Monday, July 15, 2013

क्यों व्यर्थ की चिंता करते हो?


  • क्यों व्यर्थ की चिंता करते होकिससे व्यर्थडरते होकौन तुम्हें मार सक्ता हैआत्मा नापैदा होती है मरती है।
  • जो हुआवह अच्छा हुआजो हो रहा हैवहअच्छा हो रहा हैजो होगावह भी अच्छा हीहोगा। तुम भूत का पश्चाताप  करो। भविष्यकी चिन्ता  करो। वर्तमान चल रहा है।
  • तुम्हारा क्या गयाजो तुम रोते होतुम क्यालाए थेजो तुमने खो दियातुमने क्या पैदाकिया थाजो नाश हो गया तुम कुछ लेकरआएजो लिया यहीं से लिया। जो दियायहींपर दिया। जो लियाइसी (भगवानसे लिया।जो दियाइसी को दिया।
  • खाली हाथ आए और खाली हाथ चले। जोआज तुम्हारा हैकल और किसी का थापरसोंकिसी और का होगा। तुम इसे अपना समझकर मग्न हो रहे हो। बस यही प्रसन्नतातुम्हारे दु:खों का कारण है।
  • परिवर्तन संसार का नियम है। जिसे तुम मृत्युसमझते होवही तो जीवन है। एक क्षण मेंतुम करोड़ों के स्वामी बन जाते होदूसरे हीक्षण में तुम दरिद्र हो जाते हो। मेरा-तेरा,छोटा-बड़ाअपना-परायामन से मिटा दो,फिर सब तुम्हारा हैतुम सबके हो।
  •  यह शरीर तुम्हारा है तुम शरीर के हो।यह अग्निजलवायुपृथ्वीआकाश से बनाहै और इसी में मिल जायेगा। परन्तु आत्मास्थिर है - फिर तुम क्या हो?
  • तुम अपने आपको भगवान के अर्पित करो।यही सबसे उत्तम सहारा है। जो इसके सहारेको जानता है वह भयचिन्ताशोक से सर्वदामुक्त है।
  • जो कुछ भी तू करता हैउसे भगवान के अर्पणकरता चल। ऐसा करने से सदा जीवन-मुक्तका आन्दन अनुभव करेगा।

मत कर तू अभिमान रे बंदे जूठी तेरी शान रे


मत कर तू अभिमान रे बंदे, जूठी तेरी शान रे ।
मत कर तू अभिमान ॥

तेरे जैसे लाखों आये, लाखों इस माटी ने खाए ।
रहा ना नाम निशान रे बंदे, मत कर तू अभिमान ॥

माया का अन्धकार निराला, बाहर उजला अन्दर काला ।
इस को तू पहचान रे बंदे, मत कर तू अभिमान ॥

तेरे पास हैं हीरे मोती, मेरे मन मंदिर में ज्योति ।
कौन हुआ धनवान रे बंदे, मत कर तू अभिमान ॥


Friday, March 1, 2013

कर्म बड़ा या भाग्य?

अनंतकाल से इस विषय पर बहस चली आ रही है कि कर्म महत्वपूर्ण है या भाग्य। जीवन में अगर आपको कुछ पाना है तो मेहनत तो करनी ही पड़ेगी। मंजिलें उन्हीं को मिलती है जो उसकी ओर कदम बढ़ाते हैं।

महाभारत में जब अर्जुन ने कुरुक्षेत्र में युद्ध में अपने स्वजनों को अपने सामने खड़ा पाया तो उसका ‍शरीर निस्तेज हो गया। हाथों से धनुष छूट गया। प्राणहीन मनुष्य के समान वह धरती पर गिर गया। तब भगवान श्रीकृष्ण ने उसे गीता के कर्म ज्ञान का उपदेश दिया।

भगवान कृष्ण ने अर्जुन को कहा कि राज्य तुम्हारे भाग्य में है या नहीं यह तो बाद में, पहले तुम्हें युद्ध तो लड़ना पड़ेगा। तुम्हें अपना कर्म तो करना पड़ेगा अर्थात स्वजनों के खिलाफ युद्ध तो लड़ना पड़ेगा। तुलसीदासजी ने भी श्रीरामचरित मानस में लिखा है- 'कर्म प्रधान विश्व करि राखा'। अर्थात युग तो कर्म का है।

इसका अर्थ यह हुआ कि हम अपना कार्य करें, फल ‍की चिंता बाद में करें। किसान जब खेत में बीज बोता है तो उसे यह नहीं पता होता कि बारिश होगी या नहीं। जमीन में से बीज से अंकुर फूटेगा या नहीं। अगर पौधे आ भी गए तो उस पर फल आएंगे या नहीं। लेकिन किसान बीजों को जमीन बोता है और फसल की चिंता ईश्वर पर छोड़ देता है।

भाग्य का समर्थन करने वाले कहते है कि हमें जो सुख, संपत्ति, वैभव प्राप्त होता है वह भाग्य से होता है। जैसे लालूप्रसाद यादव की पत्नी राबड़ीदेवी बिहार की मुख्यमं‍त्री बनीं तो यह उनकी किस्मत थी। डॉ. मनमोहनसिंह भारत के प्रधानमंत्री बने तो उनकी कुंडली में राजयोग था। अगर ‍किसी अभिनेता का बेटा अभिनेता बनता है तो यह उसका भाग्य रहता है कि वह ‍अभिनेता के यहां पैदा हुआ।

जब चार लोग एक समान बुद्धि और ज्ञान रखने वाले एक ही समान कार्य को करें और उनमें से सिर्फ दो को ही सफलता मिले तो हम इसे क्या कहेंगे। दो लोगों के साथ भाग्य साथ नहीं था। ऐसा एक उदाहरण हम यह दे सकते हैं दो व्यक्ति एक साथ लॉटरी का टिकट खरीदते हैं पर लगती लॉटरी एक ही व्यक्ति की है। जब दोनों ने लॉटरी खरीदने का कर्म एक साथ किया तो फल अलग-अलग क्यों?

अंत में यही कहा जा सकता है कि भाग्य भी उन लोगों का साथ देता है जो कर्म करते हैं। किसी खुरदरे पत्थर को चिकना बनाने के लिए हमें उसे रोज घिसना पड़ेगा। ऐसा ही जिंदगी में समझें हम जिस भी क्षेत्र में हों, स्तर पर हों हम अपना कर्म करते रहें बिना फल की चिंता किए। जैसे परीक्षा देने वाले विद्यार्थी परीक्षा देने के बाद उसके परिणाम का इंतजार करते हैं।

यह अंतहीन बहस है कि भाग्य बड़ा है या कर्म। इसके बारे में सबके पास अपने अपने तर्क हैं, लेकिन हर हाल में हमें सकारात्मक सोच के साथ जीवन में कुछ उल्लेखनीय करने के लिए प्रेरणा लेनी चा‍हिए। 




Priyatam Kumar Mishra

Friday, February 15, 2013

क्यों होता है दीपावली पर लक्ष्मी-गणेश पूजन?



                                                        


गणेश-लक्ष्मी पूजन की कथा

एक बार की बात है, एक राजा ने किसी लकड़हारे पर प्रसन्न होकर उसे चंदन की लकड़ी का पूरा जंगल दे दिया। लेकिन लकड़हारा बुद्धू और गंवार था। वह चंदन की लकड़ी का महत्व नहीं समझता था। धीरे-धीरे उसने पूरा जंगल साफ कर दिया और पुनः अपनी बदहाल अवस्था में पहुंच गया क्योंकि वह सारी लकड़ियां भोजन पकाने में जला चुका था। 

राजा ने सोचा यह सच है कि बुद्धि होती है तभी लक्ष्मी अर्थात धन का संचय किया जा सकता है। गणपति बुद्धि के स्वामी हैं, बुद्धि-दाता हैं। यही कारण है कि लक्ष्मी एवं गणपति की एक साथ पूजा का विधान है ताकि धन और बुद्धि एक साथ मिलें। 

एक अन्य कथा के अनुसार, एक बार एक साधु के मन में राजसी सुख भोगने का विचार आया। यह सोचकर उसने लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए घोर तपस्या शुरू कर दी। लक्ष्मीजी प्रसन्न हुईं और उसे मनोवांछित वरदान दे दिया। वरदान को सफल करने के लिए वह साधु एक राजा के दरबार में पहुंचा और सीधा सिंहासन के पास पहुंचकर झटके से राजा का मुकुट नीचे गिरा दिया। 

यह देखकर राजा और सभासदों की भृकुटियां तन गईं। किंतु तभी मुकुट में से एक विषैला सर्प निकला। यह देखकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ और सोचा कि इस साधु ने सर्प से उसकी रक्षा की है। इसलिए उसे अपना मंत्री बना लिया।

एक बार साधु ने सभी को फौरन राजमहल से बाहर जाने को कहा। राजमहल में सभी उनके चमत्कार को नमस्कार करते थे। इसलिए सभी ने राजमहल खाली कर दिया। अगले ही क्षण वह धड़धड़ाता हुआ खडंहर बन गया। सभी ने उसकी प्रंशसा की। अब साधु के कहे अनुसार सभी कार्य होने लगे। यह सब देखकर साधु के मन में अहंकार उत्पन्न हो गया और वह स्वयं के आगे सबको तुच्छ समझने लगा। 

एक दिन राजमहल के एक कक्ष में उसने गणेशजी की प्रतिमा देखी। उसने आदेश देकर वह मूर्ति वहां से हटवा दी। एक दिन दरबार लगा था। साधु ने राजा से कहा- “महाराज! आप अपनी धोती तुरंत उतार दें, इसमें सर्प है।” राजा उनका चमत्कार पहले भी देख चुका था, इसलिए उसने धोती उतार दी। लेकिन उसमें सर्प नहीं निकला। 

यह देख राजा को बहुत क्रोध आया। उसने साधु को काल कोठरी में डलवा दिया। साधु पुनः तप करने लगा। स्वप्न में लक्ष्मी ने उससे कहा-“मूर्ख! तूने राजमहल से गणेशजी की मूर्ति हटवा दी। वे बुद्धि के देवता हैं। तूने उन्हें रुष्ट कर दिया, इसलिए उन्होंने तेरी बुद्धि हर ली।”   

साधु को अपनी गलती का पता चला। तब उसने गणपति को प्रसन्न किया। गणपति के प्रसन्न होते ही राजा कालकोठरी में गया और साधु से क्षमा मांग कर उसे पुनः मंत्री बना दिया। मंत्री बनते ही साधु ने गणपति को पुनः स्थापित किया। साथ ही वहां लक्ष्मी की मूर्ति भी स्थापित की। 

 इस प्रकार कहा गया है कि धन के लिए बुद्धि का होना आवश्यक है। दोनों साथ होंगी तभी मनुष्य सुख एवं समृद्धि में रह सकता है। यही कारण है कि दिवाली पर लक्ष्मी एवं गणेश के रूप में धन एवं बुद्धि की पूजा होती है। 





Priyatam Kumar Mishra

लक्ष्मी के साथ सरस्वती और गणेश की पूजा जरूरी क्यों


दिवाली पर हम लक्ष्मी की पूजा करते है। लेकिन लक्ष्मी के पूजन के साथ हम चित्र में मौजूद गणेश और सरस्वती की भी पूजा करते है। आखिर लक्ष्मी, सरस्वती और गणपति में क्या रिश्ता है कि तीनों देवी-देवता एक साथ पूजे जाते है। इसके अलावा कमल पर बैठी लक्ष्मी, पीछे दो हाथी भी हमें कई बातें बताते है। आइये जानते है कि यह चित्र हमें क्या सिखाता है।
सरस्वती ज्ञान की देवी हैं और गणपति बुद्वि के देवता है। अगर हम धन के लिए लक्ष्मी का आवाहन करते है तो सरस्वती और गणेश को भी बुलाएं। धन आने पर उसे अपने ज्ञान से संभालें और बुद्वि के उपयोग से उसे निवेश करे। इससे लक्ष्मी का
स्थायी निवास होगा।
अगर हम गौर करें तो दिवाली पर इसी चित्र की पूजा की जाती है। सरस्वती लक्ष्मी की दांयी और गणपति बांई ओर बैठे है। मानव का दांयी ओर का मस्तिष्क ज्ञान के लिए होता है। उस ओर हमारा ज्ञान एकत्र होता है और बांई ओर का मस्तिष्क रचनात्मक होता है। गणपति बुद्वि के देवता है। हमारी बुद्वि रचनात्मक होनी चाहिए। लक्ष्मी कमल के फूल पर बैठी हैं कमल को सबसे पवित्र फूल माना गया है। इसका अर्थ हम जिस जरिए से धन कमाते हैं वह बहुत पवित्र होना चाहिए।


Priyatam Kumar Mishra

Wednesday, January 30, 2013

प्रभु की प्रार्थना आत्मा को परमात्मा बनाने का एक 'कीमिया' है


प्रभु की प्रार्थना आत्मा को परमात्मा बनाने का एक 'कीमिया' है। आत्मा ईश्वर का ही अंश होने से स्वयं शुद्धात्मा होती है किंतु कर्मों की संगति के कारण अशुद्ध होकर भवभ्रमण के अनंत चक्र में फँसकर सुख-दुख भोगती रहती है। फिर परमात्मा का अंश होते हुए भी वह परमात्मा से अलग या दूर हो जाती है और कष्ट भोगने पर बाध्य हो जाती है। 
पानी की एक बूँद सागर से अलग होकर जिस प्रकार एक बूँद मात्र हो जाती है और जब वही बूँद सागर में विलीन हो जाती है तो सागर बन जाती है। परमात्मा सर्वव्यापी है। वह सब जानता है। उसे हमारे हर पल की खबर होती है। इसलिए जब भी उससे प्रार्थना करें तो कोई माँग उसके सामने नहीं रखे अन्यथा वह प्रार्थना नहीं होकर हमारी माँगें पूरी करने की याचना मात्र होकर रह जाएगी। 
प्रार्थना में कोई माँग नहीं होती। केवल प्रभु के उपकारों की कृतज्ञता का ज्ञापन तथा उसके पावन चरण में शरण या संपूर्ण समर्पण की भावना का हृदय की भाषा में प्रकटीकरण होता है। यह आँखों में आए प्रेम-विह्वलता के दो आँसुओं के रूप में प्रकट होता है। 
किसी व्यक्ति का सच्चा समर्पण ही उसके कर्मों से उसकी मुक्ति का आलंबन बनता है और जब प्रभु की करुणा की बरसात जब व्यक्ति पर निरंतर होने लगती है तो काम-क्रोध, लोभ-मोह, मान-माया आदि के सारे कलुष ऐसे बह जाते हैं, जैसे भारी बरसात सारी गंदगी को अपने साथ बहा ले जाती है। 
ND
फिर बचा रहता है अकलुषित निर्मल पवित्र हृदय जिसमें उग आता है आस्था का अखंड खुशबू वाला कमल जिस पर अपने आराध्य परमात्मा स्वयं आ विराजित होते हैं। जब परमात्मा स्वयं हमारे हृदय-कमल पर विराजित हो जाते हैं, तब आत्मा तथा परमात्मा की दूरियाँ समाप्त होकर संपूर्ण समर्पण से बूँद सागर में विलीन होकर मुक्ति या मोक्ष को प्राप्त कर लेती है। 
काम-क्रोध, लोभ-मोह आदि शत्रुओं से घिरा मन कभी प्रभु को पा लेने जैसे उत्कृष्ट भाव का विचार तो ठीक, स्वप्न भी नहीं देखता है, क्योंकि जन्म-जन्म की हमारी काम-क्रोध व मोह की बेड़ियाँ हमें उनसे मुक्त ही नहीं होने देतीं। तब प्रभु की प्राप्ति असंभव-सी लगती है। इसलिए सच्ची प्रार्थना वही है, जो निःस्वार्थ भाव से पूरे समर्पण के साथ की जाए। इससे ही आत्मा का रूपांतरण होना संभव है।



Priyatam Kumar Mishra

जीवन का पथ आसान नहीं होता है।

जीवन का पथ आसान नहीं होता है। शुरू से लेकर अंत तक जीवन जिम्मेदारियों से भरा होता है। इस जिम्मेदारी में चूक का मतलब है जीवन पथ को और मुश्किल बनाना। पारिवारिक दायित्व आने पर यह जिम्मेदारी और बढ़ जाती है।पारिवारिक दायित्व आ जाने पर सबसे बड़ी जिम्मेदारी है अपने बच्चे को सही दिशा की ओर ले जाना। 
इसके लिए सबसे जरूरी यह है कि माता-पिता अपने जीवन में ऐसा आदर्श पेश करें जिसका अनुकरण कर उसका बच्चा खुद को गौरवान्वित महसूस कर सके। और इसके लिए सबसे जरूरी है शिक्षा। शिक्षा का महत्व समाज के निर्माण में महत्वपूर्ण है। इसके बिना आदर्श समाज की कल्पना नहीं की जा सकती। माता-पिता को चाहिए कि अपने बच्चे को सबसे पहले बाल विकास कक्षा में दाखिला दिलवाएँ। इसके अलावा माता-पिता को अपने बच्चे के साथ सदैव आदर्श व्यवहार करना चाहिए। 
हाँ, इसके लिए यह भी जरूरी है कि बच्चे की माँ और पिता में किसी तरह का कोई मतभेद नहीं हो। यानी बच्चे के लिए जो राय पिता की बनती है वहीं माँ की भी बननी चाहिए। एक निश्चित उम्र के बाद बच्चे माँ-बाप की बात मानने से इनकार करने लगते हैं। 

ND
इसका मतलब यह नहीं कि बच्चे में दोष है बल्कि हम उसके सामने सही मार्ग पर ईमानदारी से नहीं चल पाए। कहीं न कहीं इसके लिए हम खुद जिम्मेदार हैं। हमारे आदर्श पथ से भटकने का मतलब है कि बच्चा भी अपना सही रास्ता छोड़ सकता है। इसलिए हमें अपने पथ दृढ़ता के साथ पूरी ईमानदारी, सूझबूझ और चतुराई से चलना चाहिए। 
कुछ परिवारों में माता और पिता में एक राय नहीं बन पाती। माता-पिता की एकता में इस कमी के कारण बच्चों में गलत संदेश जाता है। माता-पिता को चाहिए कि बच्चों को ऐसी शिक्षा दें जिससे वह एक आदर्श पथ का अनुकरण कर सके। उसे सत्य की राह पर चलने के लिए प्रेरित करें। क्योंकि किसी भी चीज का मूलभूत आधार सत्य ही है। 'सत्यम्‌ शांति परो धर्मा' अर्थात सत्य के आचरण से बढ़कर कोई धर्म बड़ा नहीं होता। अगर हम सत्य के रास्ते पर चलते हैं तो निसंदेह हमारे देश में शांति और समृद्धि कायम होगी। 
मनस्यकामं, वचनस्यकामं कर्मण्यकामं महात्मानं अर्थात धार्मिकता से ही शांति आती है और शांति से प्रेम प्रकट होता है अर्थात जिसका कर्म, वचन और विचार में समानता होती है वह महान होता है। इनमें फर्क इंसान को गलत रास्ते की तरफ अग्रसर करता है। हमें अपने बच्चे को सत्य की सीख देने से पहले खुद अपने दैनिक जीवन में सत्य को उतारना चाहिए। हमें आत्मा की गहराई से सत्य का आचरण करना चाहिए। कृत्रिम जीवन नहीं जीना चाहिए। 
आज के युग में अकसर देखा जाता है कि शिक्षा को भी कृत्रिम बना दिया गया है। बच्चों में मंत्रों का भजन, ध्यान, चिंतन का समावेश कराना चाहिए ताकि पढ़ाई में कृत्रिमता से बचा जा सके। वे कहते हैं कि ईश्वर की तरफ ध्यान देकर अपने मन को नियंत्रित किया जा सकता है। ध्यान का मतलब यह नहीं कि आँखें बंद कर लीजिए और पैर मोड़कर बैठ जाइए। ईश्वर के ध्यान के लिए मन को नियंत्रित करना आवश्यक है। मनः इवा मनुष्यामं कर्मम बंधोआमोक्षयः अर्थात मन मनुष्य की उदारता और बंधन का कारण होता है। 
प्रेम सत्य है और सत्य ही प्रेम है। परंतु यह शारीरिक या शब्दों का प्रेम नहीं होना चाहिए। हमें अपनी आत्मा में आध्यात्मिक प्रेम को बसाना चाहिए। यदि हम प्रेम को ईश्वर की तरफ ले जाते हैं तो हमारा मन आसानी से 

नियंत्रित होने लगता है।



Priyatam Kumar Mishra