Wednesday, July 11, 2012

सुखी परिवार के वैदिक सूत्र

परिवार में मिल जुलकर प्रेमपूर्वक कार्य करने के परिणामस्वरूप घर में जो वैभव आए, उसके उपभोग में यदि कहीं भी भेदभाव आ गया, तो परिवार के संगठन को ठेस लगने की सम्भावना हो सकती है। अतः वेद अग्रिम मन्त्र में उपदेश देता है -

समानी प्रपा सह वःअन्नभागः समाने योक्त्रे सह वो युनज्मि।
सम्यञ्चः अडग्निं सपर्यतारा नाभिमिवाभितः।। 


हे परिवार में प्रेमपूर्वक निवास करने वाले मनुष्यो ! तुम्हारा दुग्धादि पदार्थों का पान समान हो, तुम्हारा भोजन एक जैसा हो और साथ-साथ हो अर्थात्‌ तुम्हारा खानपान एक जैसा हो, उसमें किसी प्रकार का भेदभाव न हो। प्रेमपूर्वक सब एक साथ मिलकर खाओ-पीओ, भले ही तुम्हारे पात्र पृथक्‌-पृथक्‌ हों। क्योंकि इस प्रकार मिलकर साथ बैठकर खाने का भी एक अपने ढंग का आनन्द है। एक जुए में, मैं तुम सबको साथ -साथ जोड़ता हूं अर्थात्‌ तुम सब अपने आपको एक ही परिवार के संगठन में ऐसे बंधा हुआ समझो, जैसे कि रथ की नाभि के चहुं ओर अरे जुडे हुए होते हैं। इस प्रकार तुम सब मिलकर एक दूसरे का आदर सम्मान करते हुए प्रकाश स्वरूप प्रभु की पूजा करो, अग्निहोत्र अर्थात्‌ यज्ञ करो अथवा मिलजुल कर एक जैसी संकल्पाग्नि को मन में प्रज्ज्वलित करो और उसमें अपनी-अपनी सेवा की आहुति प्रदान कर घर के वातावरण को सुगन्धित करो।

इस मन्त्र के आधार पर जिस परिवार में सभी मनुष्य प्रातःकाल उठकर नहा धोकर एक साथ बैठकर जब संध्या उपासना और भजन करते होंगे, सब मिलकर वेद के पावन मन्त्रों से अग्नि देवता के चारों ओर बैठकर यज्ञ करते होंगे, अपने-अपने भाग की आहुति देते होंगे, सब मिलकर परिवार के अभ्युत्थान के लिए मनों में संकल्पाग्नि को प्रज्ज्वलित करते होंगे, पुनः सब एक साथ बैठकर दुग्धादि पदार्थों का पान एवं भोजन करते होंगे, मिलकर कार्य करते होंगे, मिलकर स्वाध्याय-सत्संग तथा शयनादि के पावन मन्त्रों का पाठ करने के उपरान्त जब सो जाते होंगे, तो उनका केवल मात्र दैनिक व्यवहार ही प्रसन्नता और प्रेरणा का स्त्रोत नहीं रहेगा, बल्कि उनका चैन से सोना भी सबको अपनी ओर आकर्षित किये बिना नहीं रहेगा । वेद आगे कहता है कि -

सध्रीचीनान्‌ वः सम्मनसस्कृणोम्येकश्नुष्टीन्त्संवननेन सर्वान्‌।
देवा इवाअमृतं रक्षमाणाः सायं प्रातः सौमनसो वो अस्तु।। 


इस प्रकार परस्पर मिलजुल कर पदार्थों के सेवन से या उत्तम सेवा भाव से तुम सबको एक साथ मिलकर पुरुषार्थ करने वाला, एक मन होकर विचार करने वाला तथा परिवार में एक को अपना बड़ा मानकर उसकी आज्ञा में चलने वाला या एक ध्येय को लेकर कार्य करने वाला बनाता हूं। अपने अमरत्व की रक्षा करते हुए देवों के समान प्रातः सायं तुम सबका सौमनत्व बना रहे।

इस मन्त्र का भाव यह है कि परिवार के सभी सदस्य जब एक साथ मिलकर बिना भेदभाव के परिवार के पदार्थों का उपभोग करते हैं, तो वे सब उस घर के अभ्युत्थान के लिये अपनी-अपनी योग्यता और सामर्थ्य के अनुसार समान रूप से एक पताका के नीचे उद्योग करते रहते हैं। ऐसा करते हुए वे सब अपने लक्ष्य की प्राप्ति में सफल होते हैं।

सूक्त के उपसंहार में वेद हमें एक सारगर्भित उपदेश देता है, वह यह कि हे परिवार में निवास करने वाले मनुष्यो! जैसे देवजन ज्ञानी महानुभाव सभी प्रकार से अपने अमरत्व की रक्षा करते हैं अर्थात्‌ जगत्‌ से विदा हो जाने के उपरान्त भी अपने कार्यों से अपने को अमर बनाकर सुदीर्घ काल तक आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा के स्त्रोत बने रहते है, वैसे ही तुम्हारे इस वैदिक आदर्श परिवार का मूल मन्त्र "सौमनस' हो। यदि तुममें "सौमनस' बना रहा तो सुमन के परिणामस्वरूप तुम सुमन (पुष्प=फूल) के समान खिल जाओगे, प्रसन्नता से विभोर हो जाओगे और अपने परिवाररूपी वाटिका के सुमनों के खिल जाने के परिणामस्वरूप अपने सत्कर्मों की पावन सुगन्धि से सारे वातावरण को सुगन्धित कर सकोगे।

भगवान हर मनुष्य को ऐसी सद्बुद्धि और सामर्थ्य प्रदान करे, जिससे कि वह अपने परिवार को आदर्श परिवार के रूप में खड़ा कर सके, क्योंकि ऐसा करके ही वह परिवार स्वयं सुखी हो सकेगा और अन्यों के लिए भी प्रेरणा का स्त्रोत बन सकेगा ।




परिवार में एक पुत्र या पुत्री के उत्पन्न होने के पश्चात यदि दूसरा पुत्र या पुत्री उत्पन्न हो, तो उसका माता-पिता के प्रति तो वही व्यवहार रहना चाहिये जो उपर्युक्त मन्त्र में निर्देश किया गया है। परंतु उनका परस्पर में कैसा व्यवहार होना चाहिये, इसके सम्बन्ध में वेद उपदेश देता है-

मा भ्राता भ्रातारं द्विक्षन्‌ मा स्वसारमुत स्वसा।
सम्यंचः सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया।। 


भाई भाई से द्वेष न करें, बहिन बहिन से द्वेष न करें, समान गति से एक-दूसरे का आदर सम्मान करते हुए परस्पर मिल जुलकर कर्मों को करने वाले होकर अथवा एक मत से प्रत्येक कार्य करने वाले होकर भद्रभाव से परिपूर्ण होकर सम्भाषण करो।

इस मन्त्र में जहां यह बतलाया गया है कि भाई, भाई से और बहिन, बहिन से द्वेष न करें, वहां इससे यह उपदेश भी ग्रहण करना चाहिए कि भाई, बहिन से और बहिन, भाई से भी द्वेष न करें। भाई-भाई को, बहिन-बहिन को, भाई-बहिन को और बहिन-भाई को परस्पर में ऐसा व्यवहार करना चाहिये, जिससे वे एक दूसरे को देखकर तृप्त हों, गद्गद्‌ हों। वे सदा एक दूसरे का आदर सम्मान करते हुए स्नेहपूर्वक मिलजुल कर कार्य करें और लक्ष्य की प्राप्ति के लिए समान रूप से प्रयत्नशील रहें। उनके व्रत-कर्म समान हों, श्रेष्ठ हों। यह समान कर्म और समान भाव से उनका किया हुआ पुरुषार्थ उनको निश्चित रूप से अपने उद्‌देश्य की ओर अग्रसर करता रहेगा।

इस प्रकार पारिवारिक अभ्युत्थान में संलग्न भाई-बहिनों को परस्पर में सम्भाषण भी ऐसा करना चाहिये, जो भद्र भाव से परिपूर्ण हो अर्थात्‌ बोलते समय यह विचारकर सब बोलें कि हमारे बोलने में कल्याण हो। अपवाद को छोड़कर दुर्भाग्य से आज परिवारों में भाई-भाई आदि वह वाणी भी नहीं बोल पाते, जो उनके इस लोक को ही सुखमय बना सके, परलोक की बात तो क्या कहें? फिर भी आश्चर्य है कि आज हम अपने आपको सभ्यता के उच्च शिखर पर विराजमान अनुभव करते हैं।

वास्तव में इन वैदिक दिव्य व्यवहारों से जो परिवार सम्पन्न रहेगा, वह कितना धन्य होगा !
सूक्त के अग्रिम मन्त्र में वेद उपदेश देता है कि-

येन देवा न वियन्ति नच विद्विषते मिथाः।
तत्कृण्मो ब्रह्म वो गृहे संज्ञानं पुरुषेभ्यः।। 


हे मनुष्यो! जिससे देवजन परस्पर पृथक-पृथक नहीं होते और न ही परस्पर विद्वेष करते है अर्थात्‌ जिसको पाकर देव जन सदा संगठित रहते हैं और एक दूसरे को देखकर फूले नहीं समाते, वह परस्पर एकता उत्पन्न करने वाला दिव्य ज्ञान तुम्हारे घर में सबके लिए समान रूप से प्राप्त हो।

इस मन्त्र से यह भाव निकलता है कि जो दिव्य ज्ञान सदा देवों को एक सूत्र में पिरोए रखता है, उनमें परस्पर प्रेम की गंगा बहाए रखता है, जिसके कारण न तो वे एक दूसरे के विपरीत आचरण करते हैं और न ही परस्पर में वे द्वेष करते हैं । तब वह दिव्य पावन ज्ञान हम एक ही कुटुम्ब के वासी मनुष्यों को, जो रक्त सम्बन्ध से वैसे ही एक दूसरे के साथ अपनत्व अनुभव करते है, क्यों नहीं संगठन और स्नेह के पावन सू़त्र में हमें पिरो सकेगा ? अवश्य ही वह दिव्य ज्ञान हमें परस्पर इतना निकट ले आएगा, ऐसे स्नेह सूत्र में पिरो देगा कि यह परिवार एक आदर्श परिवार के रूप में खड़ा होकर दूसरों को लिए भी प्रेरणा का स्त्रोत बन जायेगा।
वेद पुनः आगे उपदेश देता है -

ज्यायस्वन्तश्चितिनो मा वियौष्ट संराधयन्तः सधुराश्चरन्तः।
अन्यो अन्यस्मै वल्गु वदन्त एत सध्रीचीनान्‌ वः संमनसस्कृणोमि 


हे परिवार में निवास करने वाले मनुष्यो ! परिवार में वृद्धों का सम्मार करने वाले, सम्यक्‌ ज्ञान के धनी, एक साथ मिलकर कार्य को सिद्ध करने वाले, एक धुरी के नीचे रहकर कार्य करने वाले अर्थात्‌ कार्य भार को मिलकर आगे बढाने वाले तुम लोग परस्पर पृथक्‌ मत होवो। तुम सब कार्य करते हुए एक दूसरे से सदा स्नेह आदि सम्मान पूर्वक बातचीत करते हुए आगे बढो। मै तुम सबको, एक साथ मिल-जुलकर कार्य करने वालों को समान मन वाला बनाता हूं, जिससे तुम अपने उद्‌देश्य में सदा सफल होते रहो।

इस प्रकार एक परिवार में वृद्धों को सम्मान मिलता रहे, छोटों को प्यार, आशीर्वाद तथा उत्साह मिलता रहे और सब मिल जुल कर प्रेमपूर्वक परिवार के अभ्युत्थान में कृतसंकल्प हो जायें, तो उस परिवार के सुख-सौभाग्य में सन्देह रह ही नहीं सकता ।







Priyatam Kumar Mishra

नारी का सम्मान

प्राचीन काल से लेकर आज तक नारी ने समाज, राष्ट्र एवं परिवार के उन मूल्यों की रखवाली की है जो आज भी समाज में जिन्दा हैं तो नारी के कारण ही हैं। अन्यथा वह भी पुरुषों की तरह हो जाती तो आज इन मूल्यों का नाम तक नहीं मिलता।

प्राचीन काल के साहित्य के पन्ने पलटने से हमें नारी का रूप धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक सभी क्षेत्रों में सर्वोच्च स्थान पर दिखाई देता है। पुरुष अगर नास्तिक हो गया तो धर्म को जिन्दा रख नारी ने, जो कि आज भी हमें संस्कारवान नारियों में दिखाई देता है। राष्ट्र का पतन हुआ तो उसके उत्थान के लिए उसने मां बनकर वीरों को उत्पन्न किया, जिनके शौर्य से राष्ट्र का मस्तक ऊंचा हुआ। बलिदान देने की बात आई तो उसने भाई का, पति का बलिदान देकर अपने राष्ट्र की रक्षा की है।

महाभारत काल के आते-आते ये सामाजिक मूल्य छूट गए और समाज का पतन हो गया जिसका रूप मघ्यकालीन भारत था। जिसके कारण स्त्री को भोग्या समझा जाने लगा और विदेशियों ने आकर हमारे धर्म एवं संस्कृति को रौंद डाला। फिर महापुरुषों के आवाहन पर नारी ने अपने रूप को पहचाना और नैतिक मूल्यों को जीवित किया ।

सृष्टि के प्रथम राजा मनु महाराज ने जो उस समय सामाजिक व्यवस्था बनाई थी, वह उस समय का संविधान था, जो आज मनुस्मृति के रूप में हमारे सामने है। उसी के अनुसार आज भी बहुत कुछ हमारी सामाजिक व्यवस्था चल रही है। हमारे संविधान में भी उसकी व्यवस्थाएं समाविष्ट हैं। मनु नारी के विषय में क्या विचार रखते हैं और समाज में उसका क्या रूप होना चाहिए, मनुस्मृति के अन्दर वे लिखते हैं-


यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः।

जिस घर के अन्दर नारी का सम्मान होता है वहां सुख-समृद्धि निवास करते हैं। जिस घर के अन्दर प्रातःकाल उठकर नारी आंसू बहाती है उस घर के सब पुण्य नष्ट हो जाते हैं।

एक दृष्टि से देखा जाए तो नर एवं नारी की आपस में तुलना नहीं की जा सकती, क्योंकि अपने आप में दोनों महान हैं। पुरूष अग्नि है स्त्री सोम है । समाज एवं परिवार के निर्माण में नारी का स्थान सर्वश्रेष्ठ है। नौ मास तक बच्चे को अपनी कुक्षि में रखकर उसका निर्माण करती है । जब बच्चे का जन्म हो जाता है तब मां बनकर नारी ही उसे संस्कारवान बनाती है। उसके पश्चात्‌ कहीं पिता एवं गुरु का स्थान आता है। नैतिक मूल्यों की रक्षा का उपदेश भी मां से ही मिलता है। जब-जब समाज ने नारी की अवमानना की तब-तब उस समाज का पतन हुआ। हमारा प्राचीन गौरव नारी के कारण ही स्थिर रहा है।

जब विदुला का पुत्र शत्रु से हारकर जंगल में जाकर छिप गया, तब विदुला युधिष्ठिर के द्वारा उसको सन्देश भिजवाती है कि तुम किसके वीर्य से हो ? न माता के हो न पिता के हो। तुम में न कोप है न ताप। तुम नपुंसक हो, क्षत्रिय का बेटा शेर की तरह निर्भय विचरता है। शस्त्र उठाओ, शत्रु को मारो या स्वयं मर जाओ । बेटे का सोया पौरुष जाग उठा, शत्रु से युद्ध किया और विजयी रहा, यह मां के संस्कारों का फल था।

नारी ने समाज का बहुमुखी विकास किया। उसने समाज के निर्माण में योगदान एवं बलिदान दोनों दिये हैं। प्राचीन काल की माता गर्भावस्था में अपने पुत्रों को संस्कारवान बनाने के लिए कहा करती थी -


शुद्धोसि बुद्धोसि निरंजनोसि । संसारमाया परिवर्जितोसि।।

ऐ मेरे बेटे ! तू शुद्ध है, बुद्ध है, निरंजन है, संसार की माया से अलग है। इस प्रकार उसके तीन बेटे संन्यासी हो गए। पति ने कहा कि वंश चलाने के लिए कोई पुत्र तो विवाह करे । तब उस माता ने अपने विचार बदले और उसके पुत्र अलर्क ने विवाह किया।

प्राचीन साहित्य में गार्गी का स्थान सर्वोच्च है जिसने शास्त्रार्थ में याज्ञवल्क्य ऋषि को परास्त दिया था। मण्डन मिश्र की पत्नी भारती ने भी शंकराचार्य को शास्त्रार्थ में पराजित किया था। लोपामुद्रा, अपाला, घोषा, कौशल्या, सुमित्रा, शैव्या आदि नारियों ने भी राष्ट्र का निर्माण किया और नैतिक मूल्यों को जीवित रखा। पन्ना धाय ने मेवाड़ वंश को बचाने के लिए कुमार उदयसिंह के लिए अपने पुत्र का बलिदान दे दिया। मां जीजाबाई ने शिवा को वीरों की कहानियां सुना-सुना कर वीर बनाया और शत्रु द्वारा जीते हुए किले दिखाकर उसके निश्चय को दृढ़ बनाया। अन्त में उसने उन्हें विजय किया। वास्तव में नारी नर से बढ़कर है।

मां की मानसिक स्थिति का प्रभाव गर्भ में बच्चे पर कितना पड़ता है इसके अनेक उदाहरण प्रत्यक्ष हमारे सामने हैं- अमरीका के राष्ट्रपति गारफील्ड का हत्यारा गीदू जब मां के गर्भ में था तब उसकी मां ने गर्भपात करा कर उसकी हत्या कर डालने का प्रयत्न किया। पर वह बच गया, उस समय की मानसिकता का प्रभाव बच्चे पर पड़ा, जिससे वह हत्यारा बन गया।

नेपोलियन इतना बड़ा राष्ट्रनायक बना। वह भी मां के विचारों के कारण बना। जब वह मां के गर्भ में था तब उसकी मां सेनाओं की परेड देखती, सैनिकों के गीत सुनती, तब उसका रोम-रोम हर्ष से प्रफुल्लित हो उठता था। गर्भावस्था में पड़े संस्कारों ने नेपोलियन को एक महान योद्धा बनाया। बरसते गोलों में वह निर्भीक खड़ा रहता था, कभी विचलित नहीं होता था।

प्रिंस विस्मार्क जब मां के गर्भ में था तब उसकी मां अपने घर के उन भागों को बड़े मानसिक कष्ट से देखा करती, जिन्हें नेपोलियन की फ्रेंच सेनाओं ने नष्ट भ्रष्ट कर दिया था। इन तीव्र संस्कारों का परिणाम यह हुआ कि विस्मार्क के हृदय में फ्रांस से बदला लेने की तड़प जाग उठी।

यह सब उदाहरण बताते हैं कि नारी के विचारों पर समाज का उत्थान-पतन आधारित है। वीर प्रताप, शिवाजी, छत्रसाल, तात्या टोपे, टीपू सुल्तान जैसे वीरों का निर्माण नारी ने किया। अगर समाज ने उसे भोग्या समझकर प्रताड़ित किया, सम्मान नहीं दिया तो उसने हर्षद मेहता को उत्पन्न किया। आज अगर समाज के नैतिक मूल्यों की रखवाली करनी है तो नारी को सम्मान देना होगा। नारी को भी अपने छुई-मुई एवं सौन्दर्य की मूर्ति वाले रूप को छोड़ कर रानी झांसी वाला रूप अपनाना होगा।

नारी धरती के समान सब कुछ सहकर भी परिवार से जुड़ी रहती है। पुरूष छोड़ जाता है, फिर भी वह परिवार की जिम्मेदारियों को निभाते हुए आगे बढ़ती है । ऩअरि-नारी जिसका कोई शत्रु न हो, इस उक्ति को पूर्ण करती हुई चलती है। आज की नारी का रूप बड़ा विकृत है। वह अपने आपको अबला समझकर बैठी आंसू बहाती है या सौन्दर्य की प्रतिमा बनी बैठी है। महादेवी वर्मा ने आज की नारी का इस प्रकार चित्रण किया है-

""हमारे जमाने में हम लोग रक्त चन्दन तिलक मस्तक पर लगाकर जब शराब की दुकानों पर धरना देने जाती थी तो बड़े से बड़ा पियक्कड़ भी शरद ऋतु के पत्तों की तरह कांप उठता था । आज की आधुनिकाओं से कहो जरा धरना देकर देखें, तो जो शराब नहीं पीते, वे भी मधुशाला में आ जाएंगे। कैबरे से लेकर बीड़ी, साबुन और ब्लेड, तौलियों के विज्ञापनों तक में आज की नारी स्वयं को तथा अपनी देहयष्टी को और अपनी चितवन मुस्कान को व्यंजन की तरह इस प्रकार परोस रही है कि स्वयं एक व्यंजन मात्र बनकर रह गयी है।''

कहां पर तो स्वामी दयानन्द सरस्वती ने रास्ते में एक छोटी बालिका को देखकर मातृशक्ति को नमस्कार किया। मनु की उक्ति ठीक है। उसके अनुसार चलेंगे तो समाज में नैतिक मूल्यों की स्थापना हो सकेगी अन्यथा नहीं। पूर्व का समाज हो या पश्चिम का समाज, सबने नारी को भोग्या समझ लिया है। समाज की नारियों को अपने स्वरूप को स्वयं पहचानना होगा। रानी लक्ष्मीबाई की तरह से वीरांगना बनकर समाज के गिरते मूल्यों को बचाना होगा।







Priyatam Kumar Mishra

क्या सन्तान पैदा करने वाली प्रत्येक जननी माता होती है़ ?

बच्चे का निर्माण माता करती है। क्या सन्तान पैदा करने वाली प्रत्येक जननी माता होती है़ ? यह विचारणीय विषय है। सन्तान तो पशु-पक्षी भी पैदा करते हैं। परन्तु उनमें माता की भावना नहीं होती। जन्म देने मात्र से कोई भी नारी जननी हो सकती है। लेकिन माता वही है जो अपनी सन्तान को सुयोग्य बनाती है। उसका निर्माण करती है। माता, पिता का स्थान ले सकती है, परन्तु पिता माता का स्थान नहीं ले सकता।

बालक के नामकरण संस्कार पर जब माता बच्चे को लेकर यज्ञ स्थल पर आती है, तो वह बालक को उसके पिता के 
हाथों में सौपती है। पिता एक बार बालक को लेकर पुनः माता को ही सौंप देता है। इसका भाव यह है कि पिता कहता है कि इसका निर्माण तुम ही करो।

मां बच्चे को नौ मास तक अपने गर्भ में सहेजती है। जन्म देने में जो कष्ट सहन करती है, उसकी कल्पना भी पिता नहीं कर सकते। फिर बच्चे का मल-मूत्र साफ करती है। माता की बच्चे के प्रति ममता को देखो कि उसके जन्म के साथ ही माता के स्तनों में दूध उतर आता है। मां बच्चे के लिए सब कुछ त्याग देती है। बच्चा बड़ा होता है, तो मां उसका पहला गुरु बन कर उसके निर्माण में जुट जाती है। माता से अधिक प्यार संसार में बच्चे को और कौन दे सकता है? कोमलता, मधुरता और ममत्व भगवान ने माता को ही प्रदान किया है। सहनशीलता में माता भूमि के समान है। बच्चा खेलते-खेलते चोट खा जाता है, परन्तु माता की स्नेहमयी गोद में बैठते ही अपनी पीड़ा को भूल जाता है।

मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम ने रावण का वध करके विभीषण को लंका का राजा बना दिया। लक्ष्मण ने लंका की सुन्दरता को देखकर भगवान से लंका में ही रहने को कहा। श्रीराम ने कहा-अपि स्वर्णमयि लंका, न मे लक्ष्मण रोचते। जननी जनमभूमिश्च, स्वर्गादपि गरीयसि। भगवान श्रीराम ने माता को स्वर्ग से भी महान बताया। यक्ष के द्वारा प्रश्न पूछे जाने पर युधिष्ठिर ने उत्तर दिया- हे यक्ष ! भूमि से बड़ी माता है।

स्वामी विवेकानन्द ने माता को मनुष्य निर्माण का प्रथम विश्वविद्यालय कहा है। एक बार स्वामी विवेकानन्दजी अमेरिका गये हुए थे । एक मां अपने पुत्र के साथ आई और अपने बालक को स्वामीजी के चरणों में बैठाकर बोली स्वामीजी ! मै अपने पुत्र को विवेकानन्द बनाना चाहती हूं। कृपया उस विश्वविद्यालय का नाम बताइए, जिसमें विवेकानन्द बना है। स्वामीजी ने कहा माताजी, जिस विश्वविद्यालय में विवेकानन्द बना है, वह तो अब नहीं रहा। मां ने आश्चर्य से पूछा, क्या एक विवेकानन्द बनाकर ही कोई विश्वविद्यालय बन्द हो गया और वह भी भारत में ? स्वामीजी ने कहा-हां मां, वह विश्वविद्यालय मेरी जननी माता थी। वह अब संसार में नहीं है। 

हमारा अमर इतिहास साक्षी है कि माताओं ने अपने वीर पुत्रों का निर्माण कैसे किया। वैदिक काल में महारानी मदालसा वीरांगना और विदुषी हुई। उसका कहना था कि मेरे गर्भ में जन्मे पुत्र को दोबारा जन्म नहीं लेना पड़ेगा अर्थात्‌ मै उसको मोक्ष प्राप्ति के मार्ग पर लगा दूंगी। हुआ भी यही कि उसने अपने चार में से तीन पुत्रों को तो योगी बना दिया। चौथे को राज्य सौंपते समय उपदेश देकर चली गई। कुछ समय पश्चात्‌ वह भी उसी मार्ग पर चल पड़ा।

रानी सुरूचि द्वारा राजा उत्तानपाद की गोदी से अलग करने पर बालक ध्रुव रोता हुआ अपनी मां सुनीति के पास गया तो मां सुनीति ने कहा- रो मत मेरे ध्रुव ! यदि तुझे तेरे पिता ने अपनी गोद में नहीं बैठाया तो कोई बात नहीं। तू अपने सच्चे पिता की शरण में जा, वह परमात्मा ही सबका पिता है। उसकी गोदी में बैठकर तू चिरकाल तक अलौकिक आनन्द को प्राप्त कर। माता का उपदेश सुनकर ध्रुव योग साधना के लिए चल पड़ा। कालान्तर में ध्रुव ने मोक्ष को प्राप्त किया। 

जननी जनै तै भगत जनै, या दाता या शूर ।
ना तै जननी बांझ रहे, क्यों व्यर्थ गंवावै नूर ।।


महारानी शकुन्तला ने महर्षि कण्य के आश्रम में भरत को जन्म दिया था। वह भरत को शिक्षा देती थी- बेटा, इस बीहड़ जंगल में शेर, चीते आदि ही तेरे भाई है। तू इनसे ही मेल कर, इन्हीं के साथ खेल। भरत शेरों के दांत गिनता था। उनके साथ कुश्ती करता था। आगे चलकर यही भरत चक्रवर्ती सम्राट हुआ।

माता सुभद्रा ने अभिमन्यु को वीर, कुशल, योद्धा और चक्रव्यूह को बेधने योग्य बनाया, जिससे अभिमन्यु ने द्रोण, जयद्रथ, दुर्योधन, दुःशासन और कर्ण जैसे महारथी योद्धाओं को भी पराजित कर दिया।

माता कुन्ती ने जब शान्ति के सभी मार्गों को बन्द देखा और योगेश्वर श्रीकृष्ण से कहा, हे कृष्ण ! तुम मेरे बेटों के पास जाकर कहना कि क्षत्राणियां जिस दिन के लिए अपनी सन्तान को जन्म देती हैं, वह दिन आ गया है। अर्थात्‌ वे युद्ध के लिए कटिबद्ध हो जाएं।
वीर माता जीजाबाई को अपने शिवा को छत्रपति बनाने लिए अपने पति से भी विमुख होना पड़ा। वह अपने शिवा को राम, कृष्ण, हनुमान, भीष्म, शंकर और महाराणा सांगा जैसे वीर महापुरुषों की कहानियां सुनाया करती थी। उसको तलवार, घुड़सवारी, तीर आदि चलाना सिखाती थी। शिवाजी की रग-रग में साहस और वीरता कूट-कूट कर भर दी थी जीजाबाई ने और फिर शिवाजी को मुगल साम्राज्य के विरुद्ध लड़ने के लिए तैयार किर दिया। यही वह शिवाजी था जिसने औरंगजेब की नींद हराम कर दी थी और विशाल एवं सुदृढ़ मराठा साम्राज्य की नींव रखी।

नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल, सरदार भगतसिंह, उधमसिंह, अशफाक उल्ला खां आदि देशभक्त वीरों को उनकी वीर माताओं ने स्वतन्त्रता प्राप्ति के मार्ग में आने वाली बाधाओं को सहन करने योग्य बनाया।

गंगा माता ने कौरवों और पाण्डवों के पितामह अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रतधारी महारथी भीष्म को बनाया, जिन्होंने युद्ध क्षेत्र में अपने गुरु परशुराम को भी परास्त कर दिया था। जिन्होंने मौत को चुनोती दे दी थी। कई मास तक बाणों से बिंधे हुए बाणों की ही शय्‌या पर लेटे हुए अपनी इच्छा से ही उन्होंने इस नश्वर देह को त्यागा था। महारानी लक्ष्मीबाई, अहिल्या बाई आदि वीरांगनाओं को क्या कभी भुलाया जा सकता है?

निष्कर्ष यह है कि माता के अन्दर इतनी शक्ति विद्यमान है कि वह अपनी सन्तान को जैसा चाहे बना सकती है। राम, कृष्ण, हनुमान, भीष्म, शंकर, दयानन्द, गांधी, सुभाष, भगतसिंह जैसे महानपुरूष देशभक्त इन्हीं माताओं की गोदी में पले और महान बने।

आज मातृशक्ति सोई हुई है। वह अपने कर्त्तव्य को भूलकर साज-श़ृंगार के साथ सज-धजकर पार्टियों में जाने में ही अपनी शान समझती है। सन्तान निर्माण के लिए उसके पास समय ही नहीं है। आज आवश्यकता है, देश की माताओं को दिव्य संतान निर्माण का निश्चय करने की ! देश को महान भी ये ही बनाती हैं और नरक के गर्त में भी ये ही ले जाती हैं। इसलिए नारी को मातृत्व जुटाने के लिए सजग होने की आवश्यकता है । आज भी वही हनुमान, भीष्म, राम, कृष्ण, कपिल, कणाद आदि सन्तानें बनाने में समर्थ हैं।







Priyatam Kumar Mishra

मां ! तुम धन्य-धन्य हो

भारतीय अस्मिता एवं आस्था का मूल वैदिक वाड्‌मय के पारदर्शी विवेचन से ही अनुप्राणित है। भारतीय मनीषा में वेद विहित ही स्वीकार्य और ग्राह्‌य है। प्रायः समानान्तर सिद्धान्त जो अपने को अवैदिक कहते हैं वे भी वेदमूलक ही हैं, क्योंकि उनके केन्द्र में वेद ही रहता है । वेदों का विवेचन समग्र मानवीयता के उद्बोधन, प्रबोधन और पल्लवन के लिए ही है। सुदूर अतीत की अपनी देवभाषा में उपनिबद्ध ये ग्रन्थ सहजता से ग्राह्‌य नहीं भी हों, परन्तु जनजीवन, बहुविकसित परम्पराएं और मान्यताएं भी वेदानुमोदित ही हैं। वे ही सांस्कृतिक एवं सदाचारनिष्ठ हैं, जिनमें वेदों का भावान्तरण है। ज्ञान का प्रसार भी जाति, वर्ग, लिंग, वय और सीमा को पार करके ही सुशोभित होता है। जो सार्वजनिक, सर्वहिताय और लोकोपयोगी होता है वही राष्ट्रीय होता है। राष्ट्र जीवन देश काल वातावरण के अनुसार अपनी अक्षरा संस्कृति के साथ चतुर्दिंक प्रवाहित होता रहता है। विचार, संरक्षण, संवर्द्धन, पोषण की वृत्तियों में परस्पर समन्वय ही समृद्ध और संगठित राष्ट्र का निर्माण कर सकता है। जीवन को गतिशील बनाने के लिए पशु-सम्पत्ति, शस्य संपत्ति और वन्य सम्पत्ति की भी अनिवार्य आवश्यकता होती है। यज्ञ प्रधान विविध विवेचनों में भी यजमान को स्वस्ति मंगल के रूप में यजुर्वेद का अभिमत समग्र राष्ट्र का मंगल ही करता है। वैदिक राष्ट्रगान का मंत्र द्रष्टव्य है-

आ ब्रह्यन्‌ ब्राह्मणो बह्मवर्चसी जायताम्‌
आ राष्ट्रे राजन्यः शूर इषव्यः अति
व्याधी महारथो जायताम्‌
दोग्ध्री धेनुर्वोढानड्‌वानाशुः सप्तिः
पुरंध्रिर्योषा जिष्णू रथेष्ठाः सभेयो
युवाअस्य यजमानस्य वीरो जायतां
निकामे निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु
फलवत्यो न ओषधयः पच्यन्ताम्‌
योगक्षेमो नः कल्पताम्‌ 


वैदिक संस्कृति की व्यवस्था में विचारों की उच्चता का सर्वश्रेष्ठ स्थान है। यदि विचारों में श्रेष्ठता होगी तो आचरण भी श्रेष्ठ होगा और जनमानस का वैचारिक स्तर उन्नत होगा तथा सर्वाभ्युदय संभव हो सकेगा। वेदों का तेज, ज्ञान का प्रकाश, ब्रह्मचर्य का ओज, संयम की ऊर्जा जिसमें भरपूर रहती है, वही ब्राह्मण राष्ट्र के लिए अपने चिन्तन और विचारों की आहुति दे सकेगा तथा उसके उदात्त चिन्तन से ही राष्ट्रजीवन को ऊर्जा प्राप्त होगी। यज्ञ संस्था की दृढ़ता और व्यापकता में वृद्धि होगी। ब्रह्मवर्चस्‌ की अराधना के बिना न तो ब्राह्मणत्व बचता है और न ही समष्टि चिन्तन को प्रेरणा और गति मिल पाती है। राष्ट्र की रक्षा में राजवंश का उचित विनियोग तभी होगा जब वह शूरवीर हो, परन्तु शूरता तभी सफल होगी जब वह लक्ष्यवेध में प्रवीण हो, लक्ष्यवेध की सफलता भी तभी है जब वह शूर शत्रुनाश कर सके। इस देश का वीरबालक सैनिक ही नहीं सेनानायक अर्थात्‌ महारथी बने। महारथी में शत्रुविनाश, शूरवीरता, लक्ष्यवेधता होने पर ही देश का संकट दूर हो सकेगा।

देश की रक्षा की व्यवस्था के बिना यज्ञ प्रवर्तन संभव नहीं हो सकता। निर्विघ्न यज्ञ संपादन और ऋषि परम्परा के निर्वाह के लिए पुष्ट और प्रसन्न गायों का होना आवश्यक है। उनके दुग्ध के बिना हव्य-कव्य की क्रिया और स्वाहा स्वधा की प्रवृत्ति देश में नहीं हो सकेगी। दोग्ध्री धेनुः का भाव है कि धेनु तो अपने सेवक को प्रसन्न ही करती है, दूध भी दे और प्रसन्न भी रहे यह गौमाता का ही कार्य है। पत्र्चगव्य ही देव ऋषि और पितृजनों को तृप्त करते हैं। वैचारिक तर्पण के लिए भी गव्य में ही अपार क्षमता होती है। कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य के लिए वोढा अर्थात्‌ प्रापक या प्राप्त कराने वाला, धारण करने कराने वाला भी होना चाहिए और पोषण पालन के बिना राष्ट्र सबल या समर्थ नहीं हो सकता है। गायों के सपूत अगर व्यापार व्यवसाय के माघ्यम हो जाएं तभी देश समृद्ध होगा। वृषभ (बैल) को धर्म का प्रतीक भी माना जाता है। जब इस देश का व्यापारी वर्ग धर्म को वृषभ (बैल) बनाकर वस्तुओं के विनिमय का आधार बना लेगा तो हवाला, घोटाला, तहलका और बोफोर्स की खबरें नहीं होंगी। गमनागमन में यदि प्रमाद नहीं हुआ, इच्छानुसार आवागमन होता रहेगा तो राष्ट्रीय जीवन गतिशील रहेगा। आशु सप्तिः कहते हुए ऋषि ने शीघ्रगामी अश्व का संकेत दिया है। यह रक्षकों और पोषकों दोनों के लिए आवश्यक है। रक्षकी की शूरता और पोषकी की पालनीयता अश्व या वाहन या गमनागमन पर ही अवलंबित रहती है। ये सभी वृत्तियां तब व्यर्थ हो जाती हैं, जब देश की नारी कुल का या परिवार का चतुराई से पोषण न करे। परिवार राष्ट्र की सबसे छोटी इकाई है और उसका पालन, पोषण रक्षण, संवर्द्धन सब नारी पर आश्रित है। ऋषि ने पुरंध्रिर्योषा कहा है। यज्ञ परम्परा के निर्वाहक यजमान होते हैं। वे तभी सफल होंगे जब उनके घर आंगन की शोभा वीर बालक से बढ़ती रहे। यह बालक सभा में बैठने वाला हो और सभा का व्यवहार, आचार और शील जानने समझने में कुशल हो। जो युवक रथी बने, सैनिक बने उसमें देश के लिए जीतने या विजय प्राप्त करने की उत्कट अभिलाषा हो, तभी वह विजयी हो सकेगा। मानवीय जीवन ओर उसकी अपेक्षाओं के साथ राष्ट्रीय अभ्युदय के लिए यज्ञों की सफलता से पैदा होने वाले बादलों से यथासमय अपेक्षित बरसात की प्रार्थना की गयी है। शस्य संपत्ति के बिना राष्ट्र का पोषण नहीं हो पाता है।

जीवन में विघ्न करने वाले रोगों और टूटते जीवन के क्रम को ध्यान में रखकर ही वैदिक ऋषि ने औषधियों की फलवत्ता के लिए व्यापक देवता से प्रार्थना की है। यह सब होने पर भी देव से यही प्रार्थना की गयी है कि जो हमारे पास नहीं है वह भी मिलता रहे अर्थात्‌ योग बने और उसकी शाश्वतता के लिए क्षेम के लिए भी अपेक्षा की गयी है।

जिस देश में पारदर्शी ज्ञान की ऊर्जा समृद्ध हो, सीमा पर प्रहरी सचेष्ट और लक्ष्यनिष्ठ हों, समाज का पालन-पोषण करने वाले धर्मशील हों, स्त्रियां परिवार की प्रतिष्ठा का प्रतीक हों, गौएं देवर्षि पितृ कार्यों में सक्षम हों, युवाजन निर्भयता पूर्वक अपनी शक्ति का देशहित में विनियोग करते रहें, अवर्षा का जहां प्रभाव न हो, कृषि फलवती हो, औषधियां परिणामकारिणी हों, वही राष्ट्र समृद्ध और समर्थ हो सकेगा। गृह, रक्षा, व्यापार, शिक्षा, चिकित्सा विभाग जहां युक्त होते हैं, वहां प्रत्येक घर-परिवार प्रसन्न, उन्नत और सबल राष्ट्र का अंग बन सकता है। वैदिक राष्ट्र चिन्तन का यह एक उदाहरण मात्र है। यह प्रार्थना आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी राष्ट्र के लिए उस समय थी।







Priyatam Kumar Mishra

ज्ञान

वैदिक संस्कृति वह अन्तःसलिला सरस्वती है, जो चिरकाल से लोगों को पावन करती चली आई है और अनन्त काल तक पावन करती चली जायेगी। वेदों के उद्गम स्थान से निकली हुई आर्य संस्कृति की पावन धारा अक्षुण्ण है।

वेद समस्त धर्मों का मूल है। मनु जी ने तो धर्म को जानने की इच्छा करने वाले साधकों के लिए वेदों को परमप्रमाण बताया हैं। जो धारक तत्व हैं, वे ही धर्म हैं। धर्म की आज की सारी परिभाषाएं एकांगी हैं। धर्म के अन्तर्गत, आध्यात्मिकता, भौतिकता, राष्ट्रीयता, सामाजिकता सभी का समावेश है। इन सभी पहलुओं का मूल वेद है। इसलिए वेदों को केवल भौतिक शास्त्र या केवल अध्यात्म शास्त्र मानना एक भंयकर भूल है।

वेदों में राष्ट्रीय भावना-वेद राष्ट्रीय भावना के भण्डार हैं। मनु जी ने अपनी स्मृति में स्पष्ट लिखा है- एक वेद ज्ञाता सेनापति, राजा, दण्ड-शासक के सभी काम कर सकता है, यहां तक कि वह सब लोकों का शासक भी बन सकता है।

वैदिक ऋषि जटाजूट बढाकर जंगलों में जाकर, कन्दमूल पर अपना जीवन निर्वाह करने वाले असभ्य या अर्धसभ्य नहीं थे। वे बड़े प्रज्ञावान्‌ और दूरदर्शी थे। उनके सामने अपने राष्ट्र के भविष्य का पूरा नक्शा था। राष्ट्र की उन्नति और विकास का उद्‌देश्य उनके सामने था। आज से हजारों साल पहले उन्होंने राष्ट्र धारक तत्वों का अनुशीलन करके नेताओं की योग्यता निश्चित कर दी थी। राष्ट्र को धारण करने वाले तत्वों का वर्णन अथर्ववेद का ऋषि इस प्रकार करता है-

सत्यं बृहदृतमुग्रं दीक्षा तपो ब्रह्म यज्ञः पृथिवीं धारयन्ति। सा नो भूतस्य भव्यस्य पत्नी उरूं लोकं पृथिवी नः कृणोतु ।। अथर्ववेद 12/1/1

अर्थात्‌ सत्य, विशाल हृदयता, वीरता, चतुरता, तपस्या, ज्ञान और संगठन मातृभूमि को धारण् करते हैं। वह मातृभूमि हम प्रजाओं के भूत और भविष्य का पालन करने वाली हो तथा हमारे लिए कार्य क्षेत्र को विस्तृत करे।

मातृभृमि के लिये ही जीना और मरना- मातृभूमि का सच्चा सपूत मातृभूमि के लिये ही जीता और मरता है। उसकी भूत और भविष्य की सभी योजनाएं मातृभूमि की उन्नति के लिए ही होती हैं। वह अपने ज्ञान का प्रयोग मातृभूमि के विकास के लिए ही करता है। आज की स्थिति विपरीत है। आज मां के सपूत इंग्लैंड, अमरीका आदि देशों में जाकर ज्ञान प्राप्त करते हैं, पर ज्ञान प्राप्त करके वे वहीं के नागरिक होकर वहीं रह जाते हैं। इस प्रकार उनके ज्ञान का लाभ उन देशों को होता है और भारत माता तरसती रह जाती है। यह शासकों का काम है कि वे ऐसी योग्य प्रतिभाओं को बुलाकर उन्हें उनकी योग्यता के अनुसार कार्यक्षेत्र प्रदान करके मातृभूमि की सेवा करने का अवसर प्रदान करें।

अनेकता में एकता- वैदिक काल में भी भारत में अनेक भाषा-भाषी और नाना धर्म वाले लोग थे, पर आज की तरह भाषावार प्रान्त के रूप में भारत टुकड़ों में बंटा हुआ नहीं था और ना ही भाषावाद के झगड़े ही थे। सारा भारत अखंड था और सभी जन नाना भाषा-भाषी होने पर भी उतने ही प्रेम से रहते थे, जिस प्रकार एक परिवार के लोग रहते हैं-

जनं बिभ्रती बहुधा विवाचसं नानाधर्माणं पृथिवी यथौकसम्‌। सहस्त्रं धारा द्रविणस्य मे दुहां ध्रुवेव धेनुरनपस्फुरन्ती।। अथर्ववेद 12/1/45

अर्थात्‌ यह हमारी मातृभूमि नाना भाषा-भाषी तथा नाना कर्तव्य करने वाले मनुष्यों को एक घर के समान धारण करती है, वह लात न मारने वाली गाय के समान प्रसन्न होकर मेरे लिये धन की हजारों धाराओं को दुहे।

एक राष्ट्र्‌ में विविधता स्वाभाविक है, पर उसमें विघटन न होकर संगठन होना चाहिए। संगठन ही राष्ट्र की शक्ति है। ऋग्वेद के संगठन सूक्त में संदेश है-

संगच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम्‌।
देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते।। 
ऋग्वेद 12/191.4

समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः ।
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति ।। 
ऋग्वेद 12/191.4

अर्थात्‌ हे राष्ट्र की प्रजाओ! तुम सब एक साथ मिलकर प्रेम से चलो, प्रेम से बोलो, तुम्हारे मन उत्तम हों, जिस प्रकार पहले विद्वान ज्ञानपूर्वक राष्ट्र की उपासना करते चले आए, उसी प्रकार तुम भी करो। तुम्हारे संकल्प, तुम्हारे हृदय और मन एक समान हों।

वेदों में सैन्य वर्णन-राष्ट्र की सुरक्षा का प्रश्न उस काल में भी बहुत महत्वपूर्ण समझा जाता था। राष्ट्र की सुरक्षा के लिए ही सेना की व्यवस्था की जाती थी। वैदिककालीन सैन्य व्यवस्था देखकर बड़ा आश्चर्य होता है। सात-सात सैनिकों की सात पंक्तियां होती थी, उनकी भी रक्षा के लिए पार्श्व रक्षक नियुक्त किये जाते थे, इस प्रकार 53 सैनिकों की एक टुकड़ी होती थी। यह सेना बड़ी ही अनुशासित और युद्ध कुशल होती थी। इसी व्यवस्था के समान जर्मनी ने अपनी सेना को अनुशासित किया और अपनी सेना को विश्वविजयी बनाया। दूसरी तरफ वेदों के जन्मदाता भारत में कालान्त्रर में सेना अव्यवस्थित और अनुशासनहीन हो गई । उसका परिणाम यह हुआ कि देश कई बार विदेशियों के द्वारा पददलित हुआ। वेदपाठी केवल मन्त्रपाठ ही करने लगे, अर्थज्ञान की तरफ उनकी कभी प्रवृत्ति नहीं हुई। पेशवाओं की सेना अव्यवस्थित रही, इसलिए वे पराजित हुए। वेदों में सैन्य व्यवस्था का वर्णन बिल्कुल आधुनिक पद्धति की तरह से ही है।

इसके अलावा वेदों में शल्य क्रिया, कायाकल्प, चिकित्सा शास्त्र, स्वराज्य शास्त्र, प्राकृतिक चिकित्सा, मैस्मरेज्म, हिप्नोटिज्म, मनोविज्ञान, सृष्टिज्ञान, ब्रह्‌मज्ञान आदि अनेकों विषयों का विस्तृत वर्णन है।

वेदों की हर प्रार्थना में तेजस्विता भरी पड़ी है। वेदमन्त्रों का ज्ञान मनुष्यों को उत्साहित और बलशाली बनाता है। ऋषियों ने वेदों के माध्यम से जनता को वीरता और शक्ति का संदेश दिया था।

राष्ट्र भाषा संस्कृत- भारत राष्ट्र की उन्नति के लिये वेदों का ज्ञान अत्यन्त आवश्यक है। आज आवश्यकता है कि स्कूलों में प्रारंभ से ही वैदिक शिक्षा का प्रबन्ध किया जाये। इससे विद्यार्थियों के नैतिक चरित्र में सुधार होगा और आगे जाकर वे भारत के सच्चे सेवक बन सकेंगे। संस्कृत भाषा के प्रचार की भी आवश्यकता है। संस्कृत भाषा में ही भारतीय संस्कृति प्रतिबिम्बित होती है। यदि संस्कृत को राष्ट्रभाषा का पद दे दिया जाये, तो भाषावाद का झगड़ा बिल्कुल समाप्त हो जाये। इस भाषा में वे सभी योग्यताएं है, जो एक राष्ट्रभाषा में होनी चाहिएं। जब तक हम अपनी राष्ट्रभाषा का आदर करना नहीं सीखेंगे और विदेशी भाषा को ही हृदय से चिपकाये रहेंगे, तब तक हमारी या हमारे राष्ट्र की उन्नति संभव नहीं। इसलिए हमें चाहिये कि हम अपने देश, अपनी भाषा व अपनी संस्कृति से प्रेम करें।भारत के हर विद्यालय में संस्कृत भाषा को अनिवार्य किया जाये तथा प्राथमिक स्तर से ही संस्कृत भाषा के अध्यापन का प्रबंध हो ।







Priyatam Kumar Mishra

चार वेदः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद

ब्रह्म की विद्या "ब्रह्म" अर्थात्‌ वेद ही है। चार वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद इनमें चार विषय क्रमशः ज्ञान, कर्म, उपासना एवं विज्ञान हैं। यहां एक-एक वेद से एक-एक वाक्य प्रस्तुत किया जा रहा है-

1. मनुर्भव जनया दैव्यं जनम्‌ (ऋग्वेद 10.53.6)-ऋग्वेद तृण से लेकर परमब्रह्म तक का ज्ञान कराता है। उसके ज्ञान का मूलभूत सारतत्व यही है कि हे मनुष्य तू स्वयं सच्चा मनुष्य बन तथा दिव्य गुणयुक्त सन्तानों को जन्म दे अर्थात्‌ सुयोम्य मानवों के निर्माण में सतत प्रयत्नशील रह। मनुष्य, मनुष्य तभी बन सकता है, जब उसमें पशुताओं का प्रवेश न हो। आकार, रूप, रंग से कोई प्राणी मनुष्य दिखाई देता है, किन्तु उसके अन्दर भेड़िया, श्वान, उल्लू गृद्ध आदि आकर अपना डेरा जमा लेते हैं। ऋग्वेद हमें वह सब ज्ञान प्रदान करता है, जिससे व्यक्ति एक प्रबुद्ध मानव रहता है, वह न पशु और न दानव बनने पाता है।

2. आयुर्यज्ञेन कल्पताम्‌ (यजुर्वेद 18.29)- तांबे का कोई भी तार प्रकाश नहीं कर सकता है, किन्तु जब उसमें विद्युत का प्रवाह होने लगता है तो उससे प्रकाश, गति, उर्जा ओर ध्वनि सभी प्राप्त होने लगते हैं। देखने में तार पहले जैसा ही लगता है। इसी प्रकार देखने में सभी मनुष्य एक से लगते हैं, किन्तु जिनमें यज्ञरूपी विद्युत का प्रवाह हो जाता है, वही दिव्य हो जाते हैं। पंच महायज्ञ की बात तो पृथक ही है। सामान्यतया यज्ञ से तीन कर्मों का बोध प्राप्त होता है-देवपूजा, संगतिकरण और दान। सभी सच्चे जड़-चेतन देवताओं के प्रति पूजा-भाव रखते हुए समाज में समन्वय-संगति बनाये रखने के लिए सर्वसुलभ संपदाओं को सुविधानुसार दान करना और कराना, यही सब कार्य यज्ञ कहलाते हैं। यही कर्म मनुष्य को महामानव बना देते हैं। आहार, निद्रा, भय व मैथुन तो हर पशु तथा मानव की आवश्यकता है। पशु केवल इन्हीं के लिए जीता है। किन्तु मनुष्य इनसे ऊपर उठता है। इनको भी धर्म के कर्म अर्थात्‌ यज्ञ का रूप प्रदान करता हुआ जीता भी है और बलिदान भी हो जाता है। अगर हमने किसी को प्रेम नहीं दिया, किसी की सेवा नहीं की, किसी की पीठ नहीं थपथपाई, किसी को सहारा नहीं दिया, किसी को सान्त्वना नहीं दी, तो हमारा जीवन व्यर्थ है, निरर्थक है, एक व्यथा है। अयोग्य हैं हम। केवल अपने लिए जी रहे हैं, यह तो पशु का जीवन है। यही पशु प्रवृत्ति है कि केवल अपना ही ध्यान रखे । वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।

3. सदावृधः सखा (सामवेद 169-682) - इस यज्ञ भावना, कामना एवं कर्मणा को हम सामवेद के इस उपासना परक मन्त्र से प्राप्त कर सकते हैं। हम सदैव उन व्यक्तियों को अपना मित्र बनायें, जो अपने क्षेत्र में बढे हुए हैं, वृद्ध हैं। उनकी सदसंगति से, उनके वचन व उनके अनुकरण से पढे-बेपढे सभी को सद्‌ज्ञान-सद्‌कर्म की प्रेरणा प्राप्त होती रहेगी। उनके समीप बने रहने से मानव में यज्ञ की विद्युत का प्रवाह संचार करता रहेगा, जो इस लोक में तो उपयोगी होगा ही, परलोक में भी "सदावृधः" जो आदि से ही सर्व वृद्धिपूर्ण परमब्रह्‌मा है, उसका भी सखा बना देगा, समान ख्याति का अधिकारी बना देगा। बड़ों की समीपता व उनका सम्मान सदैव आयु, विद्या, यश एवं बल का स्त्रोत होता है। इससे कोई वंचित न हो, अपितु सब सिंचित हों। यही वेद का मधुर सामगान है।

4. माता भूमि पुत्रोहम्‌ पृथिव्याः(अथर्ववेद 12.1.12)-ज्ञान, कर्म, उपासना इन अवयवों के समन्वित रूप से निर्मित रसायन ही अथर्ववेद का विज्ञान है। पश्चिम प्रभावित विज्ञान अपने आविष्कारों से अति विचित्र यन्त्र-उपकरणों का निर्माण कर सकता है। कम्प्यूटर, दूरदर्शन,दूरभाष, इण्टरनेट और न जाने क्या क्या। इन सबसे भौतिक सुख समृद्धि का विस्तार तो होता दिखाई देता है, किन्तु आन्तरिक शान्ति तिरोहित हो जाती है। आविष्कार तो अत्यन्त विस्यमकारक अदभुत लगते हैं, किन्तु इन सबका प्रारम्भ प्रीतिकर, किन्तु परिणाम प्राणहर सिद्ध होता है। आधुनिक भोगवादी विज्ञान के चमत्कार चीत्कार में नित्य परिणत होते देखे जाते हैं। इनमें सर्वाधिक स्थूल पृथ्वी है, जो सम्पूर्ण प्रकृति का प्रत्यक्ष प्रतिनिधित्व करती है। वेद के अनुसार यह हमारी सृजन-पालन व आधार देने वाली माता है, साथ ही हम इसके पुत्र हैं। इसके साथ हमारा व्यवहार माता-पुत्र की भांति होना चाहिए। माता यदि जन्म देकर सन्तान का पालन पोषण करती है, तो सन्तान भी माता का सम्मान और उसकी सेवा में अपने जीवन की बाजी लगाने को प्रस्तुत रहती है। आज की भांति सागर, धरातल, पर्वत, आकाश में पाये जाने वाले पदार्थ यथा रत्न, राशि, जल, वृक्ष-वनस्पति, पत्थर, वायु सभी का भरपूर दोहन करना ही मानव का उद्‌देश्य नहीं होना चाहिए। दोहन भी ऐसा कि इन प्राकृतिक पदार्थों का समूल विनाश होता चला जाये तथा पर्यावरण भयंकर रूप से प्रदूषित हो जाए प्रतिदिन सोने का एक अण्डा देने वाली मुर्गी से सन्तुष्ट न होकर एक बार में ही मुर्गी के पेट को फाड़कर सोने के सारे अण्डे एक साथ निकालने वालों को सोना तो मिलता ही नहीं, मुर्गी से भी हाथ धोना पड़ता है।

भूमि की भांति मानव की अन्य मातायें भी हैं। उनमें से एक माता गाय भी है। उसके पोषणकारी स्वर्णिम दुग्ध से जब जी न भरा तो मानव ने उसके मांस को ही खाना प्रारम्भ कर दिया। कृत्रिम विषैले दूध से मानव सन्तान इधर रोग ग्रस्त होती है, उधर हजारों वधशालाओं में गौओं की हत्या करके गोमांस को भारत से निर्यात किया जाता है। 

यह तो समझ में आता है कि गाय को अंगूर, अन्न, मेवा खिलाकर अधिक गुणवत्ता पूर्ण दुग्ध प्राप्त किया जाए, किन्तु यह समझ में नहीं आता है कि शाकाहारी पशु गाय के अधिक मांस को प्राप्त करने के लिए उसे धोखे से चारे में मांस मिला कर खिला दिया जाये। इस अस्वाभाविक क्रियाकलाप से जब "मैडकाव' बीमारी से मनुष्य प्रभावित हुए, तो बड़ी संख्या में उन गायों को मार कर अपनी जान बचायी। इतना भोगते हुए भी वनस्पतियों की स्वाभाविक प्रोटीन से अतृप्त मानव इनके जनन गुण सूत्र (जीन्स) में जन्तुओं की प्रोटीन प्रविष्ट करके न जाने और कौन सी असाध्य व्याधि बुलाना चाहता है। यह है कभी न पूरी होने वाली मनुष्य की हत्यारी हवश !

अथर्ववेद इस हवश पर नियन्त्रण करके "वरदा वेदमाता' के ऐसे विज्ञान की प्रेरणा देता है, जिससे मानव को जीते जी आयु, प्राणश्क्ति, प्रजा, पशु, कीर्ति एवं ब्रह्मवर्चस्व तो मिलें ही, मरने के बाद ब्रह्मलोक का दिव्य आनन्द भी मिले। ऋग्वेद के ज्ञान के पदों से धर्म का बोध होता है। यजुर्वेद के कर्म सृजित अर्थ से मिलकर पद से पदार्थ बन जाते हैं। सामवेद की सात्विक कामनाओं से यह पदार्थ जगहितार्थ समर्पित हो जाते हैं। यही समर्पण अथर्ववेद के विज्ञान द्वारा मानव को मोक्ष की ओर अग्रसर कर देता है। इस प्रकार मानव "धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष' रूपी पुरुषार्थ चतुष्टय के अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। ज्ञान, कर्म, उपासना एवं विज्ञान-चार वेदों के ये प्रधान चार विषय हैं, किन्तु सामान्य रूप से चारों वेदों के प्रत्येक मन्त्र में इन विषयों का अनुपम सामंजस्य रहता है। बिना किसी भेदभाव के मनुष्य मात्र स्वसामर्थ्यानुसार "वेद का पढ़ना-पढ़ाना, सुनना-सुनाना' परमधर्म का अनुगमन कर अपने जीवन को देदीप्यमान कर सकता है तथा वेद की "मनुर्भव' भावना का जीवन्त स्वरूप बन सकता है।






Priyatam Kumar Mishra

मानव जीवन की सार्थकता

ज्ञान तथा अज्ञान, प्रकाश तथा अंधकार और इनसे बंधा हुआ सुख-दुःख का प्रवाह अनादि काल से चला आ रहा है। जो सिद्धि ज्ञानी बुद्धि से, ज्ञान से और विद्या-बल से प्राप्त करते हैं उसी को अज्ञानी लठ से और ज्ञानहीन थोथी बातों से सिद्ध करना चाहता है। राजा ने मन्त्री को दो रेखायें एक जैसी डालकर कहा कि बिना काटे इनमें से एक छोटी हो जाये। उसने बुद्धि के प्रभाव से एक को बढ़ाकर अपने आप दूसरी को छोटा कर दिया। वैद्य कहता है कि इस मनुष्य को ज्वर है । जबकि अवैद्य बिना आँख से देखे ज्वर को मान ही नहीं रहा। ज्ञानी आत्मा के अनेक जन्म बतलाता है। पर अज्ञानी को ऐसा मानने में इसलिए भ्रम है कि यदि ऐसा होता तो पूर्व जन्म की बातें क्यों न स्मरण रहतीं। उसे इस वास्तविक तथ्य का ज्ञान ही नहीं कि मनुष्य को इस जन्म की ही सभी बातें स्मरण नहीं, तो पूर्व जन्म का प्रश्न कहॉं ? वह तो स्वार्थ के चक्कर में पड़ा रटता जा रहा है-

यावज्जीवेत्‌ सुखं जीवेत्‌, ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्‌। भस्मिभूतस्य देहस्य, पुनरागमनं कुतः।।

आस्तिक कहता है-
"पर्यगाच्छुक्रमकायम्‌', "न तस्य प्रतिमा अस्ति'
"ईश्वर सर्वभूतानां हृदयेषु तिष्ठति अर्जुन'।


परमात्मा जगत्‌पिता सर्वव्यापक निराकार है। वह सबके अन्तरात्मा में विराजमान है तथा सबके कर्मों का साक्षी होकर फल दे रहा है। अगर देखना है तो ज्ञान की आँख से देखो।

हर जगह मौजूद है पर वह नजर आता नहीं।
योग साधन के बिना उसको कोई पाता नहीं।।


किन्तु ऐसा पढ़ने और सुनने पर भी क्या अज्ञानी रुकते हैं? नहीं। वस्तुतः यही वह अज्ञान और अन्धविश्वास की एक चिंगारी थी, जिसने भारतीय संस्कृति के सौन्दर्य, महत्व और प्राचीन गौरव के मन्दिर को जलाकर नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। इसी मिथ्यावाद ने अरब देशस्थ यवनों को बरबस भारत पर आक्रमण का निमन्त्रण दिया। मुहम्मद बिन कासिम, महमूद गजनवी और औरंगजेब जैसे अत्याचारियों के द्वारा भारत की मान-मर्यादा और पवित्रता को भरे बाजार बिकवाने और लुटवाने वाला यही मिथ्यावाद है। दक्षिणी तथा पूर्वी भारत के पर्याप्त भाग को ईसा के चेले बनाने और अन्ततः मातृभूमि को घायल कर पाकिस्तान को जन्म देने वाली यही अन्ध विचारधारा थी, जिसकी आज पर्यन्त भी वृद्धि हो रही है। प्रतिदिन नये मन्दिर और नई मूर्तियों की स्थापना इसका उदाहरण है। अतः इस सर्वनाश से बचने के लिये हमें सत्य ज्ञान की शरण लेनी होगी जिससे कि व्यक्ति तथा समाज दोनों वास्तविक शान्ति को प्राप्त कर सकें। ऋषि दयानन्द जी महाराज ने अपने ग्रन्थों में वेदादि सत्य शास्त्रों के आधार पर यह बतलाया कि दर्शन व ज्ञान, जिसे देखना कहते हैं, वह केवल इन बाहरी चमड़े की आँखों से नहीं अपितु आठ प्रकार से होता है- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, ऐतिह्य, अर्थापत्ति, सम्भव और अभाव।

प्रत्यक्ष- इन्द्रिय, मन और आत्मा के संयोग से जो सत्य ज्ञान होता है। अर्थात्‌ जैसा देखना वैसा निश्चय और जैसा निश्चय वैसा देखना। रात को अन्धकार में दूरस्थित स्तम्भ को मनुष्य समझा, प्रातः वहॉं आकर देखा तो प्रतीत हुआ कि यह स्तम्भ है। यह प्रत्यक्ष देखना है।

अनुमान- जो प्रत्यक्ष के पश्चात्‌ ज्ञान हो उसे अनुमान कहते हैं। जैसे प्रत्यक्ष धूयें के पीछे अग्नि का अनुमान। तीन वर्ष के दो छोटे बालकों में से एक को दरिद्र के घर में भूख से व्याकुल और दूसरे को राजगृह में स्वर्णमय झूलों में झूलता देख अदृश्य पूर्व-जन्म के बुरे और अच्छे कर्मों का ज्ञान होता है। प्रत्यक्ष सृष्टि से अदृश्य स्रष्टा का ज्ञान होता है। यह दूसरे प्रकार का दर्शन है। 

उमपान- प्रत्यक्ष का किसी अन्य सादृश्य के साथ समता वर्णन, जिसे उपमान व उदाहरण भी कह सकते हैं। जैसे, यज्ञदत्त कैसा है? जैसा देवदत्त। नगर में जाकर वैसी उपमा मिलाकर यज्ञदत्त को ले आया। मुख कैसा है ? चन्द्र के समान ! इत्यादि यह तीसरे प्रकार का दर्शन है।

शब्द- जो आप्त अर्थात्‌ पूर्ण विद्वान धर्मात्मा परोपकारप्रिय सत्यवादी और पुरुषार्थी जितेन्द्रिय पुरुष जैसे अपनी आत्मा में जानता है, जिससे सुख पाया हो उसी को अन्यों के कल्याणार्थ कहता है और वेदादि सत्यशास्त्रों की शिक्षायें, यह सब शब्द प्रमाण है। इसको पढ़-पढ़ा सुन-सुना मनन से साक्षात्‌ करना, यह चौथे प्रकार का दर्शन है। इसमें स्वतः प्रमाण वेद और अन्य सभी परतः प्रमाण।

ऐतिह्य- सत्पुरुषों का आचार जो उनके जीवन चरित्र से मिलता है। इसमें विशेषतया शतपथादि ब्राह्मण ग्रन्थ ही प्रमाण हैं । अन्य इतिहास को प्रक्षिप्त भाग से शुद्ध तथा जॉंच कर ग्रहण करना, यह पांचवॉं दर्शन है।

अर्थापत्ति- एक बात समझ लेने के पश्चात्‌ दूसरी का ज्ञान स्वयमेव हो जाना। जैसे एक ने कहा कि मेघों से वर्षा होती है तो दूसरे ने साथ ही यह भी समझ लिया कि बिना मेघों के वर्षा नहीं होती। राम ने लक्ष्मण को सीता के शिर तथा कंठ के आभूषण दिखाकर कहा कि क्या इन्हें पहचानते हो ? लक्ष्मण ने उत्तर दिया कि मैंने माता सीता का चेहरा ही कभी नहीं देखा। आगे राम स्वयं ही समझ गए कि भूषणों की कथा ही क्या ? यह छठा दर्शन है। 

सम्भव- जो सृष्टि नियमानुकूल है वह सम्भव और विरुद्ध असम्भव। जैसे वन्ध्या का पुत्र होना, आकाश के फूल होना आदि । यह सृष्टि-नियम के विरुद्ध होने से असत्य, मिथ्या और असम्भव है। यह सप्तम दर्शन है।

अभाव- मॉं ने कहा कि छोटी मण्डी से सब्जी ले आओ। वहॉं अभाव (न पाकर) पुत्र अन्य स्थान से ले आया जहॉं पर थी। यह है आठवां दर्शन।

जो मनुष्य इन आठ प्रकारों से परम परीक्षा करके ज्ञान चक्षुओं से देखने का यत्न करते हैं उन्हें अपार सुख प्राप्त होता है।





Priyatam Kumar Mishra