Saturday, July 17, 2010

मौत से इंसान डरता क्यों है?

दुनिया का सबसे बड़ा आश्चर्य ही यह है कि मनुष्य अपनी मृत्यु को भूला रहता है। एक दिन अचानक मौत को सामने देखकर इंसान को बड़ी तकलीफ होती है। मौत को भूले रहना और उससे घबराना दोनों ही मनुष्य की अज्ञानाता यानि नासमझी का परिणाम है। जबकि मृत्यु कभी न भुलाने वाला सुन्दर और अनिवार्य सच है। आइये देखते हैं कि मौत हमारे जीवन में कितनी महत्वपूर्ण है:--इंसान व अन्य सभी जीवों का स्थूल शरीर मात्र पैकिंग हैं और उसमें रहने वाला सूक्ष्म शरीर यानि कि आत्मा उस पैकिंग में छुपी हुई बहुमूल्य निधि है। - किसी भी अति प्रिय मनुष्य, वस्तु, पशु-पक्षी आदि के बिछुडऩे पर अथाह वेदना यानि कि कष्ट होता है जबकि एसा होना तो निश्चित ही था। ऐसा हर जन्म में कई बार हो चुका है। - अपनी असली पहचान यानि कि आत्मज्ञान न होने के कारण ही संसारिक मनुष्य अपनी मृत्यु से अथाह भयभीत होता है।- शरीर छोड़ते हुए जीव करूण रुदन करता है। मार्मिक दृष्टि से देखता है, कि कोई उसे मृत्यु से बचा ले,किंतु जो स्वयं को ही नहीं बचा पायेगा,उसे कैसे बचा लेगा?- यदि किसी को पूर्व जन्म याद रह जाए तो प्रारम्भ में कष्ट होता है किंतु बाद में वह शरीर यानि कि पैकिंग के अनुसार ढल जाता है और उसके अनुसार ही जीवन जीने लगता है।- मौत के बाद की यात्रा में कोई भी जीव या वस्तु साथ नहीं जाती है और न ही मृत्यु से बचा सकती है।

Wednesday, July 14, 2010

अमीर बनना होगा आसान यदि आप धार्मिक बनें

दुनिया की सारी सर्वे रिपोर्टें एक बात पर पूरी तरह एकमत हैं। वो यह कि दुनिया भर में सर्वाधिक धार्मिक लोग कहीं पाए जाते हैं तो वह भारत देश ही है। एक दूसरा सर्वे यह प्रकाशित करता है कि, दूसरे देशों में जाकर सफल-संपन्न बनने वालों में भारतीय ही नम्बर-१ पर हैं। इन दोनों सर्वे रिपोर्टों को मिलाकर देखने पर एक बड़ा ही कीमती सूत्र निकलकर आता है। यह अनमोल सूत्र साबित करता है कि किसी भी क्षेत्र में सफल-संपन्न होने वालों में धार्मिक और नैतिक लोगों का ही अनुपात सर्वाधिक है। सत्य है कि धर्म के ऊंचे सिद्धांतों में सादगी और संतोष को बहुत महत्व दिया गया है, किन्तु सादगी का अर्थ गरीब रहना नहीं बल्कि अपार धन-संपत्ति का धैर्य से पचाना है। धन वर्जित नहीं बल्कि धन का नशा वर्जित होता है।लक्ष्मी का मतलब होता है धन-सम्पत्ति, वैभव या समृद्धि। कहते हैं कि जीवन है तो जगत है और जगत है तो जरूरतें भी होंगी। किसी पारिवारिक या गृहस्थ इंसान के लिये लक्ष्मी कृपा यानि धन-सम्पत्ति का होना अत्यंत ही आवश्यक माना जाता है। दरिद्रता को जीवन का अभिशाप माना गया है। यहां तक कि गरीब रहना पाप करने के समान निंदनीय कार्य माना गया है। अत: इस दरिद्रता के अभिशाप से छुटकारा पाने और बरीबी के कलंक को मिटाने के लिये धार्मिक नियमों को अपने जीवन में शामिल करने के साथ-साथ, नीचे दिये गए कुछ प्रबल प्रभावशाली उपायों का प्रयोग अवश्य करें :-१. धन के अधिपति कुबेर देव प्रसन्न होंगे यदि इंसान धर्म का पालन करेगा और ईमानदारी का जीवन जीएगा।२. कुबेर देव प्रसन्न होंगे यदि इंसान कठिनाई आने पर भी सत्य के मार्ग से नहीं हटेगा।३. कुबेर देव प्रसन्न होंगे यदि इंसान इन्द्रिय भोगों पर नियंत्रण रखते हुए सादगी व पवित्रता का जीवन जीएगा।४. धन के अधिपति कुबेर देव प्रसन्न होंगे यदि इंसान अपने खून पसीने की कमाई का कुछ भाग, भगवान की बनाई इस दुनिया को और भी सुन्दर बनाने में खर्च करेगा।५. यदि इंसान अपने कर्तव्य को पूरी तत्परता से पूरा करेगा और उसके परिणाम को भगवान की मरजी समझ कर स्वीकार करेगा।

Bharat Mata

Bharat Mata, that is, the Mother India (Bharat - India, Mata - Mother) is a personification of India, and relatively seen by some as a mother goddess of fertility. She is usually depicted as a lady, clad in a saree holding a flag.
Ratnakaradhautapadam Himalyakirtitinim I
Brahmarajarsiratnamdhyam vande Bharatamataram II
Meaning :
I pay my obeisance to mother Bharat, whose feet are being a washed by the ocean, who wears the mighty Himalaya as her crown, and who is exuberantly adorned with the gems of traditions set by Brahmarsis and Rajarsis.

Tuesday, July 13, 2010

दुख अपने और पराए की पहचान कराता है

दुख कहां से आता है? यह कोई नहीं बता सकता, क्योंकि दुख आने के असंख्य कारण है। दुख..., दर्द..., परेशानियां..., समस्याएं..., प्रॉब्लम्स इन शब्दों से आज कोई अछूता नहीं है। यह भी सच्चाई है कि सुख को जाने से रोका नहीं जा सकता और दुख को आने से। हर धर्म में सुख-दुख जीवन का मूल आधार बताए गए हैं। ये एक ही सिक्के के दो पहलु हैं। सुख-दुख के संबंध में गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है 'धीरज, धर्म, मित्र, अरु नारी, आपतकाल परखिए चारी।' यानी संकट के समय ही धीरज, धर्म, मित्र और नारी की परीक्षा होती है। सुख में तो सभी साथ देते हैं। सच्चा मित्र वही है जो अपने मित्र के दुख को देखकर दुखी होता है तथा उसके दुख दूर करने का हर तरह से प्रयास करता है। उसे हर तरह का सहयोग करता है। उसके अवगुणों को छिपाकर गुणों का बखान करता है।कवि दुष्यंत कुमार ने एक कविता में कहा है- दुख को बहुत सहेज कर रखना पडा हमें, सुख तो किसी कपूर की टिकिया सा उड़ गया।अर्थात् सुख कपूर की तरह है जो आग लगते ही तेजी से भभक कर जल उठता है और फिर बुझ जाता है। हालांकि उसकी स्मृति लंबे समय तक बनी रहती है।देखा जाए तो दुख ही हमारे जीवन का सर्वश्रेष्ठ शिक्षक है। दुख ही हमें सही-गलत में फर्क सीखता है। जीवन की सच्चाई हमारे सामने लेकर आता है लेकिन हम उसे समझ नहीं पाते। जिस तरह हम सुख उत्साह के साथ अपनाते हैं उसी तरह दुख का भी प्रसन्नता से स्वागत किया जाना चाहिए। हां, यह काम मुश्किल जरूर है, लेकिन असंभव नहीं। हमारी मानसिकता बन चुकी है कि हम सिर्फ सुख चाहते है और दुख से बचने का प्रयास करते हैं। किंतु सच्चाई यही है कि दुख से ही हमारे आत्मबल, धैर्य, विवेक और जीवटता की असली परीक्षा होती है। दुख से ही हमें अपने और पराए की पहचान होती है। हमें आत्मनिरीक्षण और गलतियों को दूर करने का महत्वपूर्ण सबक मिलता है।अंतत: यही कहा जा सकता है कि सुख-दुख तो आते रहेंगे। समझदारी इसी में सुख से ज्यादा मोह ना करें और दुख का स्वागत करें। दुख से बचने का कोई रास्ता नहीं है, लेकिन हां भगवान की भक्ति से उसका प्रभाव कम जरूर किया जा सकता है।

सिर्फ अहंकार ही व्यर्थ होता है

नारद पुराण की इस कथा में निरभिमानता का महत्व दर्शाया गया है। एक ऋषि थे- सर्वथा सहज, निराभिमानी, वैरागी और परम ज्ञानी। दूर-दूर से लोग उनके पास ज्ञानार्जन के लिए आते थे। एक दिन एक युवक ने आकर उनके समक्ष शिष्य बनने की इच्छा प्रकट की। ऋषि ने सहमति दे दी। युवक, ऋषि के पास रहने लगा। वह ऋषि की शिक्षा को पूर्ण मनोयोग से ग्रहण करता। एक दिन ऋषि ने कहा-जाओ, वत्स। तुम्हारी शिक्षा पूर्ण हुई। अब तुम इसका उपयोग कर दूसरों का जीवन बेहतर बनाओ। युवक ने उन्हें गुरुदक्षिणा देना चाही, तो ऋषि बोले-यदि तुम गुरुदक्षिणा देना ही चाहते हो तो वह चीज लेकर आओ जो बिल्कुल व्यर्थ हो।युवक व्यर्थ चीज की खोज में चल पड़ा। उसने चलते-चलते सोचा कि मिट्टी ही सबसे व्यर्थ हो सकती है। यह सोचकर उसने मिट्टी को लेने के लिए हाथ बढ़ाया तो वह बोल उठी-तुम मुझे व्यर्थ समझते हो? धरती का सारा वैभव मेरे गर्भ से ही प्रकट होता है। ये विविध रूप, रस, गंध क्या मुझसे उत्पन्न नहीं होते? युवक मिट्टी छोड़कर आगे बढ़ा, तो उसे गंदगी का ढेर दिखाई दिया। उसने गंदगी की ओर हाथ बढ़ाया तो उसमें से आवाज आई-क्या मुझसे बेहतर खाद धरती पर और कहीं मिलेगी? सारी फसलें मुझसे ही पोषण पाती है, फिर मैं कैसे व्यर्थ हो सकती हूं। युवक सोचने लगा कि वस्तुत: सृष्टि का प्रत्येक पदार्थ अपने आप में उपयोगी है। व्यर्थ और तुच्छ तो वह है जो दूसरों को व्यर्थ व तुच्छ समझता है और वह अहंकार के सिवाय और क्या हो सकता है। वह तत्काल ऋषि के पास जाकर बोला कि वह गुरुदक्षिणा में अपना अहंकार देने आया है। यह सुनकर ऋषि बोले-ठीक समझे वत्स। अहंकार के विसर्जन से ही विद्या सार्थक व फलवती होती है।कथा का सार है कि दुनिया में व्यर्थ सिर्फ अहंकार ही होता है। जो कुछ देने के स्थान पर है , उसे भी नष्ट कर देता है। इससे सदैव बचना चाहिए।

पूर्ण सुखी बनने के तीन रास्ते

सफलता की गयारंटी हैं ये नौ गुण..... कहावत तो यह है कि इस कलियुग में कोई भी पूर्ण सुखी नहीं है, किन्तु इस बात से यह सिद्ध नहीं हो जाता कि ऐसा होना संभव ही नहीं है। सारी दुनिया के सर्वश्रेष्ठ इंसानों ने पूर्ण सुख का सुनिश्चित मार्ग खोज निकाला है। इंसान के पूर्ण सुखी होने के उस राज मार्ग का नाम है- अध्यात्म। अध्यात्म के अनुसार जीवन की प्रमुख दिशाएं तीन होती हैं (1) आत्मिक (2) बौद्धिक, (3) सांसारिक। इन तीनों दिशाओं में आत्म-बल बढऩे से आनन्दायक परिणाम प्राप्त होते हैं । इन तीनों दिशाओं में तीन-तीन लक्षण ऐसे दिखाई पड़ते हैं जिनसे जीवन सर्व सुखी बन जाता है। इन नौ सम्पदाओं को नव निधि भी कह सकते हैं। सिद्धियां देवताओं को प्राप्त होती हैं, ऋद्धियां असुरों को मिलती हैं और निधियां मनु की सन्तान मानव प्राणी को यानि कि हम इंसानों को प्राप्त होती हैं।
आत्मिक क्षेत्र की तीन निधियां (1) विवेक, (2) पवित्रता (3)शान्ति हैं। बौद्धिक क्षेत्र की और सांसारिक क्षेत्र की तीन निधियां (1) साहस, (2) स्थिरता, (3) कर्तव्यनिष्ठा हैं और सांसारिक क्षेत्र की तीन निधियां (1) स्वास्थ्य,(2) समृद्धि,(3) सहयोग हैं। यह नौ लक्षण जीवन की सफ लता के आधार स्तंभ हैं। इन्हीं नौ गुणों को ब्राह्मण के नव गुण बताया है। भगवान् रामचन्द्रजी ने धनुष तोडऩे पर क्रोधित परशुराम जी से उनके नव गुणों की प्रशंसा करके उन्हें प्रसन्न किया था।

Monday, July 12, 2010

धन आए तो मन को जरूर संभाल लें

आजकल धन कमाना आसान है लेकिन उसका सही निवेश मुश्किल। अधिकतर लोगों के साथ होता यह है कि वे धन तो खुब कमा लेते हैं लेकिन उसका सही विनियोजन नहीं कर पाते, नतीजतन वे फिर से धन खो देते हैं। जब धन आए तो अपने मन-बुद्धि को जागृत कर लें। अन्यथा सारा पुरुषार्थ निष्फल रह जाएगा। धन कमाने में जितनी अक्ल लगती है उससे ज्यादा इसके निवेश और बचत में बुद्धि लगाना पड़ती है। ऐसा माना जाता है कि धन के व्यावहारिक पक्ष पर तो आजकल सभी समझदार हो गए हैं। इस समय तो ऐसा माना जाता है कि इस दौर में तो बच्च पैदा होते समय ही धन-दौलत के मामले में सिखा-सिखाया आता है। लेकिन यदि धन का आध्यात्मिक पक्ष नहीं समझा गया तो ये धन सुख से अधिक दुख का कारण बन जाता है। अमीरी और दौलत अपने साथ प्रदर्शन और दिखावे की आदत लेकर आती है। यहीं से जीवन में आलस्य और अपव्यय का आरंभ भी हो जाता है। र्दुव्‍यसन दूर खड़े होकर इन दोनों बातों की प्रतीक्षा कर रहे होते हैं कि कब आदमी आलस्य, अपव्यय के गहने पहने और हम प्रवेश कर जाएं।जब जीवन में बाहर से धन आ रहा हो तो समय रहते हम भीतर के धन की पहचान कर लें। जब हम धन के बाहरी इन्तजाम जुटा रहे हों उसी समय मन की भीतरी व्यवस्थाओं के प्रति सजग हो जाएं। मन की चार अवस्था मानी गई है। स्वप्न, सुषुप्ति, जागृत और तुरीय। इनमें तुरीय अवस्था यानी हमारे भीतर किसी साक्षी का उपस्थित होना। हम हैं इसका होश रहना। बहुत गहरे में हम पाते हैं कि चाहे हम सो रहे हों या जागते हुए कोई काम कर रहे हैं, हमारे भीतर कोई होता है जो इन स्थितियों से अलग होकर हमें देख रहा होता है। थोड़ा होश और अभ्यास से देखें तो हमें पता लग जाता है कि यह साक्षी हम ही हैं। इसे ही हमारा होना कहते हैं। धन के मामले में जितने हम तुरीय अवस्था के निकट हैं उतने ही प्रदर्शन, अपव्यय, आलस्य, दुगरुणों से दूर रह पाएंगे। यह धन का निजी प्रबंधन है तथा तब दौलत आपको सुख के साथ शान्ति भी देगी।

पैसा नीति से कमाएं, रीति से खर्च करें

कहते हैं जिस नीति से धन कमाया जाता है उस धन की गति भी वैसी ही होती है। अनैतिक कार्यो से कमाया गया धन हमेशा पीड़ा देता है, मानसिक त्रास देता है और अंत में वह भी ऐसे कामों में खर्च होता है, जो अनावश्यक होते हैं। धन अच्छे कर्मो से कमाया जाए और सही जगह निवेश किया जाए तो ही वह फल देता है। इसी में लक्ष्मी का वास भी माना गया है। आज पुरुषार्थ का 90 प्रतिशत भाग धन कमाने में लग गया है। सारे प्रयास धन के पीछे हैं। आदमी को धनवान भी होना है और भगवान भी मिलना है। दोनों की चाहत समानांतर चलती है। पैसा और परमात्मा एक साथ मिले इस मणिकांचन योग के लिए पूरी जिंदगी कई लोगों ने दांव पर लगा दी। शास्त्र कहते हैं न्याय और नीति लक्ष्मी के खिलौने हैं। वह जैसा चाहती है वैसा नचाती है। वेदव्यास में लक्ष्मी के सात साधन बताए हैं-धर्य धारण करना, क्रोध न करना, इन्द्रियों को वश में रखना, पवित्रता, दया, सरल वचन और मित्रों से द्वेष न रखना।कोई भी धर्म यह नहीं कहता कि धन न कमाया जाए। भगवान को हमारी निर्धनता से अधिक हमारी वैराग्य वृत्ति प्रिय है। बड़े से बड़ा धनवान बैरागी हो सकता है और गरीब से गरीब के भीतर भी इस वृत्ति का अभाव हो सकता है। अत: धन कमाना बुरा नहीं है, आप किस तरह से कमा रहे हैं और धन अर्जन के कृत्य को किस प्रकार पूरा कर रहे हैं यह महत्वपूर्ण है। परिणाम उसी में छिपा है। धन दुख नहीं देता और न ही सुख बरसाता है। उसके तरीके का सारा खेल है। जैन धर्म में महावीर स्वामी ने एक सूत्र कहा है- कर्म, कर्ता का ही अनुगमन करते हैं। जो व्यक्ति जिस तरह से धन कमा रहा है, परिणाम उसे ही भुगतना है। उस धन से जो दूसरे लाभ ले रहे हैं उन्हें उसका परिणाम वैसा नहीं भुगतना होगा। महावीर का सूत्र है-न तस्स दुक्खं विभयन्ति नाइओ, न मित्त वग्गा न सुया न बंधवा। एक्को सयं पच्चणु होई दुक्खं, कत्तारमेव अणुजाइ कम्मं।। जाति, मित्र, संतानें इस दुख का विभाजन नहीं कर सकते। ऐसा दुख अकेले ही भुगतना पड़ता है। इसलिए नीति से कमाएं और रीति से खर्च करें। क्योंकि जिम्मेदारी आपकी अकेले की होगी।

किसी की मौत कितनी करीब है?

मौत, मृत्यु, देहांत, डेथ आदि ऐसे शब्द जिसे सुनते ही बड़े-बड़े विद्वान और पराक्रमी लोगों के भी पसीने छूट जाते है। सामान्यत: सभी के मन में कौतुहल रहता है कि हमारी मृत्यु कब और कैसे होगी?जब किसी की मृत्यु करीब आती है तो उस व्यक्ति का स्वभाव, हाव-भाव सब बदल जाते हैं। वह हर कार्य अजीब ढंग से करता है। उस व्यक्ति का व्यक्तित्व ही बदल जाता है।हमारे धर्म ग्रंथों और ज्योतिष शास्त्र के कुछ बिंदू यहां दिए जा रहे हैं जिससे किसी व्यक्ति की मृत्यु में कितने दिन शेष हैं, अंदाजा लगाया जा सकता है-- यदि किसी व्यक्ति का पेट सांस लेते समय बिल्कुल ना हिलें तो समझ लें कि उसकी आयु कुछ ही घंटे शेष है।- यदि व्यक्ति की आंखें पथरा जाएं, आंखों में कोई हलचल ना हो, तब उसका जीवन कुछ ही घंटों का शेष होता है।- यदि किसी व्यक्ति को आइने में अपना अक्स दिखाई देना बंद हो जाए तो उसकी आयु करीब 1 दिन और शेष है।- जब किसी व्यक्ति को रात के समय ध्रुव तारा दिखाई न दें तो समझ लें कि उसकी आयु करीब 40 दिन शेष हैं।- जब किसी व्यक्ति को पानी, घी, तेल में स्वयं की परछाई दिखाई देना बंद हो जाए तो उस व्यक्ति की आयु करीब 7 दिनों की शेष है।- जब किसी व्यक्ति का स्वभाव पूरी तरह बदल जाए, उसकी सभी हरकतें, हाव-भाव, बोल-चाल, सभी आदतें बदल जाएं, उसका स्वभाव कठोर हो जाए, हर कार्य अजीबोगरीब ढंग से करें तो समझ लें कि उसकी आयु करीब 1 वर्ष और शेष हैं।

ऐसे जीएंगे तो नहीं रहेगा मौत का डर

जीवन में जितना रस है मौत शब्द उतना ही भयानक। संसार में संभवत: कोई ही ऐसा हो जिसे मौत का डर न सताता हो। दरअसल डर का कारण मौत या उसके आने का तरीका नहीं, बल्कि हमारे जीना का तरीका है। हम संसार में संसार के होकर रह जाते हैं। इससे आगे की कभी नहीं सोचते इस कारण संसार छूटने का भय बना रहता है। संसार को निर्लिप्त भाव से भोगिए फिर मृत्यु से भय नहीं होगा।
जीवन में एक अज्ञात भय ऐसा है जो ज्ञात भी है, परन्तु है सबसे बड़ा और वह है मृत्यु का भय। उम्र, मौत और जिन्दगी इन तीनों के मामले में संसारी और साधु का फर्क पकड़ें तो भयमुक्त हुआ जा सकता है। संत कितना जिए यह महत्वपूर्ण नहीं होता, कैसे जिए यह उपयोगी होता है। देह त्यागने के पूर्व बुद्ध ने जो अंतिम वाक्य कहे थे उसे समझा जाए। च्च्हंद दानि भिक्खवे आमंत यामि वो, वह धम्मा संरवारा अप्पमादीन संपादे था इतिज्‍ज हर वस्तु नाशवान है, जीवन का संपादन अप्रमाद के साथ करो। आलस्य के साथ वासना का समावेश हो जाए तो प्रमाद शुरू होता है। बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को अपनी अंतिम क्रिया के लिए भी विस्तार से समझा दिया था। मौत को उन्होंने उत्सव बनाया।
भौतिकता की आंधी में आज तो हम इतने भयभीत हैं कि सांप को तो मार देते हैं और रस्सी से डसा जाते हैं। हमारी मौत अवसाद और संतों की मृत्यु उपदेश हो जाती है। इसे दिव्य बनाने का प्रयास उम्र के हर पल में और जिन्दगी के हर पड़ाव पर सतत करना होगा। कहते हैं जब बुद्ध संसार से गए तो उनकी उम्र अस्सी वर्ष थी लेकिन संत समाज मानता है वे चालीस साल के थे क्योंकि जब वे चालीस वर्ष के थे तब एक पीपल के वृक्ष के नीचे सात दिन सतत समाधि में रहे और तब ही उन्हें पूर्णिमा के दिन बुद्धत्व प्राप्त हुआ था। इस ज्ञान प्राप्ति को संबोधि कहा गया है और उसके बाद वे चालीस वर्ष और जीवित रहे। अध्यात्म कहता है उम्र तो उसी को मानेंगे जब, जिन क्षणों में आप स्वयं को जान गए। इसलिए याद रखा जाए कितना जिए यह संसार का समीकरण है कैसा जिए यह अध्यात्म का गणित है।

मृत्यु का मतलब मुक्त हो जाना

मृत्यु एक अटल सच... जीवनभर का एक डर... मृत्यु एक खौफनाक शब्द... मृत्यु जीवन का अंत...। मृत्यु एक ऐसा खौफनाक रहस्य है जो हर जीवित व्यक्ति के पसीने छुड़ा देता है। किसी जीवित प्राणी के जीवन का अन्त ही मृत्यु है। कोई नहीं है जो मरना चाहता है। सभी हमेशा जीना चाहते है, सभी को लंबा और सुखी जीवन जीना हैं। वैदिक काल से ही मानव और दैत्यों द्वारा मृत्यु को जीतने के लिए घोर तपस्या कर भगवान से अमरता पाने की चेष्टा की जा रही है। परंतु मानव के लिए ऐसा आज तक संभव नहीं हो सका है। जिसने जन्म लिया है उसे तो मृत्यु को प्राप्त होना ही है। बस फर्क सिर्फ इतना है कोई दीर्घायु है और कोई अल्पायु। इसी वजह से हर व्यक्ति के मन कई बार मृत्यु को लेकर कई प्रश्र उठते हैं।प्राचीन काल की ही तरह आज भी विज्ञान मृत्यु को जीतने के लिए तरह-तरह के प्रयोग कर रहा है। परंतु हमारा आधुनिक विज्ञान भी मृत्यु को जीतने के संबंध में आज तक कोई सफलता हासिल नहीं कर पाया है। यहां सिर्फ दो ही सच है जन्म और मृत्यु। जो जन्मा है वह मृत्यु को प्राप्त होगा और जो मृत्यु को प्राप्त हुआ है वह पुन: जन्म अवश्य लेगा। भगवान ने इन्हीं दो अवस्थाओं को अपने पास रखा है और बाकि सभी सुख-सुविधाएं मानव को प्राप्त है।मृत्यु का अर्थ है मुक्त हो जाना... परम शांति को प्राप्त हो जाना... सारे मोह छोड़ देना...। मृत्यु हमें त्याग सिखाती है कि मुक्त हो जाओ सारे मोह से, आप अपने साथ कुछ नहीं ले जा सकते..।भगवान श्रीकृष्ण ने मृत्यु के संबंध में जो कुछ कहा है वह सर्वविदित है कि मृत्यु सिर्फ हमारे शरीर की होती है, आत्मा की नहीं। आत्मा तो अजर, अमर है। आत्मा कभी नहीं मरती, वह सिर्फ वस्त्रों की तरह शरीर बदलती है। मृत्यु हमारी जीवन रूपी परीक्षा का परिणाम है। अत: हम परिणाम अच्छा चाहते हैं तो हमें कर्म भी धर्म के मार्ग पर चलते हुए करने होंगे। तभी हमारा अंत भी सुख देने वाला होगा।

कैसे और कहां से निकलती है जान?

मौत कड़वा किन्तु अटल सत्य। दुनिया में शायद ही कोई हो जो मरना चाहता हो, जबकि सब अच्छी तरह जानते हैं कि इससे आज तक कोई भी बच नहीं सका। मौत होती है यह तो सभी जानते हैं किन्तु, कैसे और क्या हेाती है मौत? आज तक यह नहीं सुना गया कि कोई हंसते हुए मरा हो। इसीलिये यह कहना ज्यादा उचित है कि रोते हुए आते हैं सब और मौन होकर चले जाते हैं। कुछ कालजयी लोग इस दुनिया में ऐसे होते रहे हैं जो जन्म-मृत्यु के पार देखने में समर्थ होते हैं। ऐसे ही सिद्ध लोगों में शामिल योगीराज अरविंद मौत के विषय बड़ी ही रौचक बातें बताते हुए कहते हैं कि-बेंहोसी में.... बीमारी, आघात या अन्य जिस भी कारण से मृत्यु हो रही हो तो उससे भी कष्ट यानि तकलीफ अवश्य होती है। मरने से पहले हर प्राणी को अपार कष्ट होता है किन्तु उस अवस्था में वह कुछ बोल नहीं पाता। जब प्राण या जान या आत्मा निकलने का समय बिल्कुल नजदीक आ जाता है तो प्राणी एक प्रकार की बेहोंशी में चला जाता है और इस अचेत अवस्था में ही आत्मा शरीर से बाहर निकल जाती है।आम रास्ता: अधिकांशत: शरीर के ऊपर के हिस्सों या अंगों से ही प्राण या आत्मा निकलती है। मुख, आंख, कान या नाक ही आत्मा के निकलने के प्रमुख मार्ग हैं।पापियों की जान: दुष्ट, पापी एवं दुराचारी (बुरे कर्म करने वाले)लोगों की आत्मा मल-मूत्र के रास्ते से निकलता देखा गया है। योगी की आत्मा: जबकि योग की उच्च अवस्था में पहुंचे हुए सिद्ध योगी ब्रह्मरंध्र से प्राणों का त्याग करेंगे।