Monday, July 16, 2012

जीवन मंत्र


स्पष्ट और शांत दिमाग रखें:
हममें से अधिकांश जरा सी समस्या सामने आने या कुछ गलत हो जाने मात्र से ही घबरा जाते हैं। हमारा ब्लड प्रेशर बढ़ जाता है। हम नर्वस हो जाते हैं। हमारा अंग-प्रत्यंग शिथिल सा होने लगता है। इसका सीधा असर हमारी सोचने की शक्ति पर पड़ता है। होना यह चाहिए कि संकट के समय हमें अन्य स्थितियों या समय की अपेक्षा और अधिक प्रभावी ढ़ंग से कार्य करना चाहिए। दिमाग को शांत करने कासबसे सरल उपाय है- ठंडा पानी पीना। गहरी-गहरी सांस लें और ध्यान-योग का सहारा लेते हुए हल्की आवाज में मधुर संगीत सुनें। इन उपायों को अपनाने के पश्चात आप स्वयं महसूस करेंगे कि आप उस समस्या से सकारात्मक ढ़ंग से जूझने के लिए बिलकुल तैयार हो गए हैं।
समस्याएं सूचीबद्ध करें:
अपनी हर समस्या को अपनी डायरी पर लिख लें और स्वयं को बद से बदतर स्थितिके लिए तैयार रखें। इन समस्याओं के साथ ही जीवन में आपकों जो भी कुछ हासिलहुआ हैजिससे आपको संतुष्टि और खुशी मिलती होउसे भी अपनी डायरी में लिखलें। उदाहरण के लिए- अपनी उन्नतिस्वास्थ्य एवं व्यक्तित्व से जुडी बातें। इसके लिए ईश्वर को धन्यवाद देते हुए इसका भी उल्लेख अपनी डायरी में करें। इसका सकारात्मक प्रभाव यह होगा कि आपका दिमाग समस्याओं से हटकर जीवन से जुड़ी अच्छी बातों और शक्तियों के बारे में सोचने लगेगा। इससे आपके दिमाग में ऊर्जा का संचार होगा और वह समस्याओं के निराकरण में अच्छी तरह से सोच सकेगा।
दूसरे भी समस्याग्रस्त हैं:
संभव है कि समस्या का सामना करते ही आपको अपना जीवन ही सर्वाधिकसंकटग्रस्त लगे। परन्तु इस क्रम में यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि प्रत्येक इंसान को समस्याएं घेरती ही हैं। इनसे न कोई बचा है और न ही कोई बचेगा। फिर इनसे घबराना कैसा आपकी तरह ही तमाम अन्य लोग भी किसी न किसी समस्या से ग्रस्त हैं और उनसे जूझ रहे हैं।
बच्चों को प्यार देना न भूलें:
समस्या से दो-चार होते ही अधिकांश अभिभावक सबसे पहले उसकी खीझ और कुंठाअपने बच्चों पर उतारते हैं। हालांकि बाद में इसका अपराधबोध भी होता हे। यहअपराधबोध आपमें निराशा और क्रोध का इजाफा होता है। इसलिए बच्चों के साथपहले जैसा पूर्ववत प्रेमपूर्ण व्यवहार बनाए रखें। इसका सकारात्मक प्रभाव यह होगा कि आपके बच्चों में मजबूत और दृढ़ इच्छा-शक्ति की भावना सुदृढ़ होगी।
छोटी बातों में तलाशें खुशियां:
समस्याओं से घिरकर भी छोटी-छोटी बातों में खुशियों को तलाशें। अक्सर लोगसमस्याग्रस्त होने पर अपनी दिनचर्या अस्त-व्यस्त कर लेते हैं। अगर वे बच्चों की मुस्कान पर आनन्द लें तो उनका व्याकुल मंन प्रसन्न-चित्त हो जाएगा। इसी तरह छोटी-छोटी बातों में आनन्द लें तो समस्या हल करने में उनका चित्त लगेगा।
अपनी दिनचर्या न छोड़ें:
किसी समस्या के सिर उठाने पर कुछ लोग अपना दैनिक व्यक्तिगत जीवन भूलजाते है और उसी समस्या को लेकर चिन्ताग्रस्त रहते हैं। अगर आप चाहते हैं किआपकी समस्या का समाधान हो तो सबसे पहले आप अपने को दु:ख एवं चिन्ता केसागर में डुबोने के बजाय नियमित दिनचर्या का पहले की तरह ही पालन करें। इससे एक तो सामान्य स्थिति का अहसास होगा और दूसरे व्यस्त रहने से कुछ देर के लिए ही सही दुश्चिन्ताओं से मुक्ति मिलेगी।
रात के बाद सुबह आती है:
अपने को इस तथ्य से सदैव अवगत कराते रहें कि हर रात के बाद सुबह आती है।वक्त का कोई दौर स्थाई नहीं होता। स्थितियां अच्छे के लिए ही आकार लेती हैं। घैर्य और सकारात्मक नजरिए से स्थितियां अनुकूल बनाने में देर नहीं लगती हैं।
अपनी क्षमता को पहचानें:
विपरीत परिस्थितियों से गुजर कर ही इंसान मजबूत बनता है। ठीक वैसे ही जैसे आग में तपकर सोना और निखरता है। समस्याओं को चुनौती के रूप में लें औरस्वयं को दबाब और तनाव में बिखरने न दें। जितनी चुनौतियों का आप सामनाकरेंगेउतने ही आप मजबूत होते जाएंगे। यानि तब समस्याएं आपको न तो हिलापाएंगी और न ही डिगा पाएंगी।






Priyatam Kumar Mishra

शिव के बारह ज्योतिर्लिंग

शिव के बारह ज्योतिर्लिंग~~~

भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंग देश के अलग-अलग भागों में स्थित हैं। इन्हें द्वादश ज्योतिर्लिंग के नाम से जाना जाता है।

इन ज्योतिर्लिंग के दर्शन, पूजन, आराधना से भक्तों के जन्म-जन्मातर के सारे पाप व दुष्क्रत्य समाप्त हो जाते हैं। वे भगवान शिव की कृपा के पात्र बनते हैं। 

श्री सोमनाथ
श्री मल्लिकार्जुन
श्री महाकालेश्वर
श्री ओंकारेश्वर-श्री ममलेश्वर
श्री केदारनाथ
श्री विश्वनाथ
श्री त्र्यम्बकेश्वर
श्री वैद्यनाथ
श्री नागेश्वर
श्री रामेश्वर
श्री घुश्मेश्वर
श्री भीमेश्वर
शिव के आठ स्वरुप~~~


सृष्टि संचालन के लिए शिव आठ रूप धारण किए हुए हैं। चराचर विश्व को पृथ्वी रूप धारण करते हुए वह शर्व अथवा सर्व हैं। सृष्टि को संजीवन रूप प्रदान करने वाले जलमयरूप में वह भव हैं। सृष्टि के भीतर और बाहर रहकर सृष्टि स्पंदित करने वाला उनका रूप उग्र है। सबको अवकाश देने वाला, नृपोंके समूह का भेदक सर्वव्यापी उनका आकाशात्मकरूप भीम कहलाता है। संपूर्ण आत्माओं का अधिष्ठाता, संपूर्ण क्षेत्रवासी, पशुओं के पाश को काटने वाला शिव का एक रूप पशुपति है। 

सूर्य रूप से आकाश में व्याप्त समग्र सृष्टि में प्रकाश करने वाले शिव स्वरूप को ईशान कहते हैं। रात्रि में चंद्रमा स्वरूप में अपनी किरणों से सृष्टि पर अमृत वर्षा करता हुआ सृष्टि को प्रकाश और तृप्ति प्रदान करने वाला उनका रूप महादेव है। शिव का जीवात्मा रूप रुद्र कहलाता है। सृष्टि के आरंभ और विनाश के समय रुद्र ही शेष रहते हैं। सृष्टि और प्रलय, प्रलय और सृष्टि के मध्य नृत्य करते हैं। जब सूर्य डूब जाता है, प्रकाश समाप्त हो जाता है, छाया मिट जाती है और जल नीरव हो जाता है उस समय यह नृत्य आरंभ होता है। तब अंधकार समाप्त हो जाता है और ऐसा माना जाता है कि उस नृत्य से जो आनंद उत्पन्न होता है वही ईश्वरीय आनंद है। 


शिव,महेश्वर, रुद्र, पितामह, विष्णु, संसार वैद्य, सर्वज्ञ और परमात्मा उनके मुख्य आठ नाम हैं। तेईस तत्वों से बाहर प्रकृति,प्रकृति से बाहर पुरुष और पुरुष से बाहर होने से वह महेश्वर हैं। प्रकृति और पुरुष शिव के वशीभूत हैं। दु:ख तथा दु:ख के कारणों को दूर करने के कारण वह रुद्र कहलाते हैं। जगत के मूर्तिमान पितर होने के कारण वह पितामह, सर्वव्यापी होने के कारण विष्णु, मानव के भव रोग दूर करने के कारण संसार वैद्य और संसार के समस्त कार्य जानने के कारण सर्वज्ञ हैं। अपने से अलग किसी अन्य आत्मा के अभाव के कारण वह परमात्मा हैं। ॐ नमोः शिव सांई~~~

पतित पावन परम पिता परमात्मा शिव,
गीता ज्ञान दाता दिव्य चक्षु विधाता शिव~~~


'शि' का अर्थ है पापों का नाश करने वाला और 'व' कहते हैं मुक्ति देने वाले को। भोलेनाथ में ये दोनों गुण हैं इसलिए वे शिव कहलाते हैं। -ब्रह्मवैवर्त पुराण

ॐ नमोः शिव सांई~~~  

शंकर शिव शम्भु साधु संतन हितकारी ॥

लोचन त्रय अति विशाल सोहे नव चन्द्र भाल ।
रुण्ड मुण्ड व्याल माल जटा गंग धारी ॥

पार्वती पति सुजान प्रमथराज वृषभयान ।
सुर नर मुनि सेव्यमान त्रिविध ताप हारी ॥









Priyatam Kumar Mishra

Wednesday, July 11, 2012


दोनों पति और पत्नी का पृथक्‌-पृथक्‌ ही नहीं, सम्मिलित प्रभाव भी समाज पर पड़ता है । समाज भी इनको अपने प्रभाव में ढ़ालने के लिए यत्नशील रहता है। पति अधिकारी, कर्मचारी, व्यापारी, प्राघ्यापक, अधिवक्ता, अभियन्ता, चिकित्सक आदि किसी भी क्षमता से जब अपने कार्य-स्थल पर पहुंचता है और यदि वह किंचित्‌ असामान्य या विवादयुक्त व्यवहार करता है तो लोग यही कहते हैं,लगता है आज श्रीमान घर से लड़ कर आये हैं। ऐसे ही यदि वे घर में असामान्य व्यवहार करते हैं, तो कहा जाता है कि श्रीमान कार्यालय में झगड़ कर आये हैं। इस प्रकार परिवार से समाज, समाज से परिवार तक व्यक्तित्व के विकास-ह्रास की ये द्विपथी प्रणाली निरंतर चलती रहती है और अनजाने ही हम अपना एक निश्चित रूप निर्धारण कर लेते हैं।

आपके हाथ में एक फूल है-रंगीन व सुगंधित, या आपके हाथ में एक फल है सुन्दर और स्वादु। इनके गुणों की क्या गणना ! एक फूल या फल यों ही नहीं बन गया। इसके पीछे एक पादप था। पादप में जड़ें, शाखायें, टहनियां व पत्तियां थी। इनके भी पीछे माली का पोषण और प्रशिक्षण था। इसी प्रकार मधुर जीवन-व्यवहार और लोकप्रिय आकर्षक व्यक्तित्व के निर्माण में कोई एक ही तत्व नहीं, अपितु अनेक कारकों का समावेश होता है।

क्षण-क्षण के वाक्यबाण घर-परिवार-समाज, यहां तक कि पति-पत्नी के व्यक्तित्व को प्रभावित करते हैं, इनको यदि उचित मोड़ दे दिया जाता है तो कुशल, अन्यथा उथल-पुथल हो जाती है । आकर्षक व्यक्तित्व के निर्माण में जिन तत्वों की अपरिहार्य सहभागिता है, उनका वर्णन इस वेद-मंत्र में हमें सहज ही मिल जाता है। देखियेः-


इडे रन्ते हव्ये काम्ये चन्द्रे ज्योति अदिते सरस्वति महि विश्रुति ।
एता ते अध्न्ये नामानि देवेभ्यो मा सुकृतं ब्रूतात्‌।। 


'इडे"-विद्यादि प्रशंसनीय गुण होना आवश्यक है। विद्या से ही कार्य में कुशलता आती है। कार्य-सक्षम होने पर भी अभिमान नहीं होना चाहिये। अभिमानी होने से सक्षम व्यक्ति से भी लोग दूर रहेंगे। विद्या-वृद्धि के साथ-साथ व्यक्ति में नम्रता-सुकोमलता का विकास वैसे ही होना चाहिए, जैसे फलों से लद जाने पर वृक्षों की टहनियां झुक जाती हैं। ऐसा व्यक्ति 'रन्ते" रमणीक-रमणीय सहज व सुन्दर हो जायेगा, तो अन्य लोग उससे श्रद्धा करेंगे और उसके समीप जायेंगे। कुशलता और कोमलता अथवा विद्या ये सुन्दरता - 'हव्ये" अर्थात्‌ हवि या रचनात्मक साधन-सामग्री से परिपूर्ण होनी चाहिये। विद्या-सुन्दरता या वस्तु भण्डार इनमें से कुछ या सब कुछ जब आपके पास होगा, तभी आपका 'काम्ये" कमनीय मनमोहक स्वरूप किसी को अपनी ओर आकर्षित कर सकेगा। लोग अपनी कोई कामना लेकर आपके पास आयेंगे। कामना पूर्ण कर देने पर फिर वही व्यक्ति 'चन्द्रे" अत्यंत आनन्द देने वाला बन जायेगा। चन्द्रमा की चन्द्रिका अपने शीतल प्रकाश के लिये प्रसिद्ध है। यह आदान-प्रदान की सूचक भी है। चन्द्रमा सूर्य से प्रकाश लेता है, पृथ्वी को देता भी है, वह भी सूर्य की प्रचण्ड उष्णता को समाप्त कर मोदमय शीतल स्वरूप में। चन्द्रमा चाहे द्वितीया का हो या पूर्णिमा का उसके राज्य में तारागण मुदते ही नहीं टिमटिमाते रहते हैं, जबकि सूर्य के राज्य में सब छिप जाते हैं, वह अकेला ही रह जाता है। 'चन्द्र" स्वभाव होने पर व्यक्ति 'ज्योति" श्रेष्ठ शील से ज्योतित हो उठेगा। अग्नि की ज्वाला भस्म कर देती है, परन्तु ज्योति प्रकाश ही नहीं देती, अपितु उसे पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाती है। एक दीपक से अनेक अनेक दीपक जलते रहते हैं । ज्वाला अपनी लपट में लपेटकर अपने आधार को राख करके स्वयं का अस्तित्व खो देती है, किन्तु दीपक की ज्योति एक परम्परा बन जाती है। परम्परागत त्याग की शक्ति विकसित होने पर व्यक्ति में 'अदिते" -आत्मिक दृढ़ता स्थापित होती है और साथ ही उसे अंधविश्वास एवं आडम्बर से रहित 'सरस्वती"-प्रशंसित विज्ञानमयी बुद्धि और सरस वाणी प्राप्त हो जाती है। यही सरस्वती व्यक्ति को ऊंचा उठाकर 'महि"-चरमोत्कर्ष,सफलता एवं उच्चता तक पहुंचा देती है। "महि' भूमि को भी कहते हैं, जिसका विशेष गुण क्षमा होता है। ''क्षमा बड़न को चाहिए छोटन को उत्पात"" की बात इसी से पूर्ण होती है। इससे यह भी संकेत मिलता है कि आकाश तक सिर ऊंचा उठ जाने पर भी चरण धरती पर जमे रह ने चाहिएं। ऊंचाईयों पर चढ़ने के बाद भी 'विश्रुति"-वेदाध्ययन-पठन-पाठन-स्वाध्याय और अच्छी-अच्छी बातें जानने के लिए अपने मस्तिष्क के द्वार बंद नहीं कर लेने चाहिएं।

उक्त क्रमानुसार जिस व्यक्ति का विकास होगा वह वास्तव में 'अघ्न्ये" अताड़नीय हो जायेगा। जिसका लोग आदर करेंगे, श्रद्धा रखेंगे, प्रेरणा व सहायता प्राप्त करेंगे उसे कौन मारेगा, प्रत्युत उसकी तो भरपुर रक्षा की जाएगी। ये वेद-वर्णित शब्द कोरे सिद्धान्त के बोधक नहीं, अपितु नितान्त व्यावहारिक पक्ष प्रस्तुत करते हैं । यदि पत्नि के नाम इडा, रन्ती, हविष्मती, चन्द्रमुखी, ज्योति, अदिति, सरस्वती, मही व श्रुति हो सकते हैं, तो पति के भी इडापति, रन्तिदेव, हविष्मन्त, चन्द्र, ज्योतिस्वरूप, आदित्य, सारस्वत, महीपति व श्रवण नाम हो सकते हैं, जैसे योग्य चिकित्सक एक आरोग्यकारी औषधि का निर्माण करने के लिए भांति-भांति की अनेक जड़ी-बूटियों का मिश्रण तैयार करता है और रोगी को एक छोटी पुड़िया पकड़ा देता है। उसी प्रकार यह वेदमंत्र भी अनेक प्रतीकों के योग से एक सूत्र का सृजन करता है, जो किसी भी व्यक्ति को लोकप्रिय बना सकता हैं। विद्या--रमणीयता--साधन सम्पन्नता--कामनापूर्ति--आनन्द आदान प्रदान--श्रेष्ठ शील युक्त सुकीर्ति--आत्मविश्वास की दृढ़ता--आडम्बर पाखण्डरहित बुद्धि व वाणी--उच्चता--आजीवन ज्ञानार्जन व गुण ग्रहण=लोकप्रिय मधुर व्यक्तित्व। यहां पर रेखा (--) के चिन्ह इसलिए अंकित किए गए हैं, क्योंकि एक प्रतीक के होने से दूसरा प्रतीक प्रकट होने लगता है और इन सभी प्रतीकों का महायोग ही लोकप्रियता का अंतिम परिणाम है। साथ ही एक प्रतीक की प्राप्ति का संकेत उससे अगले प्रतीक से होता है।





एक-एक ग्रास से हमारी भूख शान्त होती है। एक-एक दिन के भोजन से हमारा रक्त-मज्जा और ऊर्जा बनते हैं, पर धीरे-धीरे, एकदम नहीं। इस प्रकार मंत्र में व्यक्त अभिलक्षण भी व्यक्ति में शनैःशनैः प्रवेश करके उसके व्यक्तित्व को संस्कारित करते रहते हैं। उसे पता नहीं चल पाता है और वह महान्‌ जनप्रिय बन जाता है। कहा गया है-

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा ऋतु आये फल होय।।


पर फल टपकने में देर नहीं लगती है। व्यक्ति को ऊंचा उठने में समय लगता है, गिरने में देर नहीं लगती। अतएव उठने के बाद गिरने से बचने के लिए सावधानी अपरिहार्य है। ऊपरी मंजिलों पर सीढ़ी पर सीढ़ी चढ़ते हैं, पर गिरने पर सीढ़ियां एकदम छूटती चली जाती हैं । व्यक्ति यकायक धड़ाम से नीचे आ जाता है।

जीवन जीने के दो व्यवहारिक पक्ष स्पष्ट हैं । एक घर के भीतर, दूसरा घर के बाहर। दोनों एक दूसरे को पालित, पोषित और पल्लवित करते हैं। घर से निकलते समय पारिवारिक माधुर्य को साथ लेकर जायें और घर में प्रवेश के समय बाहर के कलुष को वैसे ही बाहर रहने दें, जैसे स्वादिष्ट फल का रस मुंह में और छिलका बाहर।

किसी व्यक्ति को पता चला कि अमुक परिवार में अमृत फल है। वे उसके दर्शन हेतु वहां पहुंचे। वहां एक कृशकाय अतिवृद्ध व्यक्ति से भेंट हुई, जिसने बताया कि अमृतफल मेरे यहां नहीं, मेरे बड़े भाई के यहां हैं। वे पर्वत की तलहटी में रहते हैं। वे सज्जन वहां भी पहुंच गए। एक अधेड़ व्यक्ति से भेंट हुई। उसने कहा कि अमृतफल मेरे पास था, किंतु अब नहीं है। हां, मेरे बड़े भाई जो पर्वत के ऊपर रहते हैें, उनके पास है। सज्जन चढ़ाई को पार कर वहां भी पहुंचे और देखकर विस्मित हो गए कि ये सबसे बड़ा भाई तो जवान है। उनसे भी अमृतफल की चर्चा हुई और बड़े भाई ने दर्शन कराने का आश्वासन दे दिया। उस सबसे बड़े भाई ने अतिथि का स्वागत सत्कार किया और कई दिन तक उनका आतिथ्य करते रहे। एक दिन वे सज्जन बोले, मुझे अमृतफल का आपके यहां आभास तो हो रहा है आपके घर की सुख, शंाति, संतोष को देखकर, पर कृपया दर्शन भी करा दे,ं ताकि मैं अपने नगर को प्रस्थान करूं। बड़े भाई ने भोजन परोसने आई अपनी पत्नी की ओर संकेत करके कहा कि यही हमारा अमृत फल है। अतिथि सज्जन को मझले भाई की विवशता स्मरण हो उठी, जब उनको एक बार ही भोजन कराने के लिए पत्नी की झाड़ सुननी पड़ती थी और सबसे छोटे भाई तो एक बार अल्पाहार भी नहीं करा सके थे, होटल में चायपान कराके क्षमा मांग ली थी। जबकि सबसे बड़े भाई के यहां सुलभ आतिथ्य सहर्ष मिला और यही इनकी जवानी का रहस्य भी है। गृहिणी या पत्नी रूपी फल तो सर्वत्र है, पर जहां वे अमृत फलरूप धारण कर लेती हैं, वहां मानव का व्यक्तित्व शालीन, सु्‌हृद्‌ एवं सौम्य बन जाता है और इस प्रकार परिवार के व्यवहार में संसार का श़ृंगार देदीप्यमान हो उठता है।







Priyatam Kumar Mishra

अनुकूल आचरण करे

जहां सहृदयता होगी, वहीं पर सांमनस्य पनप सकेगा अर्थात्‌ एक दूसरे के प्रति स्वाभाविक रूप से मन में शुभ विचारों की सृष्टि होंगी। चूंकि मन के अधीन सम्पूर्ण इन्द्रियां होती है इसलिए जैसे मन के विचार होते है वैसे ही अन्य सब इन्द्रियों के व्यवहार होते हैं। अतः अन्य सब इन्द्रियों से उत्तम और प्रशस्त व्यवहारों की सृष्टि उत्पन्न करने के लिए मन में शुभ विचारों का होना आवश्यक है तथा शुभ विचारों के लिए परस्पर मे सहृदयता की आवश्यकता होती है और सहृदयता तब उत्पन्न होती है जब मनुष्य विद्वेष को छोड़कर एक दूसरे के दुःख और सुख में दुःख और सुख का अनुभव करने लगे। ऐसा करने पर हमारे जीवन में अगला उपदेश सहज ही समा सकेगा। वह यह है कि तुम एक दूसरे को ऐसे चाहो-एक दूसरे से ऐसा स्नेहपूर्ण व्यवहार करो जैसे गौ अपने नवजात बछड़े से करती है।
पारिवारिक जीवन में आगे वेद परस्पर व्यावहारिक जीवन पर प्रकाश डालता है-

अनुव्रतः पितुः पुत्रो मात्रा भवतु संमनाः।
जाया पत्ये मधुवर्तीं वाचं वदतु शांतिवाम्‌।। 


पुत्र पिता का अनुव्रती-अनुकूल कर्म करने वाला अर्थात्‌ आज्ञाकारी हो और माता के साथ एक मन होकर आचरण करने वाला हो। पत्नी पति के प्रति मधुमयी शान्तिदायक वाणी बोले।

इस मन्त्र में वेद ने आदेश दिया है कि परिवार में पुत्र का कर्तव्य है कि वह पिता का अनुव्रती हो। इस वाक्य से पुत्री भी पिता के अनुकूल आचरण करे, ऐसा ग्रहण कर लेना चाहिए।

वेद के इस उपदेश से मनुष्य के मन में यह संदेह उत्पन्न हो सकता है कि क्या पिता की सभी आज्ञाओं का पालन करना चाहिए ? अनेक बार ऐसी घटनाएं देखी जाती हैं, जिनमें एक पिता पुत्र को गोदी में बिठाकर स्वयं बीड़ी पीता हुआ उसे भी पीने को प्रेरित करता हुआ प्यार से उसके मुख में अपने ही हाथ से बीड़ी रखता है। इसी प्रकार एक पिता अपने बेटे को अच्छे साहित्य के पड़ने और सत्संग में जाने से रोकता है,एक बेटे को मांस अण्डे खाने को प्रेरित करता है- यह सोचकर कि बेटा शक्तिशाली बनेगा इत्यादि। इस प्रकार के संदेहों का वेद ने बहुत ही सुन्दर रूप से निवारण कर दिया है। वेद ने यहां "अनुव्रत' शब्द दिया है, जिसका तात्पर्य यह है कि उसके पिता के जीवन में जो व्रत हों, श्रेष्ठ कर्म हों या उनके जो आदेश श्रेष्ठ हों ''व्रतमनु इति अनुव्रत"" उन्हीं के अनुकूल चलना, उन्हीं को मानना ही पुत्र का धर्म है। इसके विपरीत अपने पिता के असद्‌ उपदेशों और उलटे कार्यों का शिष्टाचार एवं मधुरता पूर्वक समझा-बुझाकर परित्याग करना ही उसका कर्तव्य है। इसी प्रकार पुत्र एवं पुत्री अपनी माता के मन से अपना मन एक करके अर्थात्‌ उनकी मनोभावनाओं का यथेष्ट सम्मान करते हुए व्यवहार करें।

परिवार में जहां माता-पिता अपनी आने वाली सन्तान से यह आशा रखें वहां उनका स्वयं का भी कर्तव्य है कि उनके सम्मुख जीवन में पग-पग पर अपने व्यवहार द्वारा ऐसा आदर्श उपस्थित करें कि जिसे देखकर उन्हें अर्थात्‌ बालकों को अपने माता-पिता पर गर्व अनुभव हो और वे अपने आपको भाग्यशाली समझें तथा प्रभु का हृदय से धन्यवाद करें, जिसने उन्हें ऐसे अच्छे आदर्श धार्मिक माता-पिता प्रदान किये। उनका संतान के प्रति उपदेश शब्दों से नहीं अपितु व्यवहारों से प्रस्फुरित हो। इसलिए वेद ने कहा कि पत्नी को पति से मधु के समान मधुर शान्तिमय सम्भाषण करना चाहिये और ऐसा ही पति को भी। पति-पत्नी का परस्पर का यह आदर्श दिव्य व्यवहार आने वाली यदि आवश्यकता पड़ने पर कुछ उपदेश भी माता-पिता द्वारा दिया जायेगा तो सन्तान उस उपदेश को श्रद्धापूर्वक शिरोधार्य करने में सुख अनुभव करेगी ।





वेद में पारिवारिक जीवन को सुखमय बनाने के लिए सामूहिक रूप में तथा व्यक्तिगत रूप में भी बहुत सी सुन्दर प्रेरणाएं दी गई हैं। इस प्रसंग में अर्थववेद के ''सांमनस्य सूक्त"" पर विचार किया जा रहा है। इस सूक्त में परस्पर मिलकर द्वेष भाव को छोड़कर इस प्रकार कार्य करने का उपदेश दिया गया है, जिससे हम सब में 'सांमनस्य" उत्पन्न हो, सबके मन में एकीकरण की भावना हो, सहृदयता हो । अर्थात्‌ एक दूसरे के दुःख में दुःख और सुख में सुख अनुभव करने की भावना सदा बढ़ती रहे। इस प्रकार के विस्तृत सामाजिक जीवन का आरम्भ घर से होता है।


उप नः सूनव गिरः श़ृण्वत्वमृतस्य ये.। सुमृडीका भवन्तु नः।। 

जो हमारी सन्तान हैं, पुत्र-पौत्रादि है, वे अमृतस्वरूप परमेश्वर की वेद वाणियों को गुरु चरण में बैठकर या ज्ञानी वेदज्ञ उपदेशक या संन्यासी महात्माओं के समीप बैठकर श्रवण करें, जिससे कि वे हमारे लिए सुखकर हों।
इस मन्त्र से एक उपदेश हमें यह मिलता है कि वेद के स्वाध्याय को अपना परमधर्म मानकर नित्य प्रति उसका स्वाध्याय करें, श्रवण, मनन और निदिध्यासन करें । समय-समय पर ज्ञानी वेदज्ञ विद्वानों एवं संन्यासी महात्माओं को अपने परिवारों में बुलाकर उनके प्रवचन कराएं, जिससे कि हमारी आने वाली संतति उन्हें सुने-समझे और उनके अनुकूल आचरण करे। इस प्रकार आचरण करने वाली सन्तति निःसन्देह हमारे लिए सुखकर होगी, यशस्कर होगी।

परिवार जन किस प्रकार परस्पर सहृदयता, सामंजस्य और अविद्वेष की भावना को अपने में उत्पन्न करें, इसका इस सूक्त के प्रथम मंत्र में वेद हमें उपदेश देता है-

सहृदयं सांमनस्यमविद्वेषं कृणोमि वः।
अन्यो अन्यमभिहर्यत वत्सं जातमिवाघ्न्या।।


हे मनुष्यो! मैं तुम्हारे विद्वेष भाव को दूर करता हूं और उसके स्थान पर तुममें सहृदयता तथा सांमनस्य को उत्पन्न करता हूं जिससे कि तुम्हारी एक-दूसरे के प्रति भावना और तुम्हारा एक-दूसरे के प्रति किया हुआ चिन्तन आत्मीयतापूर्वक हो। तुम परस्पर एक-दूसरे को ऐसे चाहो, ऐसे स्नेह करो, जैसे नवजात बछड़े को गौ माता स्नेह करती है।

इस मन्त्र के द्वारा वेद भगवान उपदेश देते हैं कि हे मनुष्यो ! तुम्हारे अन्दर किन्हीं भी कारणों से एक-दूसरे के प्रति वैर भाव आ गया है, जिसके कारण परस्पर में एक-दूसरे को देखकर तुम्हारे अ्रन्दर प्रीति या तृप्ति नहीं उत्पन्न होती, ऐसे विद्वेष भाव को मैं सर्वथा बाहर निकालकर तुम्हारे अन्दर वे भाव भरना चाहता हूं जिनके परिणामस्वरूप तुम्हें एक-दूसरे को देखकर ऐसी प्रीति, ऐसी तृप्ति अनुभव हो जैसी कि ग्रीष्म ऋतु में एक प्यासे को शीतल जल के प्राप्त हो जाने से मिल जाती है। इसके लिए मैं तुममें 'सहृदयता' लाना चाहता हूं। सहृदयता क्या है ? परिवार में एक-दूसरे के दुःख को देखकर दुःख और सुख को देखकर सुख अनुभव करना ही सहृदयता कहलाती है। जिस परिवार के सदस्यों में सहृदयता नहीं होती उस परिवार के सदस्यों में प्रीति अर्थात्‌ एक-दूसरे को देखकर तृप्ति का अनुभव होना असंभव है। इसलिए जो महानुभाव अपने परिवार में प्रीति की बेल बोना चाहते हैं, उन्हें उसकी जड़ों को सहृदयता के जल से सींचना होगा। तभी वह बेल हरी-भरी अर्थात्‌ फल-फूल सकेगी।







Priyatam Kumar Mishra

सुखी परिवार के वैदिक सूत्र

परिवार में मिल जुलकर प्रेमपूर्वक कार्य करने के परिणामस्वरूप घर में जो वैभव आए, उसके उपभोग में यदि कहीं भी भेदभाव आ गया, तो परिवार के संगठन को ठेस लगने की सम्भावना हो सकती है। अतः वेद अग्रिम मन्त्र में उपदेश देता है -

समानी प्रपा सह वःअन्नभागः समाने योक्त्रे सह वो युनज्मि।
सम्यञ्चः अडग्निं सपर्यतारा नाभिमिवाभितः।। 


हे परिवार में प्रेमपूर्वक निवास करने वाले मनुष्यो ! तुम्हारा दुग्धादि पदार्थों का पान समान हो, तुम्हारा भोजन एक जैसा हो और साथ-साथ हो अर्थात्‌ तुम्हारा खानपान एक जैसा हो, उसमें किसी प्रकार का भेदभाव न हो। प्रेमपूर्वक सब एक साथ मिलकर खाओ-पीओ, भले ही तुम्हारे पात्र पृथक्‌-पृथक्‌ हों। क्योंकि इस प्रकार मिलकर साथ बैठकर खाने का भी एक अपने ढंग का आनन्द है। एक जुए में, मैं तुम सबको साथ -साथ जोड़ता हूं अर्थात्‌ तुम सब अपने आपको एक ही परिवार के संगठन में ऐसे बंधा हुआ समझो, जैसे कि रथ की नाभि के चहुं ओर अरे जुडे हुए होते हैं। इस प्रकार तुम सब मिलकर एक दूसरे का आदर सम्मान करते हुए प्रकाश स्वरूप प्रभु की पूजा करो, अग्निहोत्र अर्थात्‌ यज्ञ करो अथवा मिलजुल कर एक जैसी संकल्पाग्नि को मन में प्रज्ज्वलित करो और उसमें अपनी-अपनी सेवा की आहुति प्रदान कर घर के वातावरण को सुगन्धित करो।

इस मन्त्र के आधार पर जिस परिवार में सभी मनुष्य प्रातःकाल उठकर नहा धोकर एक साथ बैठकर जब संध्या उपासना और भजन करते होंगे, सब मिलकर वेद के पावन मन्त्रों से अग्नि देवता के चारों ओर बैठकर यज्ञ करते होंगे, अपने-अपने भाग की आहुति देते होंगे, सब मिलकर परिवार के अभ्युत्थान के लिए मनों में संकल्पाग्नि को प्रज्ज्वलित करते होंगे, पुनः सब एक साथ बैठकर दुग्धादि पदार्थों का पान एवं भोजन करते होंगे, मिलकर कार्य करते होंगे, मिलकर स्वाध्याय-सत्संग तथा शयनादि के पावन मन्त्रों का पाठ करने के उपरान्त जब सो जाते होंगे, तो उनका केवल मात्र दैनिक व्यवहार ही प्रसन्नता और प्रेरणा का स्त्रोत नहीं रहेगा, बल्कि उनका चैन से सोना भी सबको अपनी ओर आकर्षित किये बिना नहीं रहेगा । वेद आगे कहता है कि -

सध्रीचीनान्‌ वः सम्मनसस्कृणोम्येकश्नुष्टीन्त्संवननेन सर्वान्‌।
देवा इवाअमृतं रक्षमाणाः सायं प्रातः सौमनसो वो अस्तु।। 


इस प्रकार परस्पर मिलजुल कर पदार्थों के सेवन से या उत्तम सेवा भाव से तुम सबको एक साथ मिलकर पुरुषार्थ करने वाला, एक मन होकर विचार करने वाला तथा परिवार में एक को अपना बड़ा मानकर उसकी आज्ञा में चलने वाला या एक ध्येय को लेकर कार्य करने वाला बनाता हूं। अपने अमरत्व की रक्षा करते हुए देवों के समान प्रातः सायं तुम सबका सौमनत्व बना रहे।

इस मन्त्र का भाव यह है कि परिवार के सभी सदस्य जब एक साथ मिलकर बिना भेदभाव के परिवार के पदार्थों का उपभोग करते हैं, तो वे सब उस घर के अभ्युत्थान के लिये अपनी-अपनी योग्यता और सामर्थ्य के अनुसार समान रूप से एक पताका के नीचे उद्योग करते रहते हैं। ऐसा करते हुए वे सब अपने लक्ष्य की प्राप्ति में सफल होते हैं।

सूक्त के उपसंहार में वेद हमें एक सारगर्भित उपदेश देता है, वह यह कि हे परिवार में निवास करने वाले मनुष्यो! जैसे देवजन ज्ञानी महानुभाव सभी प्रकार से अपने अमरत्व की रक्षा करते हैं अर्थात्‌ जगत्‌ से विदा हो जाने के उपरान्त भी अपने कार्यों से अपने को अमर बनाकर सुदीर्घ काल तक आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा के स्त्रोत बने रहते है, वैसे ही तुम्हारे इस वैदिक आदर्श परिवार का मूल मन्त्र "सौमनस' हो। यदि तुममें "सौमनस' बना रहा तो सुमन के परिणामस्वरूप तुम सुमन (पुष्प=फूल) के समान खिल जाओगे, प्रसन्नता से विभोर हो जाओगे और अपने परिवाररूपी वाटिका के सुमनों के खिल जाने के परिणामस्वरूप अपने सत्कर्मों की पावन सुगन्धि से सारे वातावरण को सुगन्धित कर सकोगे।

भगवान हर मनुष्य को ऐसी सद्बुद्धि और सामर्थ्य प्रदान करे, जिससे कि वह अपने परिवार को आदर्श परिवार के रूप में खड़ा कर सके, क्योंकि ऐसा करके ही वह परिवार स्वयं सुखी हो सकेगा और अन्यों के लिए भी प्रेरणा का स्त्रोत बन सकेगा ।




परिवार में एक पुत्र या पुत्री के उत्पन्न होने के पश्चात यदि दूसरा पुत्र या पुत्री उत्पन्न हो, तो उसका माता-पिता के प्रति तो वही व्यवहार रहना चाहिये जो उपर्युक्त मन्त्र में निर्देश किया गया है। परंतु उनका परस्पर में कैसा व्यवहार होना चाहिये, इसके सम्बन्ध में वेद उपदेश देता है-

मा भ्राता भ्रातारं द्विक्षन्‌ मा स्वसारमुत स्वसा।
सम्यंचः सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया।। 


भाई भाई से द्वेष न करें, बहिन बहिन से द्वेष न करें, समान गति से एक-दूसरे का आदर सम्मान करते हुए परस्पर मिल जुलकर कर्मों को करने वाले होकर अथवा एक मत से प्रत्येक कार्य करने वाले होकर भद्रभाव से परिपूर्ण होकर सम्भाषण करो।

इस मन्त्र में जहां यह बतलाया गया है कि भाई, भाई से और बहिन, बहिन से द्वेष न करें, वहां इससे यह उपदेश भी ग्रहण करना चाहिए कि भाई, बहिन से और बहिन, भाई से भी द्वेष न करें। भाई-भाई को, बहिन-बहिन को, भाई-बहिन को और बहिन-भाई को परस्पर में ऐसा व्यवहार करना चाहिये, जिससे वे एक दूसरे को देखकर तृप्त हों, गद्गद्‌ हों। वे सदा एक दूसरे का आदर सम्मान करते हुए स्नेहपूर्वक मिलजुल कर कार्य करें और लक्ष्य की प्राप्ति के लिए समान रूप से प्रयत्नशील रहें। उनके व्रत-कर्म समान हों, श्रेष्ठ हों। यह समान कर्म और समान भाव से उनका किया हुआ पुरुषार्थ उनको निश्चित रूप से अपने उद्‌देश्य की ओर अग्रसर करता रहेगा।

इस प्रकार पारिवारिक अभ्युत्थान में संलग्न भाई-बहिनों को परस्पर में सम्भाषण भी ऐसा करना चाहिये, जो भद्र भाव से परिपूर्ण हो अर्थात्‌ बोलते समय यह विचारकर सब बोलें कि हमारे बोलने में कल्याण हो। अपवाद को छोड़कर दुर्भाग्य से आज परिवारों में भाई-भाई आदि वह वाणी भी नहीं बोल पाते, जो उनके इस लोक को ही सुखमय बना सके, परलोक की बात तो क्या कहें? फिर भी आश्चर्य है कि आज हम अपने आपको सभ्यता के उच्च शिखर पर विराजमान अनुभव करते हैं।

वास्तव में इन वैदिक दिव्य व्यवहारों से जो परिवार सम्पन्न रहेगा, वह कितना धन्य होगा !
सूक्त के अग्रिम मन्त्र में वेद उपदेश देता है कि-

येन देवा न वियन्ति नच विद्विषते मिथाः।
तत्कृण्मो ब्रह्म वो गृहे संज्ञानं पुरुषेभ्यः।। 


हे मनुष्यो! जिससे देवजन परस्पर पृथक-पृथक नहीं होते और न ही परस्पर विद्वेष करते है अर्थात्‌ जिसको पाकर देव जन सदा संगठित रहते हैं और एक दूसरे को देखकर फूले नहीं समाते, वह परस्पर एकता उत्पन्न करने वाला दिव्य ज्ञान तुम्हारे घर में सबके लिए समान रूप से प्राप्त हो।

इस मन्त्र से यह भाव निकलता है कि जो दिव्य ज्ञान सदा देवों को एक सूत्र में पिरोए रखता है, उनमें परस्पर प्रेम की गंगा बहाए रखता है, जिसके कारण न तो वे एक दूसरे के विपरीत आचरण करते हैं और न ही परस्पर में वे द्वेष करते हैं । तब वह दिव्य पावन ज्ञान हम एक ही कुटुम्ब के वासी मनुष्यों को, जो रक्त सम्बन्ध से वैसे ही एक दूसरे के साथ अपनत्व अनुभव करते है, क्यों नहीं संगठन और स्नेह के पावन सू़त्र में हमें पिरो सकेगा ? अवश्य ही वह दिव्य ज्ञान हमें परस्पर इतना निकट ले आएगा, ऐसे स्नेह सूत्र में पिरो देगा कि यह परिवार एक आदर्श परिवार के रूप में खड़ा होकर दूसरों को लिए भी प्रेरणा का स्त्रोत बन जायेगा।
वेद पुनः आगे उपदेश देता है -

ज्यायस्वन्तश्चितिनो मा वियौष्ट संराधयन्तः सधुराश्चरन्तः।
अन्यो अन्यस्मै वल्गु वदन्त एत सध्रीचीनान्‌ वः संमनसस्कृणोमि 


हे परिवार में निवास करने वाले मनुष्यो ! परिवार में वृद्धों का सम्मार करने वाले, सम्यक्‌ ज्ञान के धनी, एक साथ मिलकर कार्य को सिद्ध करने वाले, एक धुरी के नीचे रहकर कार्य करने वाले अर्थात्‌ कार्य भार को मिलकर आगे बढाने वाले तुम लोग परस्पर पृथक्‌ मत होवो। तुम सब कार्य करते हुए एक दूसरे से सदा स्नेह आदि सम्मान पूर्वक बातचीत करते हुए आगे बढो। मै तुम सबको, एक साथ मिल-जुलकर कार्य करने वालों को समान मन वाला बनाता हूं, जिससे तुम अपने उद्‌देश्य में सदा सफल होते रहो।

इस प्रकार एक परिवार में वृद्धों को सम्मान मिलता रहे, छोटों को प्यार, आशीर्वाद तथा उत्साह मिलता रहे और सब मिल जुल कर प्रेमपूर्वक परिवार के अभ्युत्थान में कृतसंकल्प हो जायें, तो उस परिवार के सुख-सौभाग्य में सन्देह रह ही नहीं सकता ।







Priyatam Kumar Mishra

नारी का सम्मान

प्राचीन काल से लेकर आज तक नारी ने समाज, राष्ट्र एवं परिवार के उन मूल्यों की रखवाली की है जो आज भी समाज में जिन्दा हैं तो नारी के कारण ही हैं। अन्यथा वह भी पुरुषों की तरह हो जाती तो आज इन मूल्यों का नाम तक नहीं मिलता।

प्राचीन काल के साहित्य के पन्ने पलटने से हमें नारी का रूप धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक सभी क्षेत्रों में सर्वोच्च स्थान पर दिखाई देता है। पुरुष अगर नास्तिक हो गया तो धर्म को जिन्दा रख नारी ने, जो कि आज भी हमें संस्कारवान नारियों में दिखाई देता है। राष्ट्र का पतन हुआ तो उसके उत्थान के लिए उसने मां बनकर वीरों को उत्पन्न किया, जिनके शौर्य से राष्ट्र का मस्तक ऊंचा हुआ। बलिदान देने की बात आई तो उसने भाई का, पति का बलिदान देकर अपने राष्ट्र की रक्षा की है।

महाभारत काल के आते-आते ये सामाजिक मूल्य छूट गए और समाज का पतन हो गया जिसका रूप मघ्यकालीन भारत था। जिसके कारण स्त्री को भोग्या समझा जाने लगा और विदेशियों ने आकर हमारे धर्म एवं संस्कृति को रौंद डाला। फिर महापुरुषों के आवाहन पर नारी ने अपने रूप को पहचाना और नैतिक मूल्यों को जीवित किया ।

सृष्टि के प्रथम राजा मनु महाराज ने जो उस समय सामाजिक व्यवस्था बनाई थी, वह उस समय का संविधान था, जो आज मनुस्मृति के रूप में हमारे सामने है। उसी के अनुसार आज भी बहुत कुछ हमारी सामाजिक व्यवस्था चल रही है। हमारे संविधान में भी उसकी व्यवस्थाएं समाविष्ट हैं। मनु नारी के विषय में क्या विचार रखते हैं और समाज में उसका क्या रूप होना चाहिए, मनुस्मृति के अन्दर वे लिखते हैं-


यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः।

जिस घर के अन्दर नारी का सम्मान होता है वहां सुख-समृद्धि निवास करते हैं। जिस घर के अन्दर प्रातःकाल उठकर नारी आंसू बहाती है उस घर के सब पुण्य नष्ट हो जाते हैं।

एक दृष्टि से देखा जाए तो नर एवं नारी की आपस में तुलना नहीं की जा सकती, क्योंकि अपने आप में दोनों महान हैं। पुरूष अग्नि है स्त्री सोम है । समाज एवं परिवार के निर्माण में नारी का स्थान सर्वश्रेष्ठ है। नौ मास तक बच्चे को अपनी कुक्षि में रखकर उसका निर्माण करती है । जब बच्चे का जन्म हो जाता है तब मां बनकर नारी ही उसे संस्कारवान बनाती है। उसके पश्चात्‌ कहीं पिता एवं गुरु का स्थान आता है। नैतिक मूल्यों की रक्षा का उपदेश भी मां से ही मिलता है। जब-जब समाज ने नारी की अवमानना की तब-तब उस समाज का पतन हुआ। हमारा प्राचीन गौरव नारी के कारण ही स्थिर रहा है।

जब विदुला का पुत्र शत्रु से हारकर जंगल में जाकर छिप गया, तब विदुला युधिष्ठिर के द्वारा उसको सन्देश भिजवाती है कि तुम किसके वीर्य से हो ? न माता के हो न पिता के हो। तुम में न कोप है न ताप। तुम नपुंसक हो, क्षत्रिय का बेटा शेर की तरह निर्भय विचरता है। शस्त्र उठाओ, शत्रु को मारो या स्वयं मर जाओ । बेटे का सोया पौरुष जाग उठा, शत्रु से युद्ध किया और विजयी रहा, यह मां के संस्कारों का फल था।

नारी ने समाज का बहुमुखी विकास किया। उसने समाज के निर्माण में योगदान एवं बलिदान दोनों दिये हैं। प्राचीन काल की माता गर्भावस्था में अपने पुत्रों को संस्कारवान बनाने के लिए कहा करती थी -


शुद्धोसि बुद्धोसि निरंजनोसि । संसारमाया परिवर्जितोसि।।

ऐ मेरे बेटे ! तू शुद्ध है, बुद्ध है, निरंजन है, संसार की माया से अलग है। इस प्रकार उसके तीन बेटे संन्यासी हो गए। पति ने कहा कि वंश चलाने के लिए कोई पुत्र तो विवाह करे । तब उस माता ने अपने विचार बदले और उसके पुत्र अलर्क ने विवाह किया।

प्राचीन साहित्य में गार्गी का स्थान सर्वोच्च है जिसने शास्त्रार्थ में याज्ञवल्क्य ऋषि को परास्त दिया था। मण्डन मिश्र की पत्नी भारती ने भी शंकराचार्य को शास्त्रार्थ में पराजित किया था। लोपामुद्रा, अपाला, घोषा, कौशल्या, सुमित्रा, शैव्या आदि नारियों ने भी राष्ट्र का निर्माण किया और नैतिक मूल्यों को जीवित रखा। पन्ना धाय ने मेवाड़ वंश को बचाने के लिए कुमार उदयसिंह के लिए अपने पुत्र का बलिदान दे दिया। मां जीजाबाई ने शिवा को वीरों की कहानियां सुना-सुना कर वीर बनाया और शत्रु द्वारा जीते हुए किले दिखाकर उसके निश्चय को दृढ़ बनाया। अन्त में उसने उन्हें विजय किया। वास्तव में नारी नर से बढ़कर है।

मां की मानसिक स्थिति का प्रभाव गर्भ में बच्चे पर कितना पड़ता है इसके अनेक उदाहरण प्रत्यक्ष हमारे सामने हैं- अमरीका के राष्ट्रपति गारफील्ड का हत्यारा गीदू जब मां के गर्भ में था तब उसकी मां ने गर्भपात करा कर उसकी हत्या कर डालने का प्रयत्न किया। पर वह बच गया, उस समय की मानसिकता का प्रभाव बच्चे पर पड़ा, जिससे वह हत्यारा बन गया।

नेपोलियन इतना बड़ा राष्ट्रनायक बना। वह भी मां के विचारों के कारण बना। जब वह मां के गर्भ में था तब उसकी मां सेनाओं की परेड देखती, सैनिकों के गीत सुनती, तब उसका रोम-रोम हर्ष से प्रफुल्लित हो उठता था। गर्भावस्था में पड़े संस्कारों ने नेपोलियन को एक महान योद्धा बनाया। बरसते गोलों में वह निर्भीक खड़ा रहता था, कभी विचलित नहीं होता था।

प्रिंस विस्मार्क जब मां के गर्भ में था तब उसकी मां अपने घर के उन भागों को बड़े मानसिक कष्ट से देखा करती, जिन्हें नेपोलियन की फ्रेंच सेनाओं ने नष्ट भ्रष्ट कर दिया था। इन तीव्र संस्कारों का परिणाम यह हुआ कि विस्मार्क के हृदय में फ्रांस से बदला लेने की तड़प जाग उठी।

यह सब उदाहरण बताते हैं कि नारी के विचारों पर समाज का उत्थान-पतन आधारित है। वीर प्रताप, शिवाजी, छत्रसाल, तात्या टोपे, टीपू सुल्तान जैसे वीरों का निर्माण नारी ने किया। अगर समाज ने उसे भोग्या समझकर प्रताड़ित किया, सम्मान नहीं दिया तो उसने हर्षद मेहता को उत्पन्न किया। आज अगर समाज के नैतिक मूल्यों की रखवाली करनी है तो नारी को सम्मान देना होगा। नारी को भी अपने छुई-मुई एवं सौन्दर्य की मूर्ति वाले रूप को छोड़ कर रानी झांसी वाला रूप अपनाना होगा।

नारी धरती के समान सब कुछ सहकर भी परिवार से जुड़ी रहती है। पुरूष छोड़ जाता है, फिर भी वह परिवार की जिम्मेदारियों को निभाते हुए आगे बढ़ती है । ऩअरि-नारी जिसका कोई शत्रु न हो, इस उक्ति को पूर्ण करती हुई चलती है। आज की नारी का रूप बड़ा विकृत है। वह अपने आपको अबला समझकर बैठी आंसू बहाती है या सौन्दर्य की प्रतिमा बनी बैठी है। महादेवी वर्मा ने आज की नारी का इस प्रकार चित्रण किया है-

""हमारे जमाने में हम लोग रक्त चन्दन तिलक मस्तक पर लगाकर जब शराब की दुकानों पर धरना देने जाती थी तो बड़े से बड़ा पियक्कड़ भी शरद ऋतु के पत्तों की तरह कांप उठता था । आज की आधुनिकाओं से कहो जरा धरना देकर देखें, तो जो शराब नहीं पीते, वे भी मधुशाला में आ जाएंगे। कैबरे से लेकर बीड़ी, साबुन और ब्लेड, तौलियों के विज्ञापनों तक में आज की नारी स्वयं को तथा अपनी देहयष्टी को और अपनी चितवन मुस्कान को व्यंजन की तरह इस प्रकार परोस रही है कि स्वयं एक व्यंजन मात्र बनकर रह गयी है।''

कहां पर तो स्वामी दयानन्द सरस्वती ने रास्ते में एक छोटी बालिका को देखकर मातृशक्ति को नमस्कार किया। मनु की उक्ति ठीक है। उसके अनुसार चलेंगे तो समाज में नैतिक मूल्यों की स्थापना हो सकेगी अन्यथा नहीं। पूर्व का समाज हो या पश्चिम का समाज, सबने नारी को भोग्या समझ लिया है। समाज की नारियों को अपने स्वरूप को स्वयं पहचानना होगा। रानी लक्ष्मीबाई की तरह से वीरांगना बनकर समाज के गिरते मूल्यों को बचाना होगा।







Priyatam Kumar Mishra

क्या सन्तान पैदा करने वाली प्रत्येक जननी माता होती है़ ?

बच्चे का निर्माण माता करती है। क्या सन्तान पैदा करने वाली प्रत्येक जननी माता होती है़ ? यह विचारणीय विषय है। सन्तान तो पशु-पक्षी भी पैदा करते हैं। परन्तु उनमें माता की भावना नहीं होती। जन्म देने मात्र से कोई भी नारी जननी हो सकती है। लेकिन माता वही है जो अपनी सन्तान को सुयोग्य बनाती है। उसका निर्माण करती है। माता, पिता का स्थान ले सकती है, परन्तु पिता माता का स्थान नहीं ले सकता।

बालक के नामकरण संस्कार पर जब माता बच्चे को लेकर यज्ञ स्थल पर आती है, तो वह बालक को उसके पिता के 
हाथों में सौपती है। पिता एक बार बालक को लेकर पुनः माता को ही सौंप देता है। इसका भाव यह है कि पिता कहता है कि इसका निर्माण तुम ही करो।

मां बच्चे को नौ मास तक अपने गर्भ में सहेजती है। जन्म देने में जो कष्ट सहन करती है, उसकी कल्पना भी पिता नहीं कर सकते। फिर बच्चे का मल-मूत्र साफ करती है। माता की बच्चे के प्रति ममता को देखो कि उसके जन्म के साथ ही माता के स्तनों में दूध उतर आता है। मां बच्चे के लिए सब कुछ त्याग देती है। बच्चा बड़ा होता है, तो मां उसका पहला गुरु बन कर उसके निर्माण में जुट जाती है। माता से अधिक प्यार संसार में बच्चे को और कौन दे सकता है? कोमलता, मधुरता और ममत्व भगवान ने माता को ही प्रदान किया है। सहनशीलता में माता भूमि के समान है। बच्चा खेलते-खेलते चोट खा जाता है, परन्तु माता की स्नेहमयी गोद में बैठते ही अपनी पीड़ा को भूल जाता है।

मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम ने रावण का वध करके विभीषण को लंका का राजा बना दिया। लक्ष्मण ने लंका की सुन्दरता को देखकर भगवान से लंका में ही रहने को कहा। श्रीराम ने कहा-अपि स्वर्णमयि लंका, न मे लक्ष्मण रोचते। जननी जनमभूमिश्च, स्वर्गादपि गरीयसि। भगवान श्रीराम ने माता को स्वर्ग से भी महान बताया। यक्ष के द्वारा प्रश्न पूछे जाने पर युधिष्ठिर ने उत्तर दिया- हे यक्ष ! भूमि से बड़ी माता है।

स्वामी विवेकानन्द ने माता को मनुष्य निर्माण का प्रथम विश्वविद्यालय कहा है। एक बार स्वामी विवेकानन्दजी अमेरिका गये हुए थे । एक मां अपने पुत्र के साथ आई और अपने बालक को स्वामीजी के चरणों में बैठाकर बोली स्वामीजी ! मै अपने पुत्र को विवेकानन्द बनाना चाहती हूं। कृपया उस विश्वविद्यालय का नाम बताइए, जिसमें विवेकानन्द बना है। स्वामीजी ने कहा माताजी, जिस विश्वविद्यालय में विवेकानन्द बना है, वह तो अब नहीं रहा। मां ने आश्चर्य से पूछा, क्या एक विवेकानन्द बनाकर ही कोई विश्वविद्यालय बन्द हो गया और वह भी भारत में ? स्वामीजी ने कहा-हां मां, वह विश्वविद्यालय मेरी जननी माता थी। वह अब संसार में नहीं है। 

हमारा अमर इतिहास साक्षी है कि माताओं ने अपने वीर पुत्रों का निर्माण कैसे किया। वैदिक काल में महारानी मदालसा वीरांगना और विदुषी हुई। उसका कहना था कि मेरे गर्भ में जन्मे पुत्र को दोबारा जन्म नहीं लेना पड़ेगा अर्थात्‌ मै उसको मोक्ष प्राप्ति के मार्ग पर लगा दूंगी। हुआ भी यही कि उसने अपने चार में से तीन पुत्रों को तो योगी बना दिया। चौथे को राज्य सौंपते समय उपदेश देकर चली गई। कुछ समय पश्चात्‌ वह भी उसी मार्ग पर चल पड़ा।

रानी सुरूचि द्वारा राजा उत्तानपाद की गोदी से अलग करने पर बालक ध्रुव रोता हुआ अपनी मां सुनीति के पास गया तो मां सुनीति ने कहा- रो मत मेरे ध्रुव ! यदि तुझे तेरे पिता ने अपनी गोद में नहीं बैठाया तो कोई बात नहीं। तू अपने सच्चे पिता की शरण में जा, वह परमात्मा ही सबका पिता है। उसकी गोदी में बैठकर तू चिरकाल तक अलौकिक आनन्द को प्राप्त कर। माता का उपदेश सुनकर ध्रुव योग साधना के लिए चल पड़ा। कालान्तर में ध्रुव ने मोक्ष को प्राप्त किया। 

जननी जनै तै भगत जनै, या दाता या शूर ।
ना तै जननी बांझ रहे, क्यों व्यर्थ गंवावै नूर ।।


महारानी शकुन्तला ने महर्षि कण्य के आश्रम में भरत को जन्म दिया था। वह भरत को शिक्षा देती थी- बेटा, इस बीहड़ जंगल में शेर, चीते आदि ही तेरे भाई है। तू इनसे ही मेल कर, इन्हीं के साथ खेल। भरत शेरों के दांत गिनता था। उनके साथ कुश्ती करता था। आगे चलकर यही भरत चक्रवर्ती सम्राट हुआ।

माता सुभद्रा ने अभिमन्यु को वीर, कुशल, योद्धा और चक्रव्यूह को बेधने योग्य बनाया, जिससे अभिमन्यु ने द्रोण, जयद्रथ, दुर्योधन, दुःशासन और कर्ण जैसे महारथी योद्धाओं को भी पराजित कर दिया।

माता कुन्ती ने जब शान्ति के सभी मार्गों को बन्द देखा और योगेश्वर श्रीकृष्ण से कहा, हे कृष्ण ! तुम मेरे बेटों के पास जाकर कहना कि क्षत्राणियां जिस दिन के लिए अपनी सन्तान को जन्म देती हैं, वह दिन आ गया है। अर्थात्‌ वे युद्ध के लिए कटिबद्ध हो जाएं।
वीर माता जीजाबाई को अपने शिवा को छत्रपति बनाने लिए अपने पति से भी विमुख होना पड़ा। वह अपने शिवा को राम, कृष्ण, हनुमान, भीष्म, शंकर और महाराणा सांगा जैसे वीर महापुरुषों की कहानियां सुनाया करती थी। उसको तलवार, घुड़सवारी, तीर आदि चलाना सिखाती थी। शिवाजी की रग-रग में साहस और वीरता कूट-कूट कर भर दी थी जीजाबाई ने और फिर शिवाजी को मुगल साम्राज्य के विरुद्ध लड़ने के लिए तैयार किर दिया। यही वह शिवाजी था जिसने औरंगजेब की नींद हराम कर दी थी और विशाल एवं सुदृढ़ मराठा साम्राज्य की नींव रखी।

नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल, सरदार भगतसिंह, उधमसिंह, अशफाक उल्ला खां आदि देशभक्त वीरों को उनकी वीर माताओं ने स्वतन्त्रता प्राप्ति के मार्ग में आने वाली बाधाओं को सहन करने योग्य बनाया।

गंगा माता ने कौरवों और पाण्डवों के पितामह अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रतधारी महारथी भीष्म को बनाया, जिन्होंने युद्ध क्षेत्र में अपने गुरु परशुराम को भी परास्त कर दिया था। जिन्होंने मौत को चुनोती दे दी थी। कई मास तक बाणों से बिंधे हुए बाणों की ही शय्‌या पर लेटे हुए अपनी इच्छा से ही उन्होंने इस नश्वर देह को त्यागा था। महारानी लक्ष्मीबाई, अहिल्या बाई आदि वीरांगनाओं को क्या कभी भुलाया जा सकता है?

निष्कर्ष यह है कि माता के अन्दर इतनी शक्ति विद्यमान है कि वह अपनी सन्तान को जैसा चाहे बना सकती है। राम, कृष्ण, हनुमान, भीष्म, शंकर, दयानन्द, गांधी, सुभाष, भगतसिंह जैसे महानपुरूष देशभक्त इन्हीं माताओं की गोदी में पले और महान बने।

आज मातृशक्ति सोई हुई है। वह अपने कर्त्तव्य को भूलकर साज-श़ृंगार के साथ सज-धजकर पार्टियों में जाने में ही अपनी शान समझती है। सन्तान निर्माण के लिए उसके पास समय ही नहीं है। आज आवश्यकता है, देश की माताओं को दिव्य संतान निर्माण का निश्चय करने की ! देश को महान भी ये ही बनाती हैं और नरक के गर्त में भी ये ही ले जाती हैं। इसलिए नारी को मातृत्व जुटाने के लिए सजग होने की आवश्यकता है । आज भी वही हनुमान, भीष्म, राम, कृष्ण, कपिल, कणाद आदि सन्तानें बनाने में समर्थ हैं।







Priyatam Kumar Mishra

मां ! तुम धन्य-धन्य हो

भारतीय अस्मिता एवं आस्था का मूल वैदिक वाड्‌मय के पारदर्शी विवेचन से ही अनुप्राणित है। भारतीय मनीषा में वेद विहित ही स्वीकार्य और ग्राह्‌य है। प्रायः समानान्तर सिद्धान्त जो अपने को अवैदिक कहते हैं वे भी वेदमूलक ही हैं, क्योंकि उनके केन्द्र में वेद ही रहता है । वेदों का विवेचन समग्र मानवीयता के उद्बोधन, प्रबोधन और पल्लवन के लिए ही है। सुदूर अतीत की अपनी देवभाषा में उपनिबद्ध ये ग्रन्थ सहजता से ग्राह्‌य नहीं भी हों, परन्तु जनजीवन, बहुविकसित परम्पराएं और मान्यताएं भी वेदानुमोदित ही हैं। वे ही सांस्कृतिक एवं सदाचारनिष्ठ हैं, जिनमें वेदों का भावान्तरण है। ज्ञान का प्रसार भी जाति, वर्ग, लिंग, वय और सीमा को पार करके ही सुशोभित होता है। जो सार्वजनिक, सर्वहिताय और लोकोपयोगी होता है वही राष्ट्रीय होता है। राष्ट्र जीवन देश काल वातावरण के अनुसार अपनी अक्षरा संस्कृति के साथ चतुर्दिंक प्रवाहित होता रहता है। विचार, संरक्षण, संवर्द्धन, पोषण की वृत्तियों में परस्पर समन्वय ही समृद्ध और संगठित राष्ट्र का निर्माण कर सकता है। जीवन को गतिशील बनाने के लिए पशु-सम्पत्ति, शस्य संपत्ति और वन्य सम्पत्ति की भी अनिवार्य आवश्यकता होती है। यज्ञ प्रधान विविध विवेचनों में भी यजमान को स्वस्ति मंगल के रूप में यजुर्वेद का अभिमत समग्र राष्ट्र का मंगल ही करता है। वैदिक राष्ट्रगान का मंत्र द्रष्टव्य है-

आ ब्रह्यन्‌ ब्राह्मणो बह्मवर्चसी जायताम्‌
आ राष्ट्रे राजन्यः शूर इषव्यः अति
व्याधी महारथो जायताम्‌
दोग्ध्री धेनुर्वोढानड्‌वानाशुः सप्तिः
पुरंध्रिर्योषा जिष्णू रथेष्ठाः सभेयो
युवाअस्य यजमानस्य वीरो जायतां
निकामे निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु
फलवत्यो न ओषधयः पच्यन्ताम्‌
योगक्षेमो नः कल्पताम्‌ 


वैदिक संस्कृति की व्यवस्था में विचारों की उच्चता का सर्वश्रेष्ठ स्थान है। यदि विचारों में श्रेष्ठता होगी तो आचरण भी श्रेष्ठ होगा और जनमानस का वैचारिक स्तर उन्नत होगा तथा सर्वाभ्युदय संभव हो सकेगा। वेदों का तेज, ज्ञान का प्रकाश, ब्रह्मचर्य का ओज, संयम की ऊर्जा जिसमें भरपूर रहती है, वही ब्राह्मण राष्ट्र के लिए अपने चिन्तन और विचारों की आहुति दे सकेगा तथा उसके उदात्त चिन्तन से ही राष्ट्रजीवन को ऊर्जा प्राप्त होगी। यज्ञ संस्था की दृढ़ता और व्यापकता में वृद्धि होगी। ब्रह्मवर्चस्‌ की अराधना के बिना न तो ब्राह्मणत्व बचता है और न ही समष्टि चिन्तन को प्रेरणा और गति मिल पाती है। राष्ट्र की रक्षा में राजवंश का उचित विनियोग तभी होगा जब वह शूरवीर हो, परन्तु शूरता तभी सफल होगी जब वह लक्ष्यवेध में प्रवीण हो, लक्ष्यवेध की सफलता भी तभी है जब वह शूर शत्रुनाश कर सके। इस देश का वीरबालक सैनिक ही नहीं सेनानायक अर्थात्‌ महारथी बने। महारथी में शत्रुविनाश, शूरवीरता, लक्ष्यवेधता होने पर ही देश का संकट दूर हो सकेगा।

देश की रक्षा की व्यवस्था के बिना यज्ञ प्रवर्तन संभव नहीं हो सकता। निर्विघ्न यज्ञ संपादन और ऋषि परम्परा के निर्वाह के लिए पुष्ट और प्रसन्न गायों का होना आवश्यक है। उनके दुग्ध के बिना हव्य-कव्य की क्रिया और स्वाहा स्वधा की प्रवृत्ति देश में नहीं हो सकेगी। दोग्ध्री धेनुः का भाव है कि धेनु तो अपने सेवक को प्रसन्न ही करती है, दूध भी दे और प्रसन्न भी रहे यह गौमाता का ही कार्य है। पत्र्चगव्य ही देव ऋषि और पितृजनों को तृप्त करते हैं। वैचारिक तर्पण के लिए भी गव्य में ही अपार क्षमता होती है। कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य के लिए वोढा अर्थात्‌ प्रापक या प्राप्त कराने वाला, धारण करने कराने वाला भी होना चाहिए और पोषण पालन के बिना राष्ट्र सबल या समर्थ नहीं हो सकता है। गायों के सपूत अगर व्यापार व्यवसाय के माघ्यम हो जाएं तभी देश समृद्ध होगा। वृषभ (बैल) को धर्म का प्रतीक भी माना जाता है। जब इस देश का व्यापारी वर्ग धर्म को वृषभ (बैल) बनाकर वस्तुओं के विनिमय का आधार बना लेगा तो हवाला, घोटाला, तहलका और बोफोर्स की खबरें नहीं होंगी। गमनागमन में यदि प्रमाद नहीं हुआ, इच्छानुसार आवागमन होता रहेगा तो राष्ट्रीय जीवन गतिशील रहेगा। आशु सप्तिः कहते हुए ऋषि ने शीघ्रगामी अश्व का संकेत दिया है। यह रक्षकों और पोषकों दोनों के लिए आवश्यक है। रक्षकी की शूरता और पोषकी की पालनीयता अश्व या वाहन या गमनागमन पर ही अवलंबित रहती है। ये सभी वृत्तियां तब व्यर्थ हो जाती हैं, जब देश की नारी कुल का या परिवार का चतुराई से पोषण न करे। परिवार राष्ट्र की सबसे छोटी इकाई है और उसका पालन, पोषण रक्षण, संवर्द्धन सब नारी पर आश्रित है। ऋषि ने पुरंध्रिर्योषा कहा है। यज्ञ परम्परा के निर्वाहक यजमान होते हैं। वे तभी सफल होंगे जब उनके घर आंगन की शोभा वीर बालक से बढ़ती रहे। यह बालक सभा में बैठने वाला हो और सभा का व्यवहार, आचार और शील जानने समझने में कुशल हो। जो युवक रथी बने, सैनिक बने उसमें देश के लिए जीतने या विजय प्राप्त करने की उत्कट अभिलाषा हो, तभी वह विजयी हो सकेगा। मानवीय जीवन ओर उसकी अपेक्षाओं के साथ राष्ट्रीय अभ्युदय के लिए यज्ञों की सफलता से पैदा होने वाले बादलों से यथासमय अपेक्षित बरसात की प्रार्थना की गयी है। शस्य संपत्ति के बिना राष्ट्र का पोषण नहीं हो पाता है।

जीवन में विघ्न करने वाले रोगों और टूटते जीवन के क्रम को ध्यान में रखकर ही वैदिक ऋषि ने औषधियों की फलवत्ता के लिए व्यापक देवता से प्रार्थना की है। यह सब होने पर भी देव से यही प्रार्थना की गयी है कि जो हमारे पास नहीं है वह भी मिलता रहे अर्थात्‌ योग बने और उसकी शाश्वतता के लिए क्षेम के लिए भी अपेक्षा की गयी है।

जिस देश में पारदर्शी ज्ञान की ऊर्जा समृद्ध हो, सीमा पर प्रहरी सचेष्ट और लक्ष्यनिष्ठ हों, समाज का पालन-पोषण करने वाले धर्मशील हों, स्त्रियां परिवार की प्रतिष्ठा का प्रतीक हों, गौएं देवर्षि पितृ कार्यों में सक्षम हों, युवाजन निर्भयता पूर्वक अपनी शक्ति का देशहित में विनियोग करते रहें, अवर्षा का जहां प्रभाव न हो, कृषि फलवती हो, औषधियां परिणामकारिणी हों, वही राष्ट्र समृद्ध और समर्थ हो सकेगा। गृह, रक्षा, व्यापार, शिक्षा, चिकित्सा विभाग जहां युक्त होते हैं, वहां प्रत्येक घर-परिवार प्रसन्न, उन्नत और सबल राष्ट्र का अंग बन सकता है। वैदिक राष्ट्र चिन्तन का यह एक उदाहरण मात्र है। यह प्रार्थना आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी राष्ट्र के लिए उस समय थी।







Priyatam Kumar Mishra

ज्ञान

वैदिक संस्कृति वह अन्तःसलिला सरस्वती है, जो चिरकाल से लोगों को पावन करती चली आई है और अनन्त काल तक पावन करती चली जायेगी। वेदों के उद्गम स्थान से निकली हुई आर्य संस्कृति की पावन धारा अक्षुण्ण है।

वेद समस्त धर्मों का मूल है। मनु जी ने तो धर्म को जानने की इच्छा करने वाले साधकों के लिए वेदों को परमप्रमाण बताया हैं। जो धारक तत्व हैं, वे ही धर्म हैं। धर्म की आज की सारी परिभाषाएं एकांगी हैं। धर्म के अन्तर्गत, आध्यात्मिकता, भौतिकता, राष्ट्रीयता, सामाजिकता सभी का समावेश है। इन सभी पहलुओं का मूल वेद है। इसलिए वेदों को केवल भौतिक शास्त्र या केवल अध्यात्म शास्त्र मानना एक भंयकर भूल है।

वेदों में राष्ट्रीय भावना-वेद राष्ट्रीय भावना के भण्डार हैं। मनु जी ने अपनी स्मृति में स्पष्ट लिखा है- एक वेद ज्ञाता सेनापति, राजा, दण्ड-शासक के सभी काम कर सकता है, यहां तक कि वह सब लोकों का शासक भी बन सकता है।

वैदिक ऋषि जटाजूट बढाकर जंगलों में जाकर, कन्दमूल पर अपना जीवन निर्वाह करने वाले असभ्य या अर्धसभ्य नहीं थे। वे बड़े प्रज्ञावान्‌ और दूरदर्शी थे। उनके सामने अपने राष्ट्र के भविष्य का पूरा नक्शा था। राष्ट्र की उन्नति और विकास का उद्‌देश्य उनके सामने था। आज से हजारों साल पहले उन्होंने राष्ट्र धारक तत्वों का अनुशीलन करके नेताओं की योग्यता निश्चित कर दी थी। राष्ट्र को धारण करने वाले तत्वों का वर्णन अथर्ववेद का ऋषि इस प्रकार करता है-

सत्यं बृहदृतमुग्रं दीक्षा तपो ब्रह्म यज्ञः पृथिवीं धारयन्ति। सा नो भूतस्य भव्यस्य पत्नी उरूं लोकं पृथिवी नः कृणोतु ।। अथर्ववेद 12/1/1

अर्थात्‌ सत्य, विशाल हृदयता, वीरता, चतुरता, तपस्या, ज्ञान और संगठन मातृभूमि को धारण् करते हैं। वह मातृभूमि हम प्रजाओं के भूत और भविष्य का पालन करने वाली हो तथा हमारे लिए कार्य क्षेत्र को विस्तृत करे।

मातृभृमि के लिये ही जीना और मरना- मातृभूमि का सच्चा सपूत मातृभूमि के लिये ही जीता और मरता है। उसकी भूत और भविष्य की सभी योजनाएं मातृभूमि की उन्नति के लिए ही होती हैं। वह अपने ज्ञान का प्रयोग मातृभूमि के विकास के लिए ही करता है। आज की स्थिति विपरीत है। आज मां के सपूत इंग्लैंड, अमरीका आदि देशों में जाकर ज्ञान प्राप्त करते हैं, पर ज्ञान प्राप्त करके वे वहीं के नागरिक होकर वहीं रह जाते हैं। इस प्रकार उनके ज्ञान का लाभ उन देशों को होता है और भारत माता तरसती रह जाती है। यह शासकों का काम है कि वे ऐसी योग्य प्रतिभाओं को बुलाकर उन्हें उनकी योग्यता के अनुसार कार्यक्षेत्र प्रदान करके मातृभूमि की सेवा करने का अवसर प्रदान करें।

अनेकता में एकता- वैदिक काल में भी भारत में अनेक भाषा-भाषी और नाना धर्म वाले लोग थे, पर आज की तरह भाषावार प्रान्त के रूप में भारत टुकड़ों में बंटा हुआ नहीं था और ना ही भाषावाद के झगड़े ही थे। सारा भारत अखंड था और सभी जन नाना भाषा-भाषी होने पर भी उतने ही प्रेम से रहते थे, जिस प्रकार एक परिवार के लोग रहते हैं-

जनं बिभ्रती बहुधा विवाचसं नानाधर्माणं पृथिवी यथौकसम्‌। सहस्त्रं धारा द्रविणस्य मे दुहां ध्रुवेव धेनुरनपस्फुरन्ती।। अथर्ववेद 12/1/45

अर्थात्‌ यह हमारी मातृभूमि नाना भाषा-भाषी तथा नाना कर्तव्य करने वाले मनुष्यों को एक घर के समान धारण करती है, वह लात न मारने वाली गाय के समान प्रसन्न होकर मेरे लिये धन की हजारों धाराओं को दुहे।

एक राष्ट्र्‌ में विविधता स्वाभाविक है, पर उसमें विघटन न होकर संगठन होना चाहिए। संगठन ही राष्ट्र की शक्ति है। ऋग्वेद के संगठन सूक्त में संदेश है-

संगच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम्‌।
देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते।। 
ऋग्वेद 12/191.4

समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः ।
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति ।। 
ऋग्वेद 12/191.4

अर्थात्‌ हे राष्ट्र की प्रजाओ! तुम सब एक साथ मिलकर प्रेम से चलो, प्रेम से बोलो, तुम्हारे मन उत्तम हों, जिस प्रकार पहले विद्वान ज्ञानपूर्वक राष्ट्र की उपासना करते चले आए, उसी प्रकार तुम भी करो। तुम्हारे संकल्प, तुम्हारे हृदय और मन एक समान हों।

वेदों में सैन्य वर्णन-राष्ट्र की सुरक्षा का प्रश्न उस काल में भी बहुत महत्वपूर्ण समझा जाता था। राष्ट्र की सुरक्षा के लिए ही सेना की व्यवस्था की जाती थी। वैदिककालीन सैन्य व्यवस्था देखकर बड़ा आश्चर्य होता है। सात-सात सैनिकों की सात पंक्तियां होती थी, उनकी भी रक्षा के लिए पार्श्व रक्षक नियुक्त किये जाते थे, इस प्रकार 53 सैनिकों की एक टुकड़ी होती थी। यह सेना बड़ी ही अनुशासित और युद्ध कुशल होती थी। इसी व्यवस्था के समान जर्मनी ने अपनी सेना को अनुशासित किया और अपनी सेना को विश्वविजयी बनाया। दूसरी तरफ वेदों के जन्मदाता भारत में कालान्त्रर में सेना अव्यवस्थित और अनुशासनहीन हो गई । उसका परिणाम यह हुआ कि देश कई बार विदेशियों के द्वारा पददलित हुआ। वेदपाठी केवल मन्त्रपाठ ही करने लगे, अर्थज्ञान की तरफ उनकी कभी प्रवृत्ति नहीं हुई। पेशवाओं की सेना अव्यवस्थित रही, इसलिए वे पराजित हुए। वेदों में सैन्य व्यवस्था का वर्णन बिल्कुल आधुनिक पद्धति की तरह से ही है।

इसके अलावा वेदों में शल्य क्रिया, कायाकल्प, चिकित्सा शास्त्र, स्वराज्य शास्त्र, प्राकृतिक चिकित्सा, मैस्मरेज्म, हिप्नोटिज्म, मनोविज्ञान, सृष्टिज्ञान, ब्रह्‌मज्ञान आदि अनेकों विषयों का विस्तृत वर्णन है।

वेदों की हर प्रार्थना में तेजस्विता भरी पड़ी है। वेदमन्त्रों का ज्ञान मनुष्यों को उत्साहित और बलशाली बनाता है। ऋषियों ने वेदों के माध्यम से जनता को वीरता और शक्ति का संदेश दिया था।

राष्ट्र भाषा संस्कृत- भारत राष्ट्र की उन्नति के लिये वेदों का ज्ञान अत्यन्त आवश्यक है। आज आवश्यकता है कि स्कूलों में प्रारंभ से ही वैदिक शिक्षा का प्रबन्ध किया जाये। इससे विद्यार्थियों के नैतिक चरित्र में सुधार होगा और आगे जाकर वे भारत के सच्चे सेवक बन सकेंगे। संस्कृत भाषा के प्रचार की भी आवश्यकता है। संस्कृत भाषा में ही भारतीय संस्कृति प्रतिबिम्बित होती है। यदि संस्कृत को राष्ट्रभाषा का पद दे दिया जाये, तो भाषावाद का झगड़ा बिल्कुल समाप्त हो जाये। इस भाषा में वे सभी योग्यताएं है, जो एक राष्ट्रभाषा में होनी चाहिएं। जब तक हम अपनी राष्ट्रभाषा का आदर करना नहीं सीखेंगे और विदेशी भाषा को ही हृदय से चिपकाये रहेंगे, तब तक हमारी या हमारे राष्ट्र की उन्नति संभव नहीं। इसलिए हमें चाहिये कि हम अपने देश, अपनी भाषा व अपनी संस्कृति से प्रेम करें।भारत के हर विद्यालय में संस्कृत भाषा को अनिवार्य किया जाये तथा प्राथमिक स्तर से ही संस्कृत भाषा के अध्यापन का प्रबंध हो ।







Priyatam Kumar Mishra