्था के समान जर्मनी ने अपनी सेना को अनुशासित किया और अपनी सेना को विश्वविजयी बनाया। दूसरी तरफ वेदों के जन्मदाता भारत में कालान्त्रर में सेना अव्यवस्थित और अनुशासनहीन हो गई । उसका परिणाम यह हुआ कि देश कई बार विदेशियों के द्वारा पददलित हुआ। वेदपाठी केवल मन्त्रपाठ ही करने लगे, अर्थज्ञान की तरफ उनकी कभी प्रवृत्ति नहीं हुई। पेशवाओं की सेना अव्यवस्थित रही, इसलिए वे पराजित हुए। वेदों में सैन्य व्यवस्था का वर्णन बिल्कुल आधुनिक पद्धति की तरह से ही है।
इसके अलावा वेदों में शल्य क्रिया, कायाकल्प, चिकित्सा शास्त्र, स्वराज्य शास्त्र, प्राकृतिक चिकित्सा, मैस्मरेज्म, हिप्नोटिज्म, मनोविज्ञान, सृष्टिज्ञान, ब्रह्मज्ञान आदि अनेकों विषयों का विस्तृत वर्णन है।
वेदों की हर प्रार्थना में तेजस्विता भरी पड़ी है। वेदमन्त्रों का ज्ञान मनुष्यों को उत्साहित और बलशाली बनाता है। ऋषियों ने वेदों के माध्यम से जनता को वीरता और शक्ति का संदेश दिया था।
राष्ट्र भाषा संस्कृत- भारत राष्ट्र की उन्नति के लिये वेदों का ज्ञान अत्यन्त आवश्यक है। आज आवश्यकता है कि स्कूलों में प्रारंभ से ही वैदिक शिक्षा का प्रबन्ध किया जाये। इससे विद्यार्थियों के नैतिक चरित्र में सुधार होगा और आगे जाकर वे भारत के सच्चे सेवक बन सकेंगे। संस्कृत भाषा के प्रचार की भी आवश्यकता है। संस्कृत भाषा में ही भारतीय संस्कृति प्रतिबिम्बित होती है। यदि संस्कृत को राष्ट्रभाषा का पद दे दिया जाये, तो भाषावाद का झगड़ा बिल्कुल समाप्त हो जाये। इस भाषा में वे सभी योग्यताएं है, जो एक राष्ट्रभाषा में होनी चाहिएं। जब तक हम अपनी राष्ट्रभाषा का आदर करना नहीं सीखेंगे और विदेशी भाषा को ही हृदय से चिपकाये रहेंगे, तब तक हमारी या हमारे राष्ट्र की उन्नति संभव नहीं। इसलिए हमें चाहिये कि हम अपने देश, अपनी भाषा व अपनी संस्कृति से प्रेम करें।भारत के हर विद्यालय में संस्कृत भाषा को अनिवार्य किया जाये तथा प्राथमिक स्तर से ही संस्कृत भाषा के अध्यापन का प्रबंध हो ।
Priyatam Kumar Mishra
वेद समस्त धर्मों का मूल है। मनु जी ने तो धर्म को जानने की इच्छा करने वाले साधकों के लिए वेदों को परमप्रमाण बताया हैं। जो धारक तत्व हैं, वे ही धर्म हैं। धर्म की आज की सारी परिभाषाएं एकांगी हैं। धर्म के अन्तर्गत, आध्यात्मिकता, भौतिकता, राष्ट्रीयता, सामाजिकता सभी का समावेश है। इन सभी पहलुओं का मूल वेद है। इसलिए वेदों को केवल भौतिक शास्त्र या केवल अध्यात्म शास्त्र मानना एक भंयकर भूल है।
वेदों में राष्ट्रीय भावना-वेद राष्ट्रीय भावना के भण्डार हैं। मनु जी ने अपनी स्मृति में स्पष्ट लिखा है- एक वेद ज्ञाता सेनापति, राजा, दण्ड-शासक के सभी काम कर सकता है, यहां तक कि वह सब लोकों का शासक भी बन सकता है।
वैदिक ऋषि जटाजूट बढाकर जंगलों में जाकर, कन्दमूल पर अपना जीवन निर्वाह करने वाले असभ्य या अर्धसभ्य नहीं थे। वे बड़े प्रज्ञावान् और दूरदर्शी थे। उनके सामने अपने राष्ट्र के भविष्य का पूरा नक्शा था। राष्ट्र की उन्नति और विकास का उद्देश्य उनके सामने था। आज से हजारों साल पहले उन्होंने राष्ट्र धारक तत्वों का अनुशीलन करके नेताओं की योग्यता निश्चित कर दी थी। राष्ट्र को धारण करने वाले तत्वों का वर्णन अथर्ववेद का ऋषि इस प्रकार करता है-
सत्यं बृहदृतमुग्रं दीक्षा तपो ब्रह्म यज्ञः पृथिवीं धारयन्ति। सा नो भूतस्य भव्यस्य पत्नी उरूं लोकं पृथिवी नः कृणोतु ।। अथर्ववेद 12/1/1
अर्थात् सत्य, विशाल हृदयता, वीरता, चतुरता, तपस्या, ज्ञान और संगठन मातृभूमि को धारण् करते हैं। वह मातृभूमि हम प्रजाओं के भूत और भविष्य का पालन करने वाली हो तथा हमारे लिए कार्य क्षेत्र को विस्तृत करे।
मातृभृमि के लिये ही जीना और मरना- मातृभूमि का सच्चा सपूत मातृभूमि के लिये ही जीता और मरता है। उसकी भूत और भविष्य की सभी योजनाएं मातृभूमि की उन्नति के लिए ही होती हैं। वह अपने ज्ञान का प्रयोग मातृभूमि के विकास के लिए ही करता है। आज की स्थिति विपरीत है। आज मां के सपूत इंग्लैंड, अमरीका आदि देशों में जाकर ज्ञान प्राप्त करते हैं, पर ज्ञान प्राप्त करके वे वहीं के नागरिक होकर वहीं रह जाते हैं। इस प्रकार उनके ज्ञान का लाभ उन देशों को होता है और भारत माता तरसती रह जाती है। यह शासकों का काम है कि वे ऐसी योग्य प्रतिभाओं को बुलाकर उन्हें उनकी योग्यता के अनुसार कार्यक्षेत्र प्रदान करके मातृभूमि की सेवा करने का अवसर प्रदान करें।
अनेकता में एकता- वैदिक काल में भी भारत में अनेक भाषा-भाषी और नाना धर्म वाले लोग थे, पर आज की तरह भाषावार प्रान्त के रूप में भारत टुकड़ों में बंटा हुआ नहीं था और ना ही भाषावाद के झगड़े ही थे। सारा भारत अखंड था और सभी जन नाना भाषा-भाषी होने पर भी उतने ही प्रेम से रहते थे, जिस प्रकार एक परिवार के लोग रहते हैं-
जनं बिभ्रती बहुधा विवाचसं नानाधर्माणं पृथिवी यथौकसम्। सहस्त्रं धारा द्रविणस्य मे दुहां ध्रुवेव धेनुरनपस्फुरन्ती।। अथर्ववेद 12/1/45
अर्थात् यह हमारी मातृभूमि नाना भाषा-भाषी तथा नाना कर्तव्य करने वाले मनुष्यों को एक घर के समान धारण करती है, वह लात न मारने वाली गाय के समान प्रसन्न होकर मेरे लिये धन की हजारों धाराओं को दुहे।
एक राष्ट्र् में विविधता स्वाभाविक है, पर उसमें विघटन न होकर संगठन होना चाहिए। संगठन ही राष्ट्र की शक्ति है। ऋग्वेद के संगठन सूक्त में संदेश है-
संगच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।
देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते।। ऋग्वेद 12/191.4
समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः ।
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति ।। ऋग्वेद 12/191.4
अर्थात् हे राष्ट्र की प्रजाओ! तुम सब एक साथ मिलकर प्रेम से चलो, प्रेम से बोलो, तुम्हारे मन उत्तम हों, जिस प्रकार पहले विद्वान ज्ञानपूर्वक राष्ट्र की उपासना करते चले आए, उसी प्रकार तुम भी करो। तुम्हारे संकल्प, तुम्हारे हृदय और मन एक समान हों।
वेदों में सैन्य वर्णन-राष्ट्र की सुरक्षा का प्रश्न उस काल में भी बहुत महत्वपूर्ण समझा जाता था। राष्ट्र की सुरक्षा के लिए ही सेना की व्यवस्था की जाती थी। वैदिककालीन सैन्य व्यवस्था देखकर बड़ा आश्चर्य होता है। सात-सात सैनिकों की सात पंक्तियां होती थी, उनकी भी रक्षा के लिए पार्श्व रक्षक नियुक्त किये जाते थे, इस प्रकार 53 सैनिकों की एक टुकड़ी होती थी। यह सेना बड़ी ही अनुशासित और युद्ध कुशल होती थी। इसी व्यवस्था के समान जर्मनी ने अपनी सेना को अनुशासित किया और अपनी सेना को विश्वविजयी बनाया। दूसरी तरफ वेदों के जन्मदाता भारत में कालान्त्रर में सेना अव्यवस्थित और अनुशासनहीन हो गई । उसका परिणाम यह हुआ कि देश कई बार विदेशियों के द्वारा पददलित हुआ। वेदपाठी केवल मन्त्रपाठ ही करने लगे, अर्थज्ञान की तरफ उनकी कभी प्रवृत्ति नहीं हुई। पेशवाओं की सेना अव्यवस्थित रही, इसलिए वे पराजित हुए। वेदों में सैन्य व्यवस्था का वर्णन बिल्कुल आधुनिक पद्धति की तरह से ही है।
इसके अलावा वेदों में शल्य क्रिया, कायाकल्प, चिकित्सा शास्त्र, स्वराज्य शास्त्र, प्राकृतिक चिकित्सा, मैस्मरेज्म, हिप्नोटिज्म, मनोविज्ञान, सृष्टिज्ञान, ब्रह्मज्ञान आदि अनेकों विषयों का विस्तृत वर्णन है।
वेदों की हर प्रार्थना में तेजस्विता भरी पड़ी है। वेदमन्त्रों का ज्ञान मनुष्यों को उत्साहित और बलशाली बनाता है। ऋषियों ने वेदों के माध्यम से जनता को वीरता और शक्ति का संदेश दिया था।
राष्ट्र भाषा संस्कृत- भारत राष्ट्र की उन्नति के लिये वेदों का ज्ञान अत्यन्त आवश्यक है। आज आवश्यकता है कि स्कूलों में प्रारंभ से ही वैदिक शिक्षा का प्रबन्ध किया जाये। इससे विद्यार्थियों के नैतिक चरित्र में सुधार होगा और आगे जाकर वे भारत के सच्चे सेवक बन सकेंगे। संस्कृत भाषा के प्रचार की भी आवश्यकता है। संस्कृत भाषा में ही भारतीय संस्कृति प्रतिबिम्बित होती है। यदि संस्कृत को राष्ट्रभाषा का पद दे दिया जाये, तो भाषावाद का झगड़ा बिल्कुल समाप्त हो जाये। इस भाषा में वे सभी योग्यताएं है, जो एक राष्ट्रभाषा में होनी चाहिएं। जब तक हम अपनी राष्ट्रभाषा का आदर करना नहीं सीखेंगे और विदेशी भाषा को ही हृदय से चिपकाये रहेंगे, तब तक हमारी या हमारे राष्ट्र की उन्नति संभव नहीं। इसलिए हमें चाहिये कि हम अपने देश, अपनी भाषा व अपनी संस्कृति से प्रेम करें।भारत के हर विद्यालय में संस्कृत भाषा को अनिवार्य किया जाये तथा प्राथमिक स्तर से ही संस्कृत भाषा के अध्यापन का प्रबंध हो ।
Priyatam Kumar Mishra
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