जहां सहृदयता होगी, वहीं पर सांमनस्य पनप सकेगा अर्थात् एक दूसरे के प्रति स्वाभाविक रूप से मन में शुभ विचारों की सृष्टि होंगी। चूंकि मन के अधीन सम्पूर्ण इन्द्रियां होती है इसलिए जैसे मन के विचार होते है वैसे ही अन्य सब इन्द्रियों के व्यवहार होते हैं। अतः अन्य सब इन्द्रियों से उत्तम और प्रशस्त व्यवहारों की सृष्टि उत्पन्न करने के लिए मन में शुभ विचारों का होना आवश्यक है तथा शुभ विचारों के लिए परस्पर मे सहृदयता की आवश्यकता होती है और सहृदयता तब उत्पन्न होती है जब मनुष्य विद्वेष को छोड़कर एक दूसरे के दुःख और सुख में दुःख और सुख का अनुभव करने लगे। ऐसा करने पर हमारे जीवन में अगला उपदेश सहज ही समा सकेगा। वह यह है कि तुम एक दूसरे को ऐसे चाहो-एक दूसरे से ऐसा स्नेहपूर्ण व्यवहार करो जैसे गौ अपने नवजात बछड़े से करती है।
पारिवारिक जीवन में आगे वेद परस्पर व्यावहारिक जीवन पर प्रकाश डालता है-
अनुव्रतः पितुः पुत्रो मात्रा भवतु संमनाः।
जाया पत्ये मधुवर्तीं वाचं वदतु शांतिवाम्।।
पुत्र पिता का अनुव्रती-अनुकूल कर्म करने वाला अर्थात् आज्ञाकारी हो और माता के साथ एक मन होकर आचरण करने वाला हो। पत्नी पति के प्रति मधुमयी शान्तिदायक वाणी बोले।
इस मन्त्र में वेद ने आदेश दिया है कि परिवार में पुत्र का कर्तव्य है कि वह पिता का अनुव्रती हो। इस वाक्य से पुत्री भी पिता के अनुकूल आचरण करे, ऐसा ग्रहण कर लेना चाहिए।
वेद के इस उपदेश से मनुष्य के मन में यह संदेह उत्पन्न हो सकता है कि क्या पिता की सभी आज्ञाओं का पालन करना चाहिए ? अनेक बार ऐसी घटनाएं देखी जाती हैं, जिनमें एक पिता पुत्र को गोदी में बिठाकर स्वयं बीड़ी पीता हुआ उसे भी पीने को प्रेरित करता हुआ प्यार से उसके मुख में अपने ही हाथ से बीड़ी रखता है। इसी प्रकार एक पिता अपने बेटे को अच्छे साहित्य के पड़ने और सत्संग में जाने से रोकता है,एक बेटे को मांस अण्डे खाने को प्रेरित करता है- यह सोचकर कि बेटा शक्तिशाली बनेगा इत्यादि। इस प्रकार के संदेहों का वेद ने बहुत ही सुन्दर रूप से निवारण कर दिया है। वेद ने यहां "अनुव्रत' शब्द दिया है, जिसका तात्पर्य यह है कि उसके पिता के जीवन में जो व्रत हों, श्रेष्ठ कर्म हों या उनके जो आदेश श्रेष्ठ हों ''व्रतमनु इति अनुव्रत"" उन्हीं के अनुकूल चलना, उन्हीं को मानना ही पुत्र का धर्म है। इसके विपरीत अपने पिता के असद् उपदेशों और उलटे कार्यों का शिष्टाचार एवं मधुरता पूर्वक समझा-बुझाकर परित्याग करना ही उसका कर्तव्य है। इसी प्रकार पुत्र एवं पुत्री अपनी माता के मन से अपना मन एक करके अर्थात् उनकी मनोभावनाओं का यथेष्ट सम्मान करते हुए व्यवहार करें।
परिवार में जहां माता-पिता अपनी आने वाली सन्तान से यह आशा रखें वहां उनका स्वयं का भी कर्तव्य है कि उनके सम्मुख जीवन में पग-पग पर अपने व्यवहार द्वारा ऐसा आदर्श उपस्थित करें कि जिसे देखकर उन्हें अर्थात् बालकों को अपने माता-पिता पर गर्व अनुभव हो और वे अपने आपको भाग्यशाली समझें तथा प्रभु का हृदय से धन्यवाद करें, जिसने उन्हें ऐसे अच्छे आदर्श धार्मिक माता-पिता प्रदान किये। उनका संतान के प्रति उपदेश शब्दों से नहीं अपितु व्यवहारों से प्रस्फुरित हो। इसलिए वेद ने कहा कि पत्नी को पति से मधु के समान मधुर शान्तिमय सम्भाषण करना चाहिये और ऐसा ही पति को भी। पति-पत्नी का परस्पर का यह आदर्श दिव्य व्यवहार आने वाली यदि आवश्यकता पड़ने पर कुछ उपदेश भी माता-पिता द्वारा दिया जायेगा तो सन्तान उस उपदेश को श्रद्धापूर्वक शिरोधार्य करने में सुख अनुभव करेगी ।
वेद में पारिवारिक जीवन को सुखमय बनाने के लिए सामूहिक रूप में तथा व्यक्तिगत रूप में भी बहुत सी सुन्दर प्रेरणाएं दी गई हैं। इस प्रसंग में अर्थववेद के ''सांमनस्य सूक्त"" पर विचार किया जा रहा है। इस सूक्त में परस्पर मिलकर द्वेष भाव को छोड़कर इस प्रकार कार्य करने का उपदेश दिया गया है, जिससे हम सब में 'सांमनस्य" उत्पन्न हो, सबके मन में एकीकरण की भावना हो, सहृदयता हो । अर्थात् एक दूसरे के दुःख में दुःख और सुख में सुख अनुभव करने की भावना सदा बढ़ती रहे। इस प्रकार के विस्तृत सामाजिक जीवन का आरम्भ घर से होता है।
उप नः सूनव गिरः श़ृण्वत्वमृतस्य ये.। सुमृडीका भवन्तु नः।।
जो हमारी सन्तान हैं, पुत्र-पौत्रादि है, वे अमृतस्वरूप परमेश्वर की वेद वाणियों को गुरु चरण में बैठकर या ज्ञानी वेदज्ञ उपदेशक या संन्यासी महात्माओं के समीप बैठकर श्रवण करें, जिससे कि वे हमारे लिए सुखकर हों।
इस मन्त्र से एक उपदेश हमें यह मिलता है कि वेद के स्वाध्याय को अपना परमधर्म मानकर नित्य प्रति उसका स्वाध्याय करें, श्रवण, मनन और निदिध्यासन करें । समय-समय पर ज्ञानी वेदज्ञ विद्वानों एवं संन्यासी महात्माओं को अपने परिवारों में बुलाकर उनके प्रवचन कराएं, जिससे कि हमारी आने वाली संतति उन्हें सुने-समझे और उनके अनुकूल आचरण करे। इस प्रकार आचरण करने वाली सन्तति निःसन्देह हमारे लिए सुखकर होगी, यशस्कर होगी।
परिवार जन किस प्रकार परस्पर सहृदयता, सामंजस्य और अविद्वेष की भावना को अपने में उत्पन्न करें, इसका इस सूक्त के प्रथम मंत्र में वेद हमें उपदेश देता है-
सहृदयं सांमनस्यमविद्वेषं कृणोमि वः।
अन्यो अन्यमभिहर्यत वत्सं जातमिवाघ्न्या।।
हे मनुष्यो! मैं तुम्हारे विद्वेष भाव को दूर करता हूं और उसके स्थान पर तुममें सहृदयता तथा सांमनस्य को उत्पन्न करता हूं जिससे कि तुम्हारी एक-दूसरे के प्रति भावना और तुम्हारा एक-दूसरे के प्रति किया हुआ चिन्तन आत्मीयतापूर्वक हो। तुम परस्पर एक-दूसरे को ऐसे चाहो, ऐसे स्नेह करो, जैसे नवजात बछड़े को गौ माता स्नेह करती है।
इस मन्त्र के द्वारा वेद भगवान उपदेश देते हैं कि हे मनुष्यो ! तुम्हारे अन्दर किन्हीं भी कारणों से एक-दूसरे के प्रति वैर भाव आ गया है, जिसके कारण परस्पर में एक-दूसरे को देखकर तुम्हारे अ्रन्दर प्रीति या तृप्ति नहीं उत्पन्न होती, ऐसे विद्वेष भाव को मैं सर्वथा बाहर निकालकर तुम्हारे अन्दर वे भाव भरना चाहता हूं जिनके परिणामस्वरूप तुम्हें एक-दूसरे को देखकर ऐसी प्रीति, ऐसी तृप्ति अनुभव हो जैसी कि ग्रीष्म ऋतु में एक प्यासे को शीतल जल के प्राप्त हो जाने से मिल जाती है। इसके लिए मैं तुममें 'सहृदयता' लाना चाहता हूं। सहृदयता क्या है ? परिवार में एक-दूसरे के दुःख को देखकर दुःख और सुख को देखकर सुख अनुभव करना ही सहृदयता कहलाती है। जिस परिवार के सदस्यों में सहृदयता नहीं होती उस परिवार के सदस्यों में प्रीति अर्थात् एक-दूसरे को देखकर तृप्ति का अनुभव होना असंभव है। इसलिए जो महानुभाव अपने परिवार में प्रीति की बेल बोना चाहते हैं, उन्हें उसकी जड़ों को सहृदयता के जल से सींचना होगा। तभी वह बेल हरी-भरी अर्थात् फल-फूल सकेगी।
Priyatam Kumar Mishra
पारिवारिक जीवन में आगे वेद परस्पर व्यावहारिक जीवन पर प्रकाश डालता है-
अनुव्रतः पितुः पुत्रो मात्रा भवतु संमनाः।
जाया पत्ये मधुवर्तीं वाचं वदतु शांतिवाम्।।
पुत्र पिता का अनुव्रती-अनुकूल कर्म करने वाला अर्थात् आज्ञाकारी हो और माता के साथ एक मन होकर आचरण करने वाला हो। पत्नी पति के प्रति मधुमयी शान्तिदायक वाणी बोले।
इस मन्त्र में वेद ने आदेश दिया है कि परिवार में पुत्र का कर्तव्य है कि वह पिता का अनुव्रती हो। इस वाक्य से पुत्री भी पिता के अनुकूल आचरण करे, ऐसा ग्रहण कर लेना चाहिए।
वेद के इस उपदेश से मनुष्य के मन में यह संदेह उत्पन्न हो सकता है कि क्या पिता की सभी आज्ञाओं का पालन करना चाहिए ? अनेक बार ऐसी घटनाएं देखी जाती हैं, जिनमें एक पिता पुत्र को गोदी में बिठाकर स्वयं बीड़ी पीता हुआ उसे भी पीने को प्रेरित करता हुआ प्यार से उसके मुख में अपने ही हाथ से बीड़ी रखता है। इसी प्रकार एक पिता अपने बेटे को अच्छे साहित्य के पड़ने और सत्संग में जाने से रोकता है,एक बेटे को मांस अण्डे खाने को प्रेरित करता है- यह सोचकर कि बेटा शक्तिशाली बनेगा इत्यादि। इस प्रकार के संदेहों का वेद ने बहुत ही सुन्दर रूप से निवारण कर दिया है। वेद ने यहां "अनुव्रत' शब्द दिया है, जिसका तात्पर्य यह है कि उसके पिता के जीवन में जो व्रत हों, श्रेष्ठ कर्म हों या उनके जो आदेश श्रेष्ठ हों ''व्रतमनु इति अनुव्रत"" उन्हीं के अनुकूल चलना, उन्हीं को मानना ही पुत्र का धर्म है। इसके विपरीत अपने पिता के असद् उपदेशों और उलटे कार्यों का शिष्टाचार एवं मधुरता पूर्वक समझा-बुझाकर परित्याग करना ही उसका कर्तव्य है। इसी प्रकार पुत्र एवं पुत्री अपनी माता के मन से अपना मन एक करके अर्थात् उनकी मनोभावनाओं का यथेष्ट सम्मान करते हुए व्यवहार करें।
परिवार में जहां माता-पिता अपनी आने वाली सन्तान से यह आशा रखें वहां उनका स्वयं का भी कर्तव्य है कि उनके सम्मुख जीवन में पग-पग पर अपने व्यवहार द्वारा ऐसा आदर्श उपस्थित करें कि जिसे देखकर उन्हें अर्थात् बालकों को अपने माता-पिता पर गर्व अनुभव हो और वे अपने आपको भाग्यशाली समझें तथा प्रभु का हृदय से धन्यवाद करें, जिसने उन्हें ऐसे अच्छे आदर्श धार्मिक माता-पिता प्रदान किये। उनका संतान के प्रति उपदेश शब्दों से नहीं अपितु व्यवहारों से प्रस्फुरित हो। इसलिए वेद ने कहा कि पत्नी को पति से मधु के समान मधुर शान्तिमय सम्भाषण करना चाहिये और ऐसा ही पति को भी। पति-पत्नी का परस्पर का यह आदर्श दिव्य व्यवहार आने वाली यदि आवश्यकता पड़ने पर कुछ उपदेश भी माता-पिता द्वारा दिया जायेगा तो सन्तान उस उपदेश को श्रद्धापूर्वक शिरोधार्य करने में सुख अनुभव करेगी ।
वेद में पारिवारिक जीवन को सुखमय बनाने के लिए सामूहिक रूप में तथा व्यक्तिगत रूप में भी बहुत सी सुन्दर प्रेरणाएं दी गई हैं। इस प्रसंग में अर्थववेद के ''सांमनस्य सूक्त"" पर विचार किया जा रहा है। इस सूक्त में परस्पर मिलकर द्वेष भाव को छोड़कर इस प्रकार कार्य करने का उपदेश दिया गया है, जिससे हम सब में 'सांमनस्य" उत्पन्न हो, सबके मन में एकीकरण की भावना हो, सहृदयता हो । अर्थात् एक दूसरे के दुःख में दुःख और सुख में सुख अनुभव करने की भावना सदा बढ़ती रहे। इस प्रकार के विस्तृत सामाजिक जीवन का आरम्भ घर से होता है।
उप नः सूनव गिरः श़ृण्वत्वमृतस्य ये.। सुमृडीका भवन्तु नः।।
जो हमारी सन्तान हैं, पुत्र-पौत्रादि है, वे अमृतस्वरूप परमेश्वर की वेद वाणियों को गुरु चरण में बैठकर या ज्ञानी वेदज्ञ उपदेशक या संन्यासी महात्माओं के समीप बैठकर श्रवण करें, जिससे कि वे हमारे लिए सुखकर हों।
इस मन्त्र से एक उपदेश हमें यह मिलता है कि वेद के स्वाध्याय को अपना परमधर्म मानकर नित्य प्रति उसका स्वाध्याय करें, श्रवण, मनन और निदिध्यासन करें । समय-समय पर ज्ञानी वेदज्ञ विद्वानों एवं संन्यासी महात्माओं को अपने परिवारों में बुलाकर उनके प्रवचन कराएं, जिससे कि हमारी आने वाली संतति उन्हें सुने-समझे और उनके अनुकूल आचरण करे। इस प्रकार आचरण करने वाली सन्तति निःसन्देह हमारे लिए सुखकर होगी, यशस्कर होगी।
परिवार जन किस प्रकार परस्पर सहृदयता, सामंजस्य और अविद्वेष की भावना को अपने में उत्पन्न करें, इसका इस सूक्त के प्रथम मंत्र में वेद हमें उपदेश देता है-
सहृदयं सांमनस्यमविद्वेषं कृणोमि वः।
अन्यो अन्यमभिहर्यत वत्सं जातमिवाघ्न्या।।
हे मनुष्यो! मैं तुम्हारे विद्वेष भाव को दूर करता हूं और उसके स्थान पर तुममें सहृदयता तथा सांमनस्य को उत्पन्न करता हूं जिससे कि तुम्हारी एक-दूसरे के प्रति भावना और तुम्हारा एक-दूसरे के प्रति किया हुआ चिन्तन आत्मीयतापूर्वक हो। तुम परस्पर एक-दूसरे को ऐसे चाहो, ऐसे स्नेह करो, जैसे नवजात बछड़े को गौ माता स्नेह करती है।
इस मन्त्र के द्वारा वेद भगवान उपदेश देते हैं कि हे मनुष्यो ! तुम्हारे अन्दर किन्हीं भी कारणों से एक-दूसरे के प्रति वैर भाव आ गया है, जिसके कारण परस्पर में एक-दूसरे को देखकर तुम्हारे अ्रन्दर प्रीति या तृप्ति नहीं उत्पन्न होती, ऐसे विद्वेष भाव को मैं सर्वथा बाहर निकालकर तुम्हारे अन्दर वे भाव भरना चाहता हूं जिनके परिणामस्वरूप तुम्हें एक-दूसरे को देखकर ऐसी प्रीति, ऐसी तृप्ति अनुभव हो जैसी कि ग्रीष्म ऋतु में एक प्यासे को शीतल जल के प्राप्त हो जाने से मिल जाती है। इसके लिए मैं तुममें 'सहृदयता' लाना चाहता हूं। सहृदयता क्या है ? परिवार में एक-दूसरे के दुःख को देखकर दुःख और सुख को देखकर सुख अनुभव करना ही सहृदयता कहलाती है। जिस परिवार के सदस्यों में सहृदयता नहीं होती उस परिवार के सदस्यों में प्रीति अर्थात् एक-दूसरे को देखकर तृप्ति का अनुभव होना असंभव है। इसलिए जो महानुभाव अपने परिवार में प्रीति की बेल बोना चाहते हैं, उन्हें उसकी जड़ों को सहृदयता के जल से सींचना होगा। तभी वह बेल हरी-भरी अर्थात् फल-फूल सकेगी।
Priyatam Kumar Mishra
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