Friday, February 15, 2013

क्यों होता है दीपावली पर लक्ष्मी-गणेश पूजन?



                                                        


गणेश-लक्ष्मी पूजन की कथा

एक बार की बात है, एक राजा ने किसी लकड़हारे पर प्रसन्न होकर उसे चंदन की लकड़ी का पूरा जंगल दे दिया। लेकिन लकड़हारा बुद्धू और गंवार था। वह चंदन की लकड़ी का महत्व नहीं समझता था। धीरे-धीरे उसने पूरा जंगल साफ कर दिया और पुनः अपनी बदहाल अवस्था में पहुंच गया क्योंकि वह सारी लकड़ियां भोजन पकाने में जला चुका था। 

राजा ने सोचा यह सच है कि बुद्धि होती है तभी लक्ष्मी अर्थात धन का संचय किया जा सकता है। गणपति बुद्धि के स्वामी हैं, बुद्धि-दाता हैं। यही कारण है कि लक्ष्मी एवं गणपति की एक साथ पूजा का विधान है ताकि धन और बुद्धि एक साथ मिलें। 

एक अन्य कथा के अनुसार, एक बार एक साधु के मन में राजसी सुख भोगने का विचार आया। यह सोचकर उसने लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए घोर तपस्या शुरू कर दी। लक्ष्मीजी प्रसन्न हुईं और उसे मनोवांछित वरदान दे दिया। वरदान को सफल करने के लिए वह साधु एक राजा के दरबार में पहुंचा और सीधा सिंहासन के पास पहुंचकर झटके से राजा का मुकुट नीचे गिरा दिया। 

यह देखकर राजा और सभासदों की भृकुटियां तन गईं। किंतु तभी मुकुट में से एक विषैला सर्प निकला। यह देखकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ और सोचा कि इस साधु ने सर्प से उसकी रक्षा की है। इसलिए उसे अपना मंत्री बना लिया।

एक बार साधु ने सभी को फौरन राजमहल से बाहर जाने को कहा। राजमहल में सभी उनके चमत्कार को नमस्कार करते थे। इसलिए सभी ने राजमहल खाली कर दिया। अगले ही क्षण वह धड़धड़ाता हुआ खडंहर बन गया। सभी ने उसकी प्रंशसा की। अब साधु के कहे अनुसार सभी कार्य होने लगे। यह सब देखकर साधु के मन में अहंकार उत्पन्न हो गया और वह स्वयं के आगे सबको तुच्छ समझने लगा। 

एक दिन राजमहल के एक कक्ष में उसने गणेशजी की प्रतिमा देखी। उसने आदेश देकर वह मूर्ति वहां से हटवा दी। एक दिन दरबार लगा था। साधु ने राजा से कहा- “महाराज! आप अपनी धोती तुरंत उतार दें, इसमें सर्प है।” राजा उनका चमत्कार पहले भी देख चुका था, इसलिए उसने धोती उतार दी। लेकिन उसमें सर्प नहीं निकला। 

यह देख राजा को बहुत क्रोध आया। उसने साधु को काल कोठरी में डलवा दिया। साधु पुनः तप करने लगा। स्वप्न में लक्ष्मी ने उससे कहा-“मूर्ख! तूने राजमहल से गणेशजी की मूर्ति हटवा दी। वे बुद्धि के देवता हैं। तूने उन्हें रुष्ट कर दिया, इसलिए उन्होंने तेरी बुद्धि हर ली।”   

साधु को अपनी गलती का पता चला। तब उसने गणपति को प्रसन्न किया। गणपति के प्रसन्न होते ही राजा कालकोठरी में गया और साधु से क्षमा मांग कर उसे पुनः मंत्री बना दिया। मंत्री बनते ही साधु ने गणपति को पुनः स्थापित किया। साथ ही वहां लक्ष्मी की मूर्ति भी स्थापित की। 

 इस प्रकार कहा गया है कि धन के लिए बुद्धि का होना आवश्यक है। दोनों साथ होंगी तभी मनुष्य सुख एवं समृद्धि में रह सकता है। यही कारण है कि दिवाली पर लक्ष्मी एवं गणेश के रूप में धन एवं बुद्धि की पूजा होती है। 





Priyatam Kumar Mishra

लक्ष्मी के साथ सरस्वती और गणेश की पूजा जरूरी क्यों


दिवाली पर हम लक्ष्मी की पूजा करते है। लेकिन लक्ष्मी के पूजन के साथ हम चित्र में मौजूद गणेश और सरस्वती की भी पूजा करते है। आखिर लक्ष्मी, सरस्वती और गणपति में क्या रिश्ता है कि तीनों देवी-देवता एक साथ पूजे जाते है। इसके अलावा कमल पर बैठी लक्ष्मी, पीछे दो हाथी भी हमें कई बातें बताते है। आइये जानते है कि यह चित्र हमें क्या सिखाता है।
सरस्वती ज्ञान की देवी हैं और गणपति बुद्वि के देवता है। अगर हम धन के लिए लक्ष्मी का आवाहन करते है तो सरस्वती और गणेश को भी बुलाएं। धन आने पर उसे अपने ज्ञान से संभालें और बुद्वि के उपयोग से उसे निवेश करे। इससे लक्ष्मी का
स्थायी निवास होगा।
अगर हम गौर करें तो दिवाली पर इसी चित्र की पूजा की जाती है। सरस्वती लक्ष्मी की दांयी और गणपति बांई ओर बैठे है। मानव का दांयी ओर का मस्तिष्क ज्ञान के लिए होता है। उस ओर हमारा ज्ञान एकत्र होता है और बांई ओर का मस्तिष्क रचनात्मक होता है। गणपति बुद्वि के देवता है। हमारी बुद्वि रचनात्मक होनी चाहिए। लक्ष्मी कमल के फूल पर बैठी हैं कमल को सबसे पवित्र फूल माना गया है। इसका अर्थ हम जिस जरिए से धन कमाते हैं वह बहुत पवित्र होना चाहिए।


Priyatam Kumar Mishra

Wednesday, January 30, 2013

प्रभु की प्रार्थना आत्मा को परमात्मा बनाने का एक 'कीमिया' है


प्रभु की प्रार्थना आत्मा को परमात्मा बनाने का एक 'कीमिया' है। आत्मा ईश्वर का ही अंश होने से स्वयं शुद्धात्मा होती है किंतु कर्मों की संगति के कारण अशुद्ध होकर भवभ्रमण के अनंत चक्र में फँसकर सुख-दुख भोगती रहती है। फिर परमात्मा का अंश होते हुए भी वह परमात्मा से अलग या दूर हो जाती है और कष्ट भोगने पर बाध्य हो जाती है। 
पानी की एक बूँद सागर से अलग होकर जिस प्रकार एक बूँद मात्र हो जाती है और जब वही बूँद सागर में विलीन हो जाती है तो सागर बन जाती है। परमात्मा सर्वव्यापी है। वह सब जानता है। उसे हमारे हर पल की खबर होती है। इसलिए जब भी उससे प्रार्थना करें तो कोई माँग उसके सामने नहीं रखे अन्यथा वह प्रार्थना नहीं होकर हमारी माँगें पूरी करने की याचना मात्र होकर रह जाएगी। 
प्रार्थना में कोई माँग नहीं होती। केवल प्रभु के उपकारों की कृतज्ञता का ज्ञापन तथा उसके पावन चरण में शरण या संपूर्ण समर्पण की भावना का हृदय की भाषा में प्रकटीकरण होता है। यह आँखों में आए प्रेम-विह्वलता के दो आँसुओं के रूप में प्रकट होता है। 
किसी व्यक्ति का सच्चा समर्पण ही उसके कर्मों से उसकी मुक्ति का आलंबन बनता है और जब प्रभु की करुणा की बरसात जब व्यक्ति पर निरंतर होने लगती है तो काम-क्रोध, लोभ-मोह, मान-माया आदि के सारे कलुष ऐसे बह जाते हैं, जैसे भारी बरसात सारी गंदगी को अपने साथ बहा ले जाती है। 
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फिर बचा रहता है अकलुषित निर्मल पवित्र हृदय जिसमें उग आता है आस्था का अखंड खुशबू वाला कमल जिस पर अपने आराध्य परमात्मा स्वयं आ विराजित होते हैं। जब परमात्मा स्वयं हमारे हृदय-कमल पर विराजित हो जाते हैं, तब आत्मा तथा परमात्मा की दूरियाँ समाप्त होकर संपूर्ण समर्पण से बूँद सागर में विलीन होकर मुक्ति या मोक्ष को प्राप्त कर लेती है। 
काम-क्रोध, लोभ-मोह आदि शत्रुओं से घिरा मन कभी प्रभु को पा लेने जैसे उत्कृष्ट भाव का विचार तो ठीक, स्वप्न भी नहीं देखता है, क्योंकि जन्म-जन्म की हमारी काम-क्रोध व मोह की बेड़ियाँ हमें उनसे मुक्त ही नहीं होने देतीं। तब प्रभु की प्राप्ति असंभव-सी लगती है। इसलिए सच्ची प्रार्थना वही है, जो निःस्वार्थ भाव से पूरे समर्पण के साथ की जाए। इससे ही आत्मा का रूपांतरण होना संभव है।



Priyatam Kumar Mishra

जीवन का पथ आसान नहीं होता है।

जीवन का पथ आसान नहीं होता है। शुरू से लेकर अंत तक जीवन जिम्मेदारियों से भरा होता है। इस जिम्मेदारी में चूक का मतलब है जीवन पथ को और मुश्किल बनाना। पारिवारिक दायित्व आने पर यह जिम्मेदारी और बढ़ जाती है।पारिवारिक दायित्व आ जाने पर सबसे बड़ी जिम्मेदारी है अपने बच्चे को सही दिशा की ओर ले जाना। 
इसके लिए सबसे जरूरी यह है कि माता-पिता अपने जीवन में ऐसा आदर्श पेश करें जिसका अनुकरण कर उसका बच्चा खुद को गौरवान्वित महसूस कर सके। और इसके लिए सबसे जरूरी है शिक्षा। शिक्षा का महत्व समाज के निर्माण में महत्वपूर्ण है। इसके बिना आदर्श समाज की कल्पना नहीं की जा सकती। माता-पिता को चाहिए कि अपने बच्चे को सबसे पहले बाल विकास कक्षा में दाखिला दिलवाएँ। इसके अलावा माता-पिता को अपने बच्चे के साथ सदैव आदर्श व्यवहार करना चाहिए। 
हाँ, इसके लिए यह भी जरूरी है कि बच्चे की माँ और पिता में किसी तरह का कोई मतभेद नहीं हो। यानी बच्चे के लिए जो राय पिता की बनती है वहीं माँ की भी बननी चाहिए। एक निश्चित उम्र के बाद बच्चे माँ-बाप की बात मानने से इनकार करने लगते हैं। 

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इसका मतलब यह नहीं कि बच्चे में दोष है बल्कि हम उसके सामने सही मार्ग पर ईमानदारी से नहीं चल पाए। कहीं न कहीं इसके लिए हम खुद जिम्मेदार हैं। हमारे आदर्श पथ से भटकने का मतलब है कि बच्चा भी अपना सही रास्ता छोड़ सकता है। इसलिए हमें अपने पथ दृढ़ता के साथ पूरी ईमानदारी, सूझबूझ और चतुराई से चलना चाहिए। 
कुछ परिवारों में माता और पिता में एक राय नहीं बन पाती। माता-पिता की एकता में इस कमी के कारण बच्चों में गलत संदेश जाता है। माता-पिता को चाहिए कि बच्चों को ऐसी शिक्षा दें जिससे वह एक आदर्श पथ का अनुकरण कर सके। उसे सत्य की राह पर चलने के लिए प्रेरित करें। क्योंकि किसी भी चीज का मूलभूत आधार सत्य ही है। 'सत्यम्‌ शांति परो धर्मा' अर्थात सत्य के आचरण से बढ़कर कोई धर्म बड़ा नहीं होता। अगर हम सत्य के रास्ते पर चलते हैं तो निसंदेह हमारे देश में शांति और समृद्धि कायम होगी। 
मनस्यकामं, वचनस्यकामं कर्मण्यकामं महात्मानं अर्थात धार्मिकता से ही शांति आती है और शांति से प्रेम प्रकट होता है अर्थात जिसका कर्म, वचन और विचार में समानता होती है वह महान होता है। इनमें फर्क इंसान को गलत रास्ते की तरफ अग्रसर करता है। हमें अपने बच्चे को सत्य की सीख देने से पहले खुद अपने दैनिक जीवन में सत्य को उतारना चाहिए। हमें आत्मा की गहराई से सत्य का आचरण करना चाहिए। कृत्रिम जीवन नहीं जीना चाहिए। 
आज के युग में अकसर देखा जाता है कि शिक्षा को भी कृत्रिम बना दिया गया है। बच्चों में मंत्रों का भजन, ध्यान, चिंतन का समावेश कराना चाहिए ताकि पढ़ाई में कृत्रिमता से बचा जा सके। वे कहते हैं कि ईश्वर की तरफ ध्यान देकर अपने मन को नियंत्रित किया जा सकता है। ध्यान का मतलब यह नहीं कि आँखें बंद कर लीजिए और पैर मोड़कर बैठ जाइए। ईश्वर के ध्यान के लिए मन को नियंत्रित करना आवश्यक है। मनः इवा मनुष्यामं कर्मम बंधोआमोक्षयः अर्थात मन मनुष्य की उदारता और बंधन का कारण होता है। 
प्रेम सत्य है और सत्य ही प्रेम है। परंतु यह शारीरिक या शब्दों का प्रेम नहीं होना चाहिए। हमें अपनी आत्मा में आध्यात्मिक प्रेम को बसाना चाहिए। यदि हम प्रेम को ईश्वर की तरफ ले जाते हैं तो हमारा मन आसानी से 

नियंत्रित होने लगता है।



Priyatam Kumar Mishra

Monday, July 16, 2012

जीवन मंत्र


स्पष्ट और शांत दिमाग रखें:
हममें से अधिकांश जरा सी समस्या सामने आने या कुछ गलत हो जाने मात्र से ही घबरा जाते हैं। हमारा ब्लड प्रेशर बढ़ जाता है। हम नर्वस हो जाते हैं। हमारा अंग-प्रत्यंग शिथिल सा होने लगता है। इसका सीधा असर हमारी सोचने की शक्ति पर पड़ता है। होना यह चाहिए कि संकट के समय हमें अन्य स्थितियों या समय की अपेक्षा और अधिक प्रभावी ढ़ंग से कार्य करना चाहिए। दिमाग को शांत करने कासबसे सरल उपाय है- ठंडा पानी पीना। गहरी-गहरी सांस लें और ध्यान-योग का सहारा लेते हुए हल्की आवाज में मधुर संगीत सुनें। इन उपायों को अपनाने के पश्चात आप स्वयं महसूस करेंगे कि आप उस समस्या से सकारात्मक ढ़ंग से जूझने के लिए बिलकुल तैयार हो गए हैं।
समस्याएं सूचीबद्ध करें:
अपनी हर समस्या को अपनी डायरी पर लिख लें और स्वयं को बद से बदतर स्थितिके लिए तैयार रखें। इन समस्याओं के साथ ही जीवन में आपकों जो भी कुछ हासिलहुआ हैजिससे आपको संतुष्टि और खुशी मिलती होउसे भी अपनी डायरी में लिखलें। उदाहरण के लिए- अपनी उन्नतिस्वास्थ्य एवं व्यक्तित्व से जुडी बातें। इसके लिए ईश्वर को धन्यवाद देते हुए इसका भी उल्लेख अपनी डायरी में करें। इसका सकारात्मक प्रभाव यह होगा कि आपका दिमाग समस्याओं से हटकर जीवन से जुड़ी अच्छी बातों और शक्तियों के बारे में सोचने लगेगा। इससे आपके दिमाग में ऊर्जा का संचार होगा और वह समस्याओं के निराकरण में अच्छी तरह से सोच सकेगा।
दूसरे भी समस्याग्रस्त हैं:
संभव है कि समस्या का सामना करते ही आपको अपना जीवन ही सर्वाधिकसंकटग्रस्त लगे। परन्तु इस क्रम में यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि प्रत्येक इंसान को समस्याएं घेरती ही हैं। इनसे न कोई बचा है और न ही कोई बचेगा। फिर इनसे घबराना कैसा आपकी तरह ही तमाम अन्य लोग भी किसी न किसी समस्या से ग्रस्त हैं और उनसे जूझ रहे हैं।
बच्चों को प्यार देना न भूलें:
समस्या से दो-चार होते ही अधिकांश अभिभावक सबसे पहले उसकी खीझ और कुंठाअपने बच्चों पर उतारते हैं। हालांकि बाद में इसका अपराधबोध भी होता हे। यहअपराधबोध आपमें निराशा और क्रोध का इजाफा होता है। इसलिए बच्चों के साथपहले जैसा पूर्ववत प्रेमपूर्ण व्यवहार बनाए रखें। इसका सकारात्मक प्रभाव यह होगा कि आपके बच्चों में मजबूत और दृढ़ इच्छा-शक्ति की भावना सुदृढ़ होगी।
छोटी बातों में तलाशें खुशियां:
समस्याओं से घिरकर भी छोटी-छोटी बातों में खुशियों को तलाशें। अक्सर लोगसमस्याग्रस्त होने पर अपनी दिनचर्या अस्त-व्यस्त कर लेते हैं। अगर वे बच्चों की मुस्कान पर आनन्द लें तो उनका व्याकुल मंन प्रसन्न-चित्त हो जाएगा। इसी तरह छोटी-छोटी बातों में आनन्द लें तो समस्या हल करने में उनका चित्त लगेगा।
अपनी दिनचर्या न छोड़ें:
किसी समस्या के सिर उठाने पर कुछ लोग अपना दैनिक व्यक्तिगत जीवन भूलजाते है और उसी समस्या को लेकर चिन्ताग्रस्त रहते हैं। अगर आप चाहते हैं किआपकी समस्या का समाधान हो तो सबसे पहले आप अपने को दु:ख एवं चिन्ता केसागर में डुबोने के बजाय नियमित दिनचर्या का पहले की तरह ही पालन करें। इससे एक तो सामान्य स्थिति का अहसास होगा और दूसरे व्यस्त रहने से कुछ देर के लिए ही सही दुश्चिन्ताओं से मुक्ति मिलेगी।
रात के बाद सुबह आती है:
अपने को इस तथ्य से सदैव अवगत कराते रहें कि हर रात के बाद सुबह आती है।वक्त का कोई दौर स्थाई नहीं होता। स्थितियां अच्छे के लिए ही आकार लेती हैं। घैर्य और सकारात्मक नजरिए से स्थितियां अनुकूल बनाने में देर नहीं लगती हैं।
अपनी क्षमता को पहचानें:
विपरीत परिस्थितियों से गुजर कर ही इंसान मजबूत बनता है। ठीक वैसे ही जैसे आग में तपकर सोना और निखरता है। समस्याओं को चुनौती के रूप में लें औरस्वयं को दबाब और तनाव में बिखरने न दें। जितनी चुनौतियों का आप सामनाकरेंगेउतने ही आप मजबूत होते जाएंगे। यानि तब समस्याएं आपको न तो हिलापाएंगी और न ही डिगा पाएंगी।






Priyatam Kumar Mishra

शिव के बारह ज्योतिर्लिंग

शिव के बारह ज्योतिर्लिंग~~~

भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंग देश के अलग-अलग भागों में स्थित हैं। इन्हें द्वादश ज्योतिर्लिंग के नाम से जाना जाता है।

इन ज्योतिर्लिंग के दर्शन, पूजन, आराधना से भक्तों के जन्म-जन्मातर के सारे पाप व दुष्क्रत्य समाप्त हो जाते हैं। वे भगवान शिव की कृपा के पात्र बनते हैं। 

श्री सोमनाथ
श्री मल्लिकार्जुन
श्री महाकालेश्वर
श्री ओंकारेश्वर-श्री ममलेश्वर
श्री केदारनाथ
श्री विश्वनाथ
श्री त्र्यम्बकेश्वर
श्री वैद्यनाथ
श्री नागेश्वर
श्री रामेश्वर
श्री घुश्मेश्वर
श्री भीमेश्वर
शिव के आठ स्वरुप~~~


सृष्टि संचालन के लिए शिव आठ रूप धारण किए हुए हैं। चराचर विश्व को पृथ्वी रूप धारण करते हुए वह शर्व अथवा सर्व हैं। सृष्टि को संजीवन रूप प्रदान करने वाले जलमयरूप में वह भव हैं। सृष्टि के भीतर और बाहर रहकर सृष्टि स्पंदित करने वाला उनका रूप उग्र है। सबको अवकाश देने वाला, नृपोंके समूह का भेदक सर्वव्यापी उनका आकाशात्मकरूप भीम कहलाता है। संपूर्ण आत्माओं का अधिष्ठाता, संपूर्ण क्षेत्रवासी, पशुओं के पाश को काटने वाला शिव का एक रूप पशुपति है। 

सूर्य रूप से आकाश में व्याप्त समग्र सृष्टि में प्रकाश करने वाले शिव स्वरूप को ईशान कहते हैं। रात्रि में चंद्रमा स्वरूप में अपनी किरणों से सृष्टि पर अमृत वर्षा करता हुआ सृष्टि को प्रकाश और तृप्ति प्रदान करने वाला उनका रूप महादेव है। शिव का जीवात्मा रूप रुद्र कहलाता है। सृष्टि के आरंभ और विनाश के समय रुद्र ही शेष रहते हैं। सृष्टि और प्रलय, प्रलय और सृष्टि के मध्य नृत्य करते हैं। जब सूर्य डूब जाता है, प्रकाश समाप्त हो जाता है, छाया मिट जाती है और जल नीरव हो जाता है उस समय यह नृत्य आरंभ होता है। तब अंधकार समाप्त हो जाता है और ऐसा माना जाता है कि उस नृत्य से जो आनंद उत्पन्न होता है वही ईश्वरीय आनंद है। 


शिव,महेश्वर, रुद्र, पितामह, विष्णु, संसार वैद्य, सर्वज्ञ और परमात्मा उनके मुख्य आठ नाम हैं। तेईस तत्वों से बाहर प्रकृति,प्रकृति से बाहर पुरुष और पुरुष से बाहर होने से वह महेश्वर हैं। प्रकृति और पुरुष शिव के वशीभूत हैं। दु:ख तथा दु:ख के कारणों को दूर करने के कारण वह रुद्र कहलाते हैं। जगत के मूर्तिमान पितर होने के कारण वह पितामह, सर्वव्यापी होने के कारण विष्णु, मानव के भव रोग दूर करने के कारण संसार वैद्य और संसार के समस्त कार्य जानने के कारण सर्वज्ञ हैं। अपने से अलग किसी अन्य आत्मा के अभाव के कारण वह परमात्मा हैं। ॐ नमोः शिव सांई~~~

पतित पावन परम पिता परमात्मा शिव,
गीता ज्ञान दाता दिव्य चक्षु विधाता शिव~~~


'शि' का अर्थ है पापों का नाश करने वाला और 'व' कहते हैं मुक्ति देने वाले को। भोलेनाथ में ये दोनों गुण हैं इसलिए वे शिव कहलाते हैं। -ब्रह्मवैवर्त पुराण

ॐ नमोः शिव सांई~~~  

शंकर शिव शम्भु साधु संतन हितकारी ॥

लोचन त्रय अति विशाल सोहे नव चन्द्र भाल ।
रुण्ड मुण्ड व्याल माल जटा गंग धारी ॥

पार्वती पति सुजान प्रमथराज वृषभयान ।
सुर नर मुनि सेव्यमान त्रिविध ताप हारी ॥









Priyatam Kumar Mishra

Wednesday, July 11, 2012


दोनों पति और पत्नी का पृथक्‌-पृथक्‌ ही नहीं, सम्मिलित प्रभाव भी समाज पर पड़ता है । समाज भी इनको अपने प्रभाव में ढ़ालने के लिए यत्नशील रहता है। पति अधिकारी, कर्मचारी, व्यापारी, प्राघ्यापक, अधिवक्ता, अभियन्ता, चिकित्सक आदि किसी भी क्षमता से जब अपने कार्य-स्थल पर पहुंचता है और यदि वह किंचित्‌ असामान्य या विवादयुक्त व्यवहार करता है तो लोग यही कहते हैं,लगता है आज श्रीमान घर से लड़ कर आये हैं। ऐसे ही यदि वे घर में असामान्य व्यवहार करते हैं, तो कहा जाता है कि श्रीमान कार्यालय में झगड़ कर आये हैं। इस प्रकार परिवार से समाज, समाज से परिवार तक व्यक्तित्व के विकास-ह्रास की ये द्विपथी प्रणाली निरंतर चलती रहती है और अनजाने ही हम अपना एक निश्चित रूप निर्धारण कर लेते हैं।

आपके हाथ में एक फूल है-रंगीन व सुगंधित, या आपके हाथ में एक फल है सुन्दर और स्वादु। इनके गुणों की क्या गणना ! एक फूल या फल यों ही नहीं बन गया। इसके पीछे एक पादप था। पादप में जड़ें, शाखायें, टहनियां व पत्तियां थी। इनके भी पीछे माली का पोषण और प्रशिक्षण था। इसी प्रकार मधुर जीवन-व्यवहार और लोकप्रिय आकर्षक व्यक्तित्व के निर्माण में कोई एक ही तत्व नहीं, अपितु अनेक कारकों का समावेश होता है।

क्षण-क्षण के वाक्यबाण घर-परिवार-समाज, यहां तक कि पति-पत्नी के व्यक्तित्व को प्रभावित करते हैं, इनको यदि उचित मोड़ दे दिया जाता है तो कुशल, अन्यथा उथल-पुथल हो जाती है । आकर्षक व्यक्तित्व के निर्माण में जिन तत्वों की अपरिहार्य सहभागिता है, उनका वर्णन इस वेद-मंत्र में हमें सहज ही मिल जाता है। देखियेः-


इडे रन्ते हव्ये काम्ये चन्द्रे ज्योति अदिते सरस्वति महि विश्रुति ।
एता ते अध्न्ये नामानि देवेभ्यो मा सुकृतं ब्रूतात्‌।। 


'इडे"-विद्यादि प्रशंसनीय गुण होना आवश्यक है। विद्या से ही कार्य में कुशलता आती है। कार्य-सक्षम होने पर भी अभिमान नहीं होना चाहिये। अभिमानी होने से सक्षम व्यक्ति से भी लोग दूर रहेंगे। विद्या-वृद्धि के साथ-साथ व्यक्ति में नम्रता-सुकोमलता का विकास वैसे ही होना चाहिए, जैसे फलों से लद जाने पर वृक्षों की टहनियां झुक जाती हैं। ऐसा व्यक्ति 'रन्ते" रमणीक-रमणीय सहज व सुन्दर हो जायेगा, तो अन्य लोग उससे श्रद्धा करेंगे और उसके समीप जायेंगे। कुशलता और कोमलता अथवा विद्या ये सुन्दरता - 'हव्ये" अर्थात्‌ हवि या रचनात्मक साधन-सामग्री से परिपूर्ण होनी चाहिये। विद्या-सुन्दरता या वस्तु भण्डार इनमें से कुछ या सब कुछ जब आपके पास होगा, तभी आपका 'काम्ये" कमनीय मनमोहक स्वरूप किसी को अपनी ओर आकर्षित कर सकेगा। लोग अपनी कोई कामना लेकर आपके पास आयेंगे। कामना पूर्ण कर देने पर फिर वही व्यक्ति 'चन्द्रे" अत्यंत आनन्द देने वाला बन जायेगा। चन्द्रमा की चन्द्रिका अपने शीतल प्रकाश के लिये प्रसिद्ध है। यह आदान-प्रदान की सूचक भी है। चन्द्रमा सूर्य से प्रकाश लेता है, पृथ्वी को देता भी है, वह भी सूर्य की प्रचण्ड उष्णता को समाप्त कर मोदमय शीतल स्वरूप में। चन्द्रमा चाहे द्वितीया का हो या पूर्णिमा का उसके राज्य में तारागण मुदते ही नहीं टिमटिमाते रहते हैं, जबकि सूर्य के राज्य में सब छिप जाते हैं, वह अकेला ही रह जाता है। 'चन्द्र" स्वभाव होने पर व्यक्ति 'ज्योति" श्रेष्ठ शील से ज्योतित हो उठेगा। अग्नि की ज्वाला भस्म कर देती है, परन्तु ज्योति प्रकाश ही नहीं देती, अपितु उसे पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाती है। एक दीपक से अनेक अनेक दीपक जलते रहते हैं । ज्वाला अपनी लपट में लपेटकर अपने आधार को राख करके स्वयं का अस्तित्व खो देती है, किन्तु दीपक की ज्योति एक परम्परा बन जाती है। परम्परागत त्याग की शक्ति विकसित होने पर व्यक्ति में 'अदिते" -आत्मिक दृढ़ता स्थापित होती है और साथ ही उसे अंधविश्वास एवं आडम्बर से रहित 'सरस्वती"-प्रशंसित विज्ञानमयी बुद्धि और सरस वाणी प्राप्त हो जाती है। यही सरस्वती व्यक्ति को ऊंचा उठाकर 'महि"-चरमोत्कर्ष,सफलता एवं उच्चता तक पहुंचा देती है। "महि' भूमि को भी कहते हैं, जिसका विशेष गुण क्षमा होता है। ''क्षमा बड़न को चाहिए छोटन को उत्पात"" की बात इसी से पूर्ण होती है। इससे यह भी संकेत मिलता है कि आकाश तक सिर ऊंचा उठ जाने पर भी चरण धरती पर जमे रह ने चाहिएं। ऊंचाईयों पर चढ़ने के बाद भी 'विश्रुति"-वेदाध्ययन-पठन-पाठन-स्वाध्याय और अच्छी-अच्छी बातें जानने के लिए अपने मस्तिष्क के द्वार बंद नहीं कर लेने चाहिएं।

उक्त क्रमानुसार जिस व्यक्ति का विकास होगा वह वास्तव में 'अघ्न्ये" अताड़नीय हो जायेगा। जिसका लोग आदर करेंगे, श्रद्धा रखेंगे, प्रेरणा व सहायता प्राप्त करेंगे उसे कौन मारेगा, प्रत्युत उसकी तो भरपुर रक्षा की जाएगी। ये वेद-वर्णित शब्द कोरे सिद्धान्त के बोधक नहीं, अपितु नितान्त व्यावहारिक पक्ष प्रस्तुत करते हैं । यदि पत्नि के नाम इडा, रन्ती, हविष्मती, चन्द्रमुखी, ज्योति, अदिति, सरस्वती, मही व श्रुति हो सकते हैं, तो पति के भी इडापति, रन्तिदेव, हविष्मन्त, चन्द्र, ज्योतिस्वरूप, आदित्य, सारस्वत, महीपति व श्रवण नाम हो सकते हैं, जैसे योग्य चिकित्सक एक आरोग्यकारी औषधि का निर्माण करने के लिए भांति-भांति की अनेक जड़ी-बूटियों का मिश्रण तैयार करता है और रोगी को एक छोटी पुड़िया पकड़ा देता है। उसी प्रकार यह वेदमंत्र भी अनेक प्रतीकों के योग से एक सूत्र का सृजन करता है, जो किसी भी व्यक्ति को लोकप्रिय बना सकता हैं। विद्या--रमणीयता--साधन सम्पन्नता--कामनापूर्ति--आनन्द आदान प्रदान--श्रेष्ठ शील युक्त सुकीर्ति--आत्मविश्वास की दृढ़ता--आडम्बर पाखण्डरहित बुद्धि व वाणी--उच्चता--आजीवन ज्ञानार्जन व गुण ग्रहण=लोकप्रिय मधुर व्यक्तित्व। यहां पर रेखा (--) के चिन्ह इसलिए अंकित किए गए हैं, क्योंकि एक प्रतीक के होने से दूसरा प्रतीक प्रकट होने लगता है और इन सभी प्रतीकों का महायोग ही लोकप्रियता का अंतिम परिणाम है। साथ ही एक प्रतीक की प्राप्ति का संकेत उससे अगले प्रतीक से होता है।





एक-एक ग्रास से हमारी भूख शान्त होती है। एक-एक दिन के भोजन से हमारा रक्त-मज्जा और ऊर्जा बनते हैं, पर धीरे-धीरे, एकदम नहीं। इस प्रकार मंत्र में व्यक्त अभिलक्षण भी व्यक्ति में शनैःशनैः प्रवेश करके उसके व्यक्तित्व को संस्कारित करते रहते हैं। उसे पता नहीं चल पाता है और वह महान्‌ जनप्रिय बन जाता है। कहा गया है-

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा ऋतु आये फल होय।।


पर फल टपकने में देर नहीं लगती है। व्यक्ति को ऊंचा उठने में समय लगता है, गिरने में देर नहीं लगती। अतएव उठने के बाद गिरने से बचने के लिए सावधानी अपरिहार्य है। ऊपरी मंजिलों पर सीढ़ी पर सीढ़ी चढ़ते हैं, पर गिरने पर सीढ़ियां एकदम छूटती चली जाती हैं । व्यक्ति यकायक धड़ाम से नीचे आ जाता है।

जीवन जीने के दो व्यवहारिक पक्ष स्पष्ट हैं । एक घर के भीतर, दूसरा घर के बाहर। दोनों एक दूसरे को पालित, पोषित और पल्लवित करते हैं। घर से निकलते समय पारिवारिक माधुर्य को साथ लेकर जायें और घर में प्रवेश के समय बाहर के कलुष को वैसे ही बाहर रहने दें, जैसे स्वादिष्ट फल का रस मुंह में और छिलका बाहर।

किसी व्यक्ति को पता चला कि अमुक परिवार में अमृत फल है। वे उसके दर्शन हेतु वहां पहुंचे। वहां एक कृशकाय अतिवृद्ध व्यक्ति से भेंट हुई, जिसने बताया कि अमृतफल मेरे यहां नहीं, मेरे बड़े भाई के यहां हैं। वे पर्वत की तलहटी में रहते हैं। वे सज्जन वहां भी पहुंच गए। एक अधेड़ व्यक्ति से भेंट हुई। उसने कहा कि अमृतफल मेरे पास था, किंतु अब नहीं है। हां, मेरे बड़े भाई जो पर्वत के ऊपर रहते हैें, उनके पास है। सज्जन चढ़ाई को पार कर वहां भी पहुंचे और देखकर विस्मित हो गए कि ये सबसे बड़ा भाई तो जवान है। उनसे भी अमृतफल की चर्चा हुई और बड़े भाई ने दर्शन कराने का आश्वासन दे दिया। उस सबसे बड़े भाई ने अतिथि का स्वागत सत्कार किया और कई दिन तक उनका आतिथ्य करते रहे। एक दिन वे सज्जन बोले, मुझे अमृतफल का आपके यहां आभास तो हो रहा है आपके घर की सुख, शंाति, संतोष को देखकर, पर कृपया दर्शन भी करा दे,ं ताकि मैं अपने नगर को प्रस्थान करूं। बड़े भाई ने भोजन परोसने आई अपनी पत्नी की ओर संकेत करके कहा कि यही हमारा अमृत फल है। अतिथि सज्जन को मझले भाई की विवशता स्मरण हो उठी, जब उनको एक बार ही भोजन कराने के लिए पत्नी की झाड़ सुननी पड़ती थी और सबसे छोटे भाई तो एक बार अल्पाहार भी नहीं करा सके थे, होटल में चायपान कराके क्षमा मांग ली थी। जबकि सबसे बड़े भाई के यहां सुलभ आतिथ्य सहर्ष मिला और यही इनकी जवानी का रहस्य भी है। गृहिणी या पत्नी रूपी फल तो सर्वत्र है, पर जहां वे अमृत फलरूप धारण कर लेती हैं, वहां मानव का व्यक्तित्व शालीन, सु्‌हृद्‌ एवं सौम्य बन जाता है और इस प्रकार परिवार के व्यवहार में संसार का श़ृंगार देदीप्यमान हो उठता है।







Priyatam Kumar Mishra