Wednesday, January 30, 2013

प्रभु की प्रार्थना आत्मा को परमात्मा बनाने का एक 'कीमिया' है


प्रभु की प्रार्थना आत्मा को परमात्मा बनाने का एक 'कीमिया' है। आत्मा ईश्वर का ही अंश होने से स्वयं शुद्धात्मा होती है किंतु कर्मों की संगति के कारण अशुद्ध होकर भवभ्रमण के अनंत चक्र में फँसकर सुख-दुख भोगती रहती है। फिर परमात्मा का अंश होते हुए भी वह परमात्मा से अलग या दूर हो जाती है और कष्ट भोगने पर बाध्य हो जाती है। 
पानी की एक बूँद सागर से अलग होकर जिस प्रकार एक बूँद मात्र हो जाती है और जब वही बूँद सागर में विलीन हो जाती है तो सागर बन जाती है। परमात्मा सर्वव्यापी है। वह सब जानता है। उसे हमारे हर पल की खबर होती है। इसलिए जब भी उससे प्रार्थना करें तो कोई माँग उसके सामने नहीं रखे अन्यथा वह प्रार्थना नहीं होकर हमारी माँगें पूरी करने की याचना मात्र होकर रह जाएगी। 
प्रार्थना में कोई माँग नहीं होती। केवल प्रभु के उपकारों की कृतज्ञता का ज्ञापन तथा उसके पावन चरण में शरण या संपूर्ण समर्पण की भावना का हृदय की भाषा में प्रकटीकरण होता है। यह आँखों में आए प्रेम-विह्वलता के दो आँसुओं के रूप में प्रकट होता है। 
किसी व्यक्ति का सच्चा समर्पण ही उसके कर्मों से उसकी मुक्ति का आलंबन बनता है और जब प्रभु की करुणा की बरसात जब व्यक्ति पर निरंतर होने लगती है तो काम-क्रोध, लोभ-मोह, मान-माया आदि के सारे कलुष ऐसे बह जाते हैं, जैसे भारी बरसात सारी गंदगी को अपने साथ बहा ले जाती है। 
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फिर बचा रहता है अकलुषित निर्मल पवित्र हृदय जिसमें उग आता है आस्था का अखंड खुशबू वाला कमल जिस पर अपने आराध्य परमात्मा स्वयं आ विराजित होते हैं। जब परमात्मा स्वयं हमारे हृदय-कमल पर विराजित हो जाते हैं, तब आत्मा तथा परमात्मा की दूरियाँ समाप्त होकर संपूर्ण समर्पण से बूँद सागर में विलीन होकर मुक्ति या मोक्ष को प्राप्त कर लेती है। 
काम-क्रोध, लोभ-मोह आदि शत्रुओं से घिरा मन कभी प्रभु को पा लेने जैसे उत्कृष्ट भाव का विचार तो ठीक, स्वप्न भी नहीं देखता है, क्योंकि जन्म-जन्म की हमारी काम-क्रोध व मोह की बेड़ियाँ हमें उनसे मुक्त ही नहीं होने देतीं। तब प्रभु की प्राप्ति असंभव-सी लगती है। इसलिए सच्ची प्रार्थना वही है, जो निःस्वार्थ भाव से पूरे समर्पण के साथ की जाए। इससे ही आत्मा का रूपांतरण होना संभव है।



Priyatam Kumar Mishra

जीवन का पथ आसान नहीं होता है।

जीवन का पथ आसान नहीं होता है। शुरू से लेकर अंत तक जीवन जिम्मेदारियों से भरा होता है। इस जिम्मेदारी में चूक का मतलब है जीवन पथ को और मुश्किल बनाना। पारिवारिक दायित्व आने पर यह जिम्मेदारी और बढ़ जाती है।पारिवारिक दायित्व आ जाने पर सबसे बड़ी जिम्मेदारी है अपने बच्चे को सही दिशा की ओर ले जाना। 
इसके लिए सबसे जरूरी यह है कि माता-पिता अपने जीवन में ऐसा आदर्श पेश करें जिसका अनुकरण कर उसका बच्चा खुद को गौरवान्वित महसूस कर सके। और इसके लिए सबसे जरूरी है शिक्षा। शिक्षा का महत्व समाज के निर्माण में महत्वपूर्ण है। इसके बिना आदर्श समाज की कल्पना नहीं की जा सकती। माता-पिता को चाहिए कि अपने बच्चे को सबसे पहले बाल विकास कक्षा में दाखिला दिलवाएँ। इसके अलावा माता-पिता को अपने बच्चे के साथ सदैव आदर्श व्यवहार करना चाहिए। 
हाँ, इसके लिए यह भी जरूरी है कि बच्चे की माँ और पिता में किसी तरह का कोई मतभेद नहीं हो। यानी बच्चे के लिए जो राय पिता की बनती है वहीं माँ की भी बननी चाहिए। एक निश्चित उम्र के बाद बच्चे माँ-बाप की बात मानने से इनकार करने लगते हैं। 

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इसका मतलब यह नहीं कि बच्चे में दोष है बल्कि हम उसके सामने सही मार्ग पर ईमानदारी से नहीं चल पाए। कहीं न कहीं इसके लिए हम खुद जिम्मेदार हैं। हमारे आदर्श पथ से भटकने का मतलब है कि बच्चा भी अपना सही रास्ता छोड़ सकता है। इसलिए हमें अपने पथ दृढ़ता के साथ पूरी ईमानदारी, सूझबूझ और चतुराई से चलना चाहिए। 
कुछ परिवारों में माता और पिता में एक राय नहीं बन पाती। माता-पिता की एकता में इस कमी के कारण बच्चों में गलत संदेश जाता है। माता-पिता को चाहिए कि बच्चों को ऐसी शिक्षा दें जिससे वह एक आदर्श पथ का अनुकरण कर सके। उसे सत्य की राह पर चलने के लिए प्रेरित करें। क्योंकि किसी भी चीज का मूलभूत आधार सत्य ही है। 'सत्यम्‌ शांति परो धर्मा' अर्थात सत्य के आचरण से बढ़कर कोई धर्म बड़ा नहीं होता। अगर हम सत्य के रास्ते पर चलते हैं तो निसंदेह हमारे देश में शांति और समृद्धि कायम होगी। 
मनस्यकामं, वचनस्यकामं कर्मण्यकामं महात्मानं अर्थात धार्मिकता से ही शांति आती है और शांति से प्रेम प्रकट होता है अर्थात जिसका कर्म, वचन और विचार में समानता होती है वह महान होता है। इनमें फर्क इंसान को गलत रास्ते की तरफ अग्रसर करता है। हमें अपने बच्चे को सत्य की सीख देने से पहले खुद अपने दैनिक जीवन में सत्य को उतारना चाहिए। हमें आत्मा की गहराई से सत्य का आचरण करना चाहिए। कृत्रिम जीवन नहीं जीना चाहिए। 
आज के युग में अकसर देखा जाता है कि शिक्षा को भी कृत्रिम बना दिया गया है। बच्चों में मंत्रों का भजन, ध्यान, चिंतन का समावेश कराना चाहिए ताकि पढ़ाई में कृत्रिमता से बचा जा सके। वे कहते हैं कि ईश्वर की तरफ ध्यान देकर अपने मन को नियंत्रित किया जा सकता है। ध्यान का मतलब यह नहीं कि आँखें बंद कर लीजिए और पैर मोड़कर बैठ जाइए। ईश्वर के ध्यान के लिए मन को नियंत्रित करना आवश्यक है। मनः इवा मनुष्यामं कर्मम बंधोआमोक्षयः अर्थात मन मनुष्य की उदारता और बंधन का कारण होता है। 
प्रेम सत्य है और सत्य ही प्रेम है। परंतु यह शारीरिक या शब्दों का प्रेम नहीं होना चाहिए। हमें अपनी आत्मा में आध्यात्मिक प्रेम को बसाना चाहिए। यदि हम प्रेम को ईश्वर की तरफ ले जाते हैं तो हमारा मन आसानी से 

नियंत्रित होने लगता है।



Priyatam Kumar Mishra

Monday, July 16, 2012

जीवन मंत्र


स्पष्ट और शांत दिमाग रखें:
हममें से अधिकांश जरा सी समस्या सामने आने या कुछ गलत हो जाने मात्र से ही घबरा जाते हैं। हमारा ब्लड प्रेशर बढ़ जाता है। हम नर्वस हो जाते हैं। हमारा अंग-प्रत्यंग शिथिल सा होने लगता है। इसका सीधा असर हमारी सोचने की शक्ति पर पड़ता है। होना यह चाहिए कि संकट के समय हमें अन्य स्थितियों या समय की अपेक्षा और अधिक प्रभावी ढ़ंग से कार्य करना चाहिए। दिमाग को शांत करने कासबसे सरल उपाय है- ठंडा पानी पीना। गहरी-गहरी सांस लें और ध्यान-योग का सहारा लेते हुए हल्की आवाज में मधुर संगीत सुनें। इन उपायों को अपनाने के पश्चात आप स्वयं महसूस करेंगे कि आप उस समस्या से सकारात्मक ढ़ंग से जूझने के लिए बिलकुल तैयार हो गए हैं।
समस्याएं सूचीबद्ध करें:
अपनी हर समस्या को अपनी डायरी पर लिख लें और स्वयं को बद से बदतर स्थितिके लिए तैयार रखें। इन समस्याओं के साथ ही जीवन में आपकों जो भी कुछ हासिलहुआ हैजिससे आपको संतुष्टि और खुशी मिलती होउसे भी अपनी डायरी में लिखलें। उदाहरण के लिए- अपनी उन्नतिस्वास्थ्य एवं व्यक्तित्व से जुडी बातें। इसके लिए ईश्वर को धन्यवाद देते हुए इसका भी उल्लेख अपनी डायरी में करें। इसका सकारात्मक प्रभाव यह होगा कि आपका दिमाग समस्याओं से हटकर जीवन से जुड़ी अच्छी बातों और शक्तियों के बारे में सोचने लगेगा। इससे आपके दिमाग में ऊर्जा का संचार होगा और वह समस्याओं के निराकरण में अच्छी तरह से सोच सकेगा।
दूसरे भी समस्याग्रस्त हैं:
संभव है कि समस्या का सामना करते ही आपको अपना जीवन ही सर्वाधिकसंकटग्रस्त लगे। परन्तु इस क्रम में यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि प्रत्येक इंसान को समस्याएं घेरती ही हैं। इनसे न कोई बचा है और न ही कोई बचेगा। फिर इनसे घबराना कैसा आपकी तरह ही तमाम अन्य लोग भी किसी न किसी समस्या से ग्रस्त हैं और उनसे जूझ रहे हैं।
बच्चों को प्यार देना न भूलें:
समस्या से दो-चार होते ही अधिकांश अभिभावक सबसे पहले उसकी खीझ और कुंठाअपने बच्चों पर उतारते हैं। हालांकि बाद में इसका अपराधबोध भी होता हे। यहअपराधबोध आपमें निराशा और क्रोध का इजाफा होता है। इसलिए बच्चों के साथपहले जैसा पूर्ववत प्रेमपूर्ण व्यवहार बनाए रखें। इसका सकारात्मक प्रभाव यह होगा कि आपके बच्चों में मजबूत और दृढ़ इच्छा-शक्ति की भावना सुदृढ़ होगी।
छोटी बातों में तलाशें खुशियां:
समस्याओं से घिरकर भी छोटी-छोटी बातों में खुशियों को तलाशें। अक्सर लोगसमस्याग्रस्त होने पर अपनी दिनचर्या अस्त-व्यस्त कर लेते हैं। अगर वे बच्चों की मुस्कान पर आनन्द लें तो उनका व्याकुल मंन प्रसन्न-चित्त हो जाएगा। इसी तरह छोटी-छोटी बातों में आनन्द लें तो समस्या हल करने में उनका चित्त लगेगा।
अपनी दिनचर्या न छोड़ें:
किसी समस्या के सिर उठाने पर कुछ लोग अपना दैनिक व्यक्तिगत जीवन भूलजाते है और उसी समस्या को लेकर चिन्ताग्रस्त रहते हैं। अगर आप चाहते हैं किआपकी समस्या का समाधान हो तो सबसे पहले आप अपने को दु:ख एवं चिन्ता केसागर में डुबोने के बजाय नियमित दिनचर्या का पहले की तरह ही पालन करें। इससे एक तो सामान्य स्थिति का अहसास होगा और दूसरे व्यस्त रहने से कुछ देर के लिए ही सही दुश्चिन्ताओं से मुक्ति मिलेगी।
रात के बाद सुबह आती है:
अपने को इस तथ्य से सदैव अवगत कराते रहें कि हर रात के बाद सुबह आती है।वक्त का कोई दौर स्थाई नहीं होता। स्थितियां अच्छे के लिए ही आकार लेती हैं। घैर्य और सकारात्मक नजरिए से स्थितियां अनुकूल बनाने में देर नहीं लगती हैं।
अपनी क्षमता को पहचानें:
विपरीत परिस्थितियों से गुजर कर ही इंसान मजबूत बनता है। ठीक वैसे ही जैसे आग में तपकर सोना और निखरता है। समस्याओं को चुनौती के रूप में लें औरस्वयं को दबाब और तनाव में बिखरने न दें। जितनी चुनौतियों का आप सामनाकरेंगेउतने ही आप मजबूत होते जाएंगे। यानि तब समस्याएं आपको न तो हिलापाएंगी और न ही डिगा पाएंगी।






Priyatam Kumar Mishra

शिव के बारह ज्योतिर्लिंग

शिव के बारह ज्योतिर्लिंग~~~

भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंग देश के अलग-अलग भागों में स्थित हैं। इन्हें द्वादश ज्योतिर्लिंग के नाम से जाना जाता है।

इन ज्योतिर्लिंग के दर्शन, पूजन, आराधना से भक्तों के जन्म-जन्मातर के सारे पाप व दुष्क्रत्य समाप्त हो जाते हैं। वे भगवान शिव की कृपा के पात्र बनते हैं। 

श्री सोमनाथ
श्री मल्लिकार्जुन
श्री महाकालेश्वर
श्री ओंकारेश्वर-श्री ममलेश्वर
श्री केदारनाथ
श्री विश्वनाथ
श्री त्र्यम्बकेश्वर
श्री वैद्यनाथ
श्री नागेश्वर
श्री रामेश्वर
श्री घुश्मेश्वर
श्री भीमेश्वर
शिव के आठ स्वरुप~~~


सृष्टि संचालन के लिए शिव आठ रूप धारण किए हुए हैं। चराचर विश्व को पृथ्वी रूप धारण करते हुए वह शर्व अथवा सर्व हैं। सृष्टि को संजीवन रूप प्रदान करने वाले जलमयरूप में वह भव हैं। सृष्टि के भीतर और बाहर रहकर सृष्टि स्पंदित करने वाला उनका रूप उग्र है। सबको अवकाश देने वाला, नृपोंके समूह का भेदक सर्वव्यापी उनका आकाशात्मकरूप भीम कहलाता है। संपूर्ण आत्माओं का अधिष्ठाता, संपूर्ण क्षेत्रवासी, पशुओं के पाश को काटने वाला शिव का एक रूप पशुपति है। 

सूर्य रूप से आकाश में व्याप्त समग्र सृष्टि में प्रकाश करने वाले शिव स्वरूप को ईशान कहते हैं। रात्रि में चंद्रमा स्वरूप में अपनी किरणों से सृष्टि पर अमृत वर्षा करता हुआ सृष्टि को प्रकाश और तृप्ति प्रदान करने वाला उनका रूप महादेव है। शिव का जीवात्मा रूप रुद्र कहलाता है। सृष्टि के आरंभ और विनाश के समय रुद्र ही शेष रहते हैं। सृष्टि और प्रलय, प्रलय और सृष्टि के मध्य नृत्य करते हैं। जब सूर्य डूब जाता है, प्रकाश समाप्त हो जाता है, छाया मिट जाती है और जल नीरव हो जाता है उस समय यह नृत्य आरंभ होता है। तब अंधकार समाप्त हो जाता है और ऐसा माना जाता है कि उस नृत्य से जो आनंद उत्पन्न होता है वही ईश्वरीय आनंद है। 


शिव,महेश्वर, रुद्र, पितामह, विष्णु, संसार वैद्य, सर्वज्ञ और परमात्मा उनके मुख्य आठ नाम हैं। तेईस तत्वों से बाहर प्रकृति,प्रकृति से बाहर पुरुष और पुरुष से बाहर होने से वह महेश्वर हैं। प्रकृति और पुरुष शिव के वशीभूत हैं। दु:ख तथा दु:ख के कारणों को दूर करने के कारण वह रुद्र कहलाते हैं। जगत के मूर्तिमान पितर होने के कारण वह पितामह, सर्वव्यापी होने के कारण विष्णु, मानव के भव रोग दूर करने के कारण संसार वैद्य और संसार के समस्त कार्य जानने के कारण सर्वज्ञ हैं। अपने से अलग किसी अन्य आत्मा के अभाव के कारण वह परमात्मा हैं। ॐ नमोः शिव सांई~~~

पतित पावन परम पिता परमात्मा शिव,
गीता ज्ञान दाता दिव्य चक्षु विधाता शिव~~~


'शि' का अर्थ है पापों का नाश करने वाला और 'व' कहते हैं मुक्ति देने वाले को। भोलेनाथ में ये दोनों गुण हैं इसलिए वे शिव कहलाते हैं। -ब्रह्मवैवर्त पुराण

ॐ नमोः शिव सांई~~~  

शंकर शिव शम्भु साधु संतन हितकारी ॥

लोचन त्रय अति विशाल सोहे नव चन्द्र भाल ।
रुण्ड मुण्ड व्याल माल जटा गंग धारी ॥

पार्वती पति सुजान प्रमथराज वृषभयान ।
सुर नर मुनि सेव्यमान त्रिविध ताप हारी ॥









Priyatam Kumar Mishra

Wednesday, July 11, 2012


दोनों पति और पत्नी का पृथक्‌-पृथक्‌ ही नहीं, सम्मिलित प्रभाव भी समाज पर पड़ता है । समाज भी इनको अपने प्रभाव में ढ़ालने के लिए यत्नशील रहता है। पति अधिकारी, कर्मचारी, व्यापारी, प्राघ्यापक, अधिवक्ता, अभियन्ता, चिकित्सक आदि किसी भी क्षमता से जब अपने कार्य-स्थल पर पहुंचता है और यदि वह किंचित्‌ असामान्य या विवादयुक्त व्यवहार करता है तो लोग यही कहते हैं,लगता है आज श्रीमान घर से लड़ कर आये हैं। ऐसे ही यदि वे घर में असामान्य व्यवहार करते हैं, तो कहा जाता है कि श्रीमान कार्यालय में झगड़ कर आये हैं। इस प्रकार परिवार से समाज, समाज से परिवार तक व्यक्तित्व के विकास-ह्रास की ये द्विपथी प्रणाली निरंतर चलती रहती है और अनजाने ही हम अपना एक निश्चित रूप निर्धारण कर लेते हैं।

आपके हाथ में एक फूल है-रंगीन व सुगंधित, या आपके हाथ में एक फल है सुन्दर और स्वादु। इनके गुणों की क्या गणना ! एक फूल या फल यों ही नहीं बन गया। इसके पीछे एक पादप था। पादप में जड़ें, शाखायें, टहनियां व पत्तियां थी। इनके भी पीछे माली का पोषण और प्रशिक्षण था। इसी प्रकार मधुर जीवन-व्यवहार और लोकप्रिय आकर्षक व्यक्तित्व के निर्माण में कोई एक ही तत्व नहीं, अपितु अनेक कारकों का समावेश होता है।

क्षण-क्षण के वाक्यबाण घर-परिवार-समाज, यहां तक कि पति-पत्नी के व्यक्तित्व को प्रभावित करते हैं, इनको यदि उचित मोड़ दे दिया जाता है तो कुशल, अन्यथा उथल-पुथल हो जाती है । आकर्षक व्यक्तित्व के निर्माण में जिन तत्वों की अपरिहार्य सहभागिता है, उनका वर्णन इस वेद-मंत्र में हमें सहज ही मिल जाता है। देखियेः-


इडे रन्ते हव्ये काम्ये चन्द्रे ज्योति अदिते सरस्वति महि विश्रुति ।
एता ते अध्न्ये नामानि देवेभ्यो मा सुकृतं ब्रूतात्‌।। 


'इडे"-विद्यादि प्रशंसनीय गुण होना आवश्यक है। विद्या से ही कार्य में कुशलता आती है। कार्य-सक्षम होने पर भी अभिमान नहीं होना चाहिये। अभिमानी होने से सक्षम व्यक्ति से भी लोग दूर रहेंगे। विद्या-वृद्धि के साथ-साथ व्यक्ति में नम्रता-सुकोमलता का विकास वैसे ही होना चाहिए, जैसे फलों से लद जाने पर वृक्षों की टहनियां झुक जाती हैं। ऐसा व्यक्ति 'रन्ते" रमणीक-रमणीय सहज व सुन्दर हो जायेगा, तो अन्य लोग उससे श्रद्धा करेंगे और उसके समीप जायेंगे। कुशलता और कोमलता अथवा विद्या ये सुन्दरता - 'हव्ये" अर्थात्‌ हवि या रचनात्मक साधन-सामग्री से परिपूर्ण होनी चाहिये। विद्या-सुन्दरता या वस्तु भण्डार इनमें से कुछ या सब कुछ जब आपके पास होगा, तभी आपका 'काम्ये" कमनीय मनमोहक स्वरूप किसी को अपनी ओर आकर्षित कर सकेगा। लोग अपनी कोई कामना लेकर आपके पास आयेंगे। कामना पूर्ण कर देने पर फिर वही व्यक्ति 'चन्द्रे" अत्यंत आनन्द देने वाला बन जायेगा। चन्द्रमा की चन्द्रिका अपने शीतल प्रकाश के लिये प्रसिद्ध है। यह आदान-प्रदान की सूचक भी है। चन्द्रमा सूर्य से प्रकाश लेता है, पृथ्वी को देता भी है, वह भी सूर्य की प्रचण्ड उष्णता को समाप्त कर मोदमय शीतल स्वरूप में। चन्द्रमा चाहे द्वितीया का हो या पूर्णिमा का उसके राज्य में तारागण मुदते ही नहीं टिमटिमाते रहते हैं, जबकि सूर्य के राज्य में सब छिप जाते हैं, वह अकेला ही रह जाता है। 'चन्द्र" स्वभाव होने पर व्यक्ति 'ज्योति" श्रेष्ठ शील से ज्योतित हो उठेगा। अग्नि की ज्वाला भस्म कर देती है, परन्तु ज्योति प्रकाश ही नहीं देती, अपितु उसे पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाती है। एक दीपक से अनेक अनेक दीपक जलते रहते हैं । ज्वाला अपनी लपट में लपेटकर अपने आधार को राख करके स्वयं का अस्तित्व खो देती है, किन्तु दीपक की ज्योति एक परम्परा बन जाती है। परम्परागत त्याग की शक्ति विकसित होने पर व्यक्ति में 'अदिते" -आत्मिक दृढ़ता स्थापित होती है और साथ ही उसे अंधविश्वास एवं आडम्बर से रहित 'सरस्वती"-प्रशंसित विज्ञानमयी बुद्धि और सरस वाणी प्राप्त हो जाती है। यही सरस्वती व्यक्ति को ऊंचा उठाकर 'महि"-चरमोत्कर्ष,सफलता एवं उच्चता तक पहुंचा देती है। "महि' भूमि को भी कहते हैं, जिसका विशेष गुण क्षमा होता है। ''क्षमा बड़न को चाहिए छोटन को उत्पात"" की बात इसी से पूर्ण होती है। इससे यह भी संकेत मिलता है कि आकाश तक सिर ऊंचा उठ जाने पर भी चरण धरती पर जमे रह ने चाहिएं। ऊंचाईयों पर चढ़ने के बाद भी 'विश्रुति"-वेदाध्ययन-पठन-पाठन-स्वाध्याय और अच्छी-अच्छी बातें जानने के लिए अपने मस्तिष्क के द्वार बंद नहीं कर लेने चाहिएं।

उक्त क्रमानुसार जिस व्यक्ति का विकास होगा वह वास्तव में 'अघ्न्ये" अताड़नीय हो जायेगा। जिसका लोग आदर करेंगे, श्रद्धा रखेंगे, प्रेरणा व सहायता प्राप्त करेंगे उसे कौन मारेगा, प्रत्युत उसकी तो भरपुर रक्षा की जाएगी। ये वेद-वर्णित शब्द कोरे सिद्धान्त के बोधक नहीं, अपितु नितान्त व्यावहारिक पक्ष प्रस्तुत करते हैं । यदि पत्नि के नाम इडा, रन्ती, हविष्मती, चन्द्रमुखी, ज्योति, अदिति, सरस्वती, मही व श्रुति हो सकते हैं, तो पति के भी इडापति, रन्तिदेव, हविष्मन्त, चन्द्र, ज्योतिस्वरूप, आदित्य, सारस्वत, महीपति व श्रवण नाम हो सकते हैं, जैसे योग्य चिकित्सक एक आरोग्यकारी औषधि का निर्माण करने के लिए भांति-भांति की अनेक जड़ी-बूटियों का मिश्रण तैयार करता है और रोगी को एक छोटी पुड़िया पकड़ा देता है। उसी प्रकार यह वेदमंत्र भी अनेक प्रतीकों के योग से एक सूत्र का सृजन करता है, जो किसी भी व्यक्ति को लोकप्रिय बना सकता हैं। विद्या--रमणीयता--साधन सम्पन्नता--कामनापूर्ति--आनन्द आदान प्रदान--श्रेष्ठ शील युक्त सुकीर्ति--आत्मविश्वास की दृढ़ता--आडम्बर पाखण्डरहित बुद्धि व वाणी--उच्चता--आजीवन ज्ञानार्जन व गुण ग्रहण=लोकप्रिय मधुर व्यक्तित्व। यहां पर रेखा (--) के चिन्ह इसलिए अंकित किए गए हैं, क्योंकि एक प्रतीक के होने से दूसरा प्रतीक प्रकट होने लगता है और इन सभी प्रतीकों का महायोग ही लोकप्रियता का अंतिम परिणाम है। साथ ही एक प्रतीक की प्राप्ति का संकेत उससे अगले प्रतीक से होता है।





एक-एक ग्रास से हमारी भूख शान्त होती है। एक-एक दिन के भोजन से हमारा रक्त-मज्जा और ऊर्जा बनते हैं, पर धीरे-धीरे, एकदम नहीं। इस प्रकार मंत्र में व्यक्त अभिलक्षण भी व्यक्ति में शनैःशनैः प्रवेश करके उसके व्यक्तित्व को संस्कारित करते रहते हैं। उसे पता नहीं चल पाता है और वह महान्‌ जनप्रिय बन जाता है। कहा गया है-

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा ऋतु आये फल होय।।


पर फल टपकने में देर नहीं लगती है। व्यक्ति को ऊंचा उठने में समय लगता है, गिरने में देर नहीं लगती। अतएव उठने के बाद गिरने से बचने के लिए सावधानी अपरिहार्य है। ऊपरी मंजिलों पर सीढ़ी पर सीढ़ी चढ़ते हैं, पर गिरने पर सीढ़ियां एकदम छूटती चली जाती हैं । व्यक्ति यकायक धड़ाम से नीचे आ जाता है।

जीवन जीने के दो व्यवहारिक पक्ष स्पष्ट हैं । एक घर के भीतर, दूसरा घर के बाहर। दोनों एक दूसरे को पालित, पोषित और पल्लवित करते हैं। घर से निकलते समय पारिवारिक माधुर्य को साथ लेकर जायें और घर में प्रवेश के समय बाहर के कलुष को वैसे ही बाहर रहने दें, जैसे स्वादिष्ट फल का रस मुंह में और छिलका बाहर।

किसी व्यक्ति को पता चला कि अमुक परिवार में अमृत फल है। वे उसके दर्शन हेतु वहां पहुंचे। वहां एक कृशकाय अतिवृद्ध व्यक्ति से भेंट हुई, जिसने बताया कि अमृतफल मेरे यहां नहीं, मेरे बड़े भाई के यहां हैं। वे पर्वत की तलहटी में रहते हैं। वे सज्जन वहां भी पहुंच गए। एक अधेड़ व्यक्ति से भेंट हुई। उसने कहा कि अमृतफल मेरे पास था, किंतु अब नहीं है। हां, मेरे बड़े भाई जो पर्वत के ऊपर रहते हैें, उनके पास है। सज्जन चढ़ाई को पार कर वहां भी पहुंचे और देखकर विस्मित हो गए कि ये सबसे बड़ा भाई तो जवान है। उनसे भी अमृतफल की चर्चा हुई और बड़े भाई ने दर्शन कराने का आश्वासन दे दिया। उस सबसे बड़े भाई ने अतिथि का स्वागत सत्कार किया और कई दिन तक उनका आतिथ्य करते रहे। एक दिन वे सज्जन बोले, मुझे अमृतफल का आपके यहां आभास तो हो रहा है आपके घर की सुख, शंाति, संतोष को देखकर, पर कृपया दर्शन भी करा दे,ं ताकि मैं अपने नगर को प्रस्थान करूं। बड़े भाई ने भोजन परोसने आई अपनी पत्नी की ओर संकेत करके कहा कि यही हमारा अमृत फल है। अतिथि सज्जन को मझले भाई की विवशता स्मरण हो उठी, जब उनको एक बार ही भोजन कराने के लिए पत्नी की झाड़ सुननी पड़ती थी और सबसे छोटे भाई तो एक बार अल्पाहार भी नहीं करा सके थे, होटल में चायपान कराके क्षमा मांग ली थी। जबकि सबसे बड़े भाई के यहां सुलभ आतिथ्य सहर्ष मिला और यही इनकी जवानी का रहस्य भी है। गृहिणी या पत्नी रूपी फल तो सर्वत्र है, पर जहां वे अमृत फलरूप धारण कर लेती हैं, वहां मानव का व्यक्तित्व शालीन, सु्‌हृद्‌ एवं सौम्य बन जाता है और इस प्रकार परिवार के व्यवहार में संसार का श़ृंगार देदीप्यमान हो उठता है।







Priyatam Kumar Mishra

अनुकूल आचरण करे

जहां सहृदयता होगी, वहीं पर सांमनस्य पनप सकेगा अर्थात्‌ एक दूसरे के प्रति स्वाभाविक रूप से मन में शुभ विचारों की सृष्टि होंगी। चूंकि मन के अधीन सम्पूर्ण इन्द्रियां होती है इसलिए जैसे मन के विचार होते है वैसे ही अन्य सब इन्द्रियों के व्यवहार होते हैं। अतः अन्य सब इन्द्रियों से उत्तम और प्रशस्त व्यवहारों की सृष्टि उत्पन्न करने के लिए मन में शुभ विचारों का होना आवश्यक है तथा शुभ विचारों के लिए परस्पर मे सहृदयता की आवश्यकता होती है और सहृदयता तब उत्पन्न होती है जब मनुष्य विद्वेष को छोड़कर एक दूसरे के दुःख और सुख में दुःख और सुख का अनुभव करने लगे। ऐसा करने पर हमारे जीवन में अगला उपदेश सहज ही समा सकेगा। वह यह है कि तुम एक दूसरे को ऐसे चाहो-एक दूसरे से ऐसा स्नेहपूर्ण व्यवहार करो जैसे गौ अपने नवजात बछड़े से करती है।
पारिवारिक जीवन में आगे वेद परस्पर व्यावहारिक जीवन पर प्रकाश डालता है-

अनुव्रतः पितुः पुत्रो मात्रा भवतु संमनाः।
जाया पत्ये मधुवर्तीं वाचं वदतु शांतिवाम्‌।। 


पुत्र पिता का अनुव्रती-अनुकूल कर्म करने वाला अर्थात्‌ आज्ञाकारी हो और माता के साथ एक मन होकर आचरण करने वाला हो। पत्नी पति के प्रति मधुमयी शान्तिदायक वाणी बोले।

इस मन्त्र में वेद ने आदेश दिया है कि परिवार में पुत्र का कर्तव्य है कि वह पिता का अनुव्रती हो। इस वाक्य से पुत्री भी पिता के अनुकूल आचरण करे, ऐसा ग्रहण कर लेना चाहिए।

वेद के इस उपदेश से मनुष्य के मन में यह संदेह उत्पन्न हो सकता है कि क्या पिता की सभी आज्ञाओं का पालन करना चाहिए ? अनेक बार ऐसी घटनाएं देखी जाती हैं, जिनमें एक पिता पुत्र को गोदी में बिठाकर स्वयं बीड़ी पीता हुआ उसे भी पीने को प्रेरित करता हुआ प्यार से उसके मुख में अपने ही हाथ से बीड़ी रखता है। इसी प्रकार एक पिता अपने बेटे को अच्छे साहित्य के पड़ने और सत्संग में जाने से रोकता है,एक बेटे को मांस अण्डे खाने को प्रेरित करता है- यह सोचकर कि बेटा शक्तिशाली बनेगा इत्यादि। इस प्रकार के संदेहों का वेद ने बहुत ही सुन्दर रूप से निवारण कर दिया है। वेद ने यहां "अनुव्रत' शब्द दिया है, जिसका तात्पर्य यह है कि उसके पिता के जीवन में जो व्रत हों, श्रेष्ठ कर्म हों या उनके जो आदेश श्रेष्ठ हों ''व्रतमनु इति अनुव्रत"" उन्हीं के अनुकूल चलना, उन्हीं को मानना ही पुत्र का धर्म है। इसके विपरीत अपने पिता के असद्‌ उपदेशों और उलटे कार्यों का शिष्टाचार एवं मधुरता पूर्वक समझा-बुझाकर परित्याग करना ही उसका कर्तव्य है। इसी प्रकार पुत्र एवं पुत्री अपनी माता के मन से अपना मन एक करके अर्थात्‌ उनकी मनोभावनाओं का यथेष्ट सम्मान करते हुए व्यवहार करें।

परिवार में जहां माता-पिता अपनी आने वाली सन्तान से यह आशा रखें वहां उनका स्वयं का भी कर्तव्य है कि उनके सम्मुख जीवन में पग-पग पर अपने व्यवहार द्वारा ऐसा आदर्श उपस्थित करें कि जिसे देखकर उन्हें अर्थात्‌ बालकों को अपने माता-पिता पर गर्व अनुभव हो और वे अपने आपको भाग्यशाली समझें तथा प्रभु का हृदय से धन्यवाद करें, जिसने उन्हें ऐसे अच्छे आदर्श धार्मिक माता-पिता प्रदान किये। उनका संतान के प्रति उपदेश शब्दों से नहीं अपितु व्यवहारों से प्रस्फुरित हो। इसलिए वेद ने कहा कि पत्नी को पति से मधु के समान मधुर शान्तिमय सम्भाषण करना चाहिये और ऐसा ही पति को भी। पति-पत्नी का परस्पर का यह आदर्श दिव्य व्यवहार आने वाली यदि आवश्यकता पड़ने पर कुछ उपदेश भी माता-पिता द्वारा दिया जायेगा तो सन्तान उस उपदेश को श्रद्धापूर्वक शिरोधार्य करने में सुख अनुभव करेगी ।





वेद में पारिवारिक जीवन को सुखमय बनाने के लिए सामूहिक रूप में तथा व्यक्तिगत रूप में भी बहुत सी सुन्दर प्रेरणाएं दी गई हैं। इस प्रसंग में अर्थववेद के ''सांमनस्य सूक्त"" पर विचार किया जा रहा है। इस सूक्त में परस्पर मिलकर द्वेष भाव को छोड़कर इस प्रकार कार्य करने का उपदेश दिया गया है, जिससे हम सब में 'सांमनस्य" उत्पन्न हो, सबके मन में एकीकरण की भावना हो, सहृदयता हो । अर्थात्‌ एक दूसरे के दुःख में दुःख और सुख में सुख अनुभव करने की भावना सदा बढ़ती रहे। इस प्रकार के विस्तृत सामाजिक जीवन का आरम्भ घर से होता है।


उप नः सूनव गिरः श़ृण्वत्वमृतस्य ये.। सुमृडीका भवन्तु नः।। 

जो हमारी सन्तान हैं, पुत्र-पौत्रादि है, वे अमृतस्वरूप परमेश्वर की वेद वाणियों को गुरु चरण में बैठकर या ज्ञानी वेदज्ञ उपदेशक या संन्यासी महात्माओं के समीप बैठकर श्रवण करें, जिससे कि वे हमारे लिए सुखकर हों।
इस मन्त्र से एक उपदेश हमें यह मिलता है कि वेद के स्वाध्याय को अपना परमधर्म मानकर नित्य प्रति उसका स्वाध्याय करें, श्रवण, मनन और निदिध्यासन करें । समय-समय पर ज्ञानी वेदज्ञ विद्वानों एवं संन्यासी महात्माओं को अपने परिवारों में बुलाकर उनके प्रवचन कराएं, जिससे कि हमारी आने वाली संतति उन्हें सुने-समझे और उनके अनुकूल आचरण करे। इस प्रकार आचरण करने वाली सन्तति निःसन्देह हमारे लिए सुखकर होगी, यशस्कर होगी।

परिवार जन किस प्रकार परस्पर सहृदयता, सामंजस्य और अविद्वेष की भावना को अपने में उत्पन्न करें, इसका इस सूक्त के प्रथम मंत्र में वेद हमें उपदेश देता है-

सहृदयं सांमनस्यमविद्वेषं कृणोमि वः।
अन्यो अन्यमभिहर्यत वत्सं जातमिवाघ्न्या।।


हे मनुष्यो! मैं तुम्हारे विद्वेष भाव को दूर करता हूं और उसके स्थान पर तुममें सहृदयता तथा सांमनस्य को उत्पन्न करता हूं जिससे कि तुम्हारी एक-दूसरे के प्रति भावना और तुम्हारा एक-दूसरे के प्रति किया हुआ चिन्तन आत्मीयतापूर्वक हो। तुम परस्पर एक-दूसरे को ऐसे चाहो, ऐसे स्नेह करो, जैसे नवजात बछड़े को गौ माता स्नेह करती है।

इस मन्त्र के द्वारा वेद भगवान उपदेश देते हैं कि हे मनुष्यो ! तुम्हारे अन्दर किन्हीं भी कारणों से एक-दूसरे के प्रति वैर भाव आ गया है, जिसके कारण परस्पर में एक-दूसरे को देखकर तुम्हारे अ्रन्दर प्रीति या तृप्ति नहीं उत्पन्न होती, ऐसे विद्वेष भाव को मैं सर्वथा बाहर निकालकर तुम्हारे अन्दर वे भाव भरना चाहता हूं जिनके परिणामस्वरूप तुम्हें एक-दूसरे को देखकर ऐसी प्रीति, ऐसी तृप्ति अनुभव हो जैसी कि ग्रीष्म ऋतु में एक प्यासे को शीतल जल के प्राप्त हो जाने से मिल जाती है। इसके लिए मैं तुममें 'सहृदयता' लाना चाहता हूं। सहृदयता क्या है ? परिवार में एक-दूसरे के दुःख को देखकर दुःख और सुख को देखकर सुख अनुभव करना ही सहृदयता कहलाती है। जिस परिवार के सदस्यों में सहृदयता नहीं होती उस परिवार के सदस्यों में प्रीति अर्थात्‌ एक-दूसरे को देखकर तृप्ति का अनुभव होना असंभव है। इसलिए जो महानुभाव अपने परिवार में प्रीति की बेल बोना चाहते हैं, उन्हें उसकी जड़ों को सहृदयता के जल से सींचना होगा। तभी वह बेल हरी-भरी अर्थात्‌ फल-फूल सकेगी।







Priyatam Kumar Mishra

सुखी परिवार के वैदिक सूत्र

परिवार में मिल जुलकर प्रेमपूर्वक कार्य करने के परिणामस्वरूप घर में जो वैभव आए, उसके उपभोग में यदि कहीं भी भेदभाव आ गया, तो परिवार के संगठन को ठेस लगने की सम्भावना हो सकती है। अतः वेद अग्रिम मन्त्र में उपदेश देता है -

समानी प्रपा सह वःअन्नभागः समाने योक्त्रे सह वो युनज्मि।
सम्यञ्चः अडग्निं सपर्यतारा नाभिमिवाभितः।। 


हे परिवार में प्रेमपूर्वक निवास करने वाले मनुष्यो ! तुम्हारा दुग्धादि पदार्थों का पान समान हो, तुम्हारा भोजन एक जैसा हो और साथ-साथ हो अर्थात्‌ तुम्हारा खानपान एक जैसा हो, उसमें किसी प्रकार का भेदभाव न हो। प्रेमपूर्वक सब एक साथ मिलकर खाओ-पीओ, भले ही तुम्हारे पात्र पृथक्‌-पृथक्‌ हों। क्योंकि इस प्रकार मिलकर साथ बैठकर खाने का भी एक अपने ढंग का आनन्द है। एक जुए में, मैं तुम सबको साथ -साथ जोड़ता हूं अर्थात्‌ तुम सब अपने आपको एक ही परिवार के संगठन में ऐसे बंधा हुआ समझो, जैसे कि रथ की नाभि के चहुं ओर अरे जुडे हुए होते हैं। इस प्रकार तुम सब मिलकर एक दूसरे का आदर सम्मान करते हुए प्रकाश स्वरूप प्रभु की पूजा करो, अग्निहोत्र अर्थात्‌ यज्ञ करो अथवा मिलजुल कर एक जैसी संकल्पाग्नि को मन में प्रज्ज्वलित करो और उसमें अपनी-अपनी सेवा की आहुति प्रदान कर घर के वातावरण को सुगन्धित करो।

इस मन्त्र के आधार पर जिस परिवार में सभी मनुष्य प्रातःकाल उठकर नहा धोकर एक साथ बैठकर जब संध्या उपासना और भजन करते होंगे, सब मिलकर वेद के पावन मन्त्रों से अग्नि देवता के चारों ओर बैठकर यज्ञ करते होंगे, अपने-अपने भाग की आहुति देते होंगे, सब मिलकर परिवार के अभ्युत्थान के लिए मनों में संकल्पाग्नि को प्रज्ज्वलित करते होंगे, पुनः सब एक साथ बैठकर दुग्धादि पदार्थों का पान एवं भोजन करते होंगे, मिलकर कार्य करते होंगे, मिलकर स्वाध्याय-सत्संग तथा शयनादि के पावन मन्त्रों का पाठ करने के उपरान्त जब सो जाते होंगे, तो उनका केवल मात्र दैनिक व्यवहार ही प्रसन्नता और प्रेरणा का स्त्रोत नहीं रहेगा, बल्कि उनका चैन से सोना भी सबको अपनी ओर आकर्षित किये बिना नहीं रहेगा । वेद आगे कहता है कि -

सध्रीचीनान्‌ वः सम्मनसस्कृणोम्येकश्नुष्टीन्त्संवननेन सर्वान्‌।
देवा इवाअमृतं रक्षमाणाः सायं प्रातः सौमनसो वो अस्तु।। 


इस प्रकार परस्पर मिलजुल कर पदार्थों के सेवन से या उत्तम सेवा भाव से तुम सबको एक साथ मिलकर पुरुषार्थ करने वाला, एक मन होकर विचार करने वाला तथा परिवार में एक को अपना बड़ा मानकर उसकी आज्ञा में चलने वाला या एक ध्येय को लेकर कार्य करने वाला बनाता हूं। अपने अमरत्व की रक्षा करते हुए देवों के समान प्रातः सायं तुम सबका सौमनत्व बना रहे।

इस मन्त्र का भाव यह है कि परिवार के सभी सदस्य जब एक साथ मिलकर बिना भेदभाव के परिवार के पदार्थों का उपभोग करते हैं, तो वे सब उस घर के अभ्युत्थान के लिये अपनी-अपनी योग्यता और सामर्थ्य के अनुसार समान रूप से एक पताका के नीचे उद्योग करते रहते हैं। ऐसा करते हुए वे सब अपने लक्ष्य की प्राप्ति में सफल होते हैं।

सूक्त के उपसंहार में वेद हमें एक सारगर्भित उपदेश देता है, वह यह कि हे परिवार में निवास करने वाले मनुष्यो! जैसे देवजन ज्ञानी महानुभाव सभी प्रकार से अपने अमरत्व की रक्षा करते हैं अर्थात्‌ जगत्‌ से विदा हो जाने के उपरान्त भी अपने कार्यों से अपने को अमर बनाकर सुदीर्घ काल तक आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा के स्त्रोत बने रहते है, वैसे ही तुम्हारे इस वैदिक आदर्श परिवार का मूल मन्त्र "सौमनस' हो। यदि तुममें "सौमनस' बना रहा तो सुमन के परिणामस्वरूप तुम सुमन (पुष्प=फूल) के समान खिल जाओगे, प्रसन्नता से विभोर हो जाओगे और अपने परिवाररूपी वाटिका के सुमनों के खिल जाने के परिणामस्वरूप अपने सत्कर्मों की पावन सुगन्धि से सारे वातावरण को सुगन्धित कर सकोगे।

भगवान हर मनुष्य को ऐसी सद्बुद्धि और सामर्थ्य प्रदान करे, जिससे कि वह अपने परिवार को आदर्श परिवार के रूप में खड़ा कर सके, क्योंकि ऐसा करके ही वह परिवार स्वयं सुखी हो सकेगा और अन्यों के लिए भी प्रेरणा का स्त्रोत बन सकेगा ।




परिवार में एक पुत्र या पुत्री के उत्पन्न होने के पश्चात यदि दूसरा पुत्र या पुत्री उत्पन्न हो, तो उसका माता-पिता के प्रति तो वही व्यवहार रहना चाहिये जो उपर्युक्त मन्त्र में निर्देश किया गया है। परंतु उनका परस्पर में कैसा व्यवहार होना चाहिये, इसके सम्बन्ध में वेद उपदेश देता है-

मा भ्राता भ्रातारं द्विक्षन्‌ मा स्वसारमुत स्वसा।
सम्यंचः सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया।। 


भाई भाई से द्वेष न करें, बहिन बहिन से द्वेष न करें, समान गति से एक-दूसरे का आदर सम्मान करते हुए परस्पर मिल जुलकर कर्मों को करने वाले होकर अथवा एक मत से प्रत्येक कार्य करने वाले होकर भद्रभाव से परिपूर्ण होकर सम्भाषण करो।

इस मन्त्र में जहां यह बतलाया गया है कि भाई, भाई से और बहिन, बहिन से द्वेष न करें, वहां इससे यह उपदेश भी ग्रहण करना चाहिए कि भाई, बहिन से और बहिन, भाई से भी द्वेष न करें। भाई-भाई को, बहिन-बहिन को, भाई-बहिन को और बहिन-भाई को परस्पर में ऐसा व्यवहार करना चाहिये, जिससे वे एक दूसरे को देखकर तृप्त हों, गद्गद्‌ हों। वे सदा एक दूसरे का आदर सम्मान करते हुए स्नेहपूर्वक मिलजुल कर कार्य करें और लक्ष्य की प्राप्ति के लिए समान रूप से प्रयत्नशील रहें। उनके व्रत-कर्म समान हों, श्रेष्ठ हों। यह समान कर्म और समान भाव से उनका किया हुआ पुरुषार्थ उनको निश्चित रूप से अपने उद्‌देश्य की ओर अग्रसर करता रहेगा।

इस प्रकार पारिवारिक अभ्युत्थान में संलग्न भाई-बहिनों को परस्पर में सम्भाषण भी ऐसा करना चाहिये, जो भद्र भाव से परिपूर्ण हो अर्थात्‌ बोलते समय यह विचारकर सब बोलें कि हमारे बोलने में कल्याण हो। अपवाद को छोड़कर दुर्भाग्य से आज परिवारों में भाई-भाई आदि वह वाणी भी नहीं बोल पाते, जो उनके इस लोक को ही सुखमय बना सके, परलोक की बात तो क्या कहें? फिर भी आश्चर्य है कि आज हम अपने आपको सभ्यता के उच्च शिखर पर विराजमान अनुभव करते हैं।

वास्तव में इन वैदिक दिव्य व्यवहारों से जो परिवार सम्पन्न रहेगा, वह कितना धन्य होगा !
सूक्त के अग्रिम मन्त्र में वेद उपदेश देता है कि-

येन देवा न वियन्ति नच विद्विषते मिथाः।
तत्कृण्मो ब्रह्म वो गृहे संज्ञानं पुरुषेभ्यः।। 


हे मनुष्यो! जिससे देवजन परस्पर पृथक-पृथक नहीं होते और न ही परस्पर विद्वेष करते है अर्थात्‌ जिसको पाकर देव जन सदा संगठित रहते हैं और एक दूसरे को देखकर फूले नहीं समाते, वह परस्पर एकता उत्पन्न करने वाला दिव्य ज्ञान तुम्हारे घर में सबके लिए समान रूप से प्राप्त हो।

इस मन्त्र से यह भाव निकलता है कि जो दिव्य ज्ञान सदा देवों को एक सूत्र में पिरोए रखता है, उनमें परस्पर प्रेम की गंगा बहाए रखता है, जिसके कारण न तो वे एक दूसरे के विपरीत आचरण करते हैं और न ही परस्पर में वे द्वेष करते हैं । तब वह दिव्य पावन ज्ञान हम एक ही कुटुम्ब के वासी मनुष्यों को, जो रक्त सम्बन्ध से वैसे ही एक दूसरे के साथ अपनत्व अनुभव करते है, क्यों नहीं संगठन और स्नेह के पावन सू़त्र में हमें पिरो सकेगा ? अवश्य ही वह दिव्य ज्ञान हमें परस्पर इतना निकट ले आएगा, ऐसे स्नेह सूत्र में पिरो देगा कि यह परिवार एक आदर्श परिवार के रूप में खड़ा होकर दूसरों को लिए भी प्रेरणा का स्त्रोत बन जायेगा।
वेद पुनः आगे उपदेश देता है -

ज्यायस्वन्तश्चितिनो मा वियौष्ट संराधयन्तः सधुराश्चरन्तः।
अन्यो अन्यस्मै वल्गु वदन्त एत सध्रीचीनान्‌ वः संमनसस्कृणोमि 


हे परिवार में निवास करने वाले मनुष्यो ! परिवार में वृद्धों का सम्मार करने वाले, सम्यक्‌ ज्ञान के धनी, एक साथ मिलकर कार्य को सिद्ध करने वाले, एक धुरी के नीचे रहकर कार्य करने वाले अर्थात्‌ कार्य भार को मिलकर आगे बढाने वाले तुम लोग परस्पर पृथक्‌ मत होवो। तुम सब कार्य करते हुए एक दूसरे से सदा स्नेह आदि सम्मान पूर्वक बातचीत करते हुए आगे बढो। मै तुम सबको, एक साथ मिल-जुलकर कार्य करने वालों को समान मन वाला बनाता हूं, जिससे तुम अपने उद्‌देश्य में सदा सफल होते रहो।

इस प्रकार एक परिवार में वृद्धों को सम्मान मिलता रहे, छोटों को प्यार, आशीर्वाद तथा उत्साह मिलता रहे और सब मिल जुल कर प्रेमपूर्वक परिवार के अभ्युत्थान में कृतसंकल्प हो जायें, तो उस परिवार के सुख-सौभाग्य में सन्देह रह ही नहीं सकता ।







Priyatam Kumar Mishra