Wednesday, January 30, 2013

प्रभु की प्रार्थना आत्मा को परमात्मा बनाने का एक 'कीमिया' है


प्रभु की प्रार्थना आत्मा को परमात्मा बनाने का एक 'कीमिया' है। आत्मा ईश्वर का ही अंश होने से स्वयं शुद्धात्मा होती है किंतु कर्मों की संगति के कारण अशुद्ध होकर भवभ्रमण के अनंत चक्र में फँसकर सुख-दुख भोगती रहती है। फिर परमात्मा का अंश होते हुए भी वह परमात्मा से अलग या दूर हो जाती है और कष्ट भोगने पर बाध्य हो जाती है। 
पानी की एक बूँद सागर से अलग होकर जिस प्रकार एक बूँद मात्र हो जाती है और जब वही बूँद सागर में विलीन हो जाती है तो सागर बन जाती है। परमात्मा सर्वव्यापी है। वह सब जानता है। उसे हमारे हर पल की खबर होती है। इसलिए जब भी उससे प्रार्थना करें तो कोई माँग उसके सामने नहीं रखे अन्यथा वह प्रार्थना नहीं होकर हमारी माँगें पूरी करने की याचना मात्र होकर रह जाएगी। 
प्रार्थना में कोई माँग नहीं होती। केवल प्रभु के उपकारों की कृतज्ञता का ज्ञापन तथा उसके पावन चरण में शरण या संपूर्ण समर्पण की भावना का हृदय की भाषा में प्रकटीकरण होता है। यह आँखों में आए प्रेम-विह्वलता के दो आँसुओं के रूप में प्रकट होता है। 
किसी व्यक्ति का सच्चा समर्पण ही उसके कर्मों से उसकी मुक्ति का आलंबन बनता है और जब प्रभु की करुणा की बरसात जब व्यक्ति पर निरंतर होने लगती है तो काम-क्रोध, लोभ-मोह, मान-माया आदि के सारे कलुष ऐसे बह जाते हैं, जैसे भारी बरसात सारी गंदगी को अपने साथ बहा ले जाती है। 
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फिर बचा रहता है अकलुषित निर्मल पवित्र हृदय जिसमें उग आता है आस्था का अखंड खुशबू वाला कमल जिस पर अपने आराध्य परमात्मा स्वयं आ विराजित होते हैं। जब परमात्मा स्वयं हमारे हृदय-कमल पर विराजित हो जाते हैं, तब आत्मा तथा परमात्मा की दूरियाँ समाप्त होकर संपूर्ण समर्पण से बूँद सागर में विलीन होकर मुक्ति या मोक्ष को प्राप्त कर लेती है। 
काम-क्रोध, लोभ-मोह आदि शत्रुओं से घिरा मन कभी प्रभु को पा लेने जैसे उत्कृष्ट भाव का विचार तो ठीक, स्वप्न भी नहीं देखता है, क्योंकि जन्म-जन्म की हमारी काम-क्रोध व मोह की बेड़ियाँ हमें उनसे मुक्त ही नहीं होने देतीं। तब प्रभु की प्राप्ति असंभव-सी लगती है। इसलिए सच्ची प्रार्थना वही है, जो निःस्वार्थ भाव से पूरे समर्पण के साथ की जाए। इससे ही आत्मा का रूपांतरण होना संभव है।



Priyatam Kumar Mishra

जीवन का पथ आसान नहीं होता है।

जीवन का पथ आसान नहीं होता है। शुरू से लेकर अंत तक जीवन जिम्मेदारियों से भरा होता है। इस जिम्मेदारी में चूक का मतलब है जीवन पथ को और मुश्किल बनाना। पारिवारिक दायित्व आने पर यह जिम्मेदारी और बढ़ जाती है।पारिवारिक दायित्व आ जाने पर सबसे बड़ी जिम्मेदारी है अपने बच्चे को सही दिशा की ओर ले जाना। 
इसके लिए सबसे जरूरी यह है कि माता-पिता अपने जीवन में ऐसा आदर्श पेश करें जिसका अनुकरण कर उसका बच्चा खुद को गौरवान्वित महसूस कर सके। और इसके लिए सबसे जरूरी है शिक्षा। शिक्षा का महत्व समाज के निर्माण में महत्वपूर्ण है। इसके बिना आदर्श समाज की कल्पना नहीं की जा सकती। माता-पिता को चाहिए कि अपने बच्चे को सबसे पहले बाल विकास कक्षा में दाखिला दिलवाएँ। इसके अलावा माता-पिता को अपने बच्चे के साथ सदैव आदर्श व्यवहार करना चाहिए। 
हाँ, इसके लिए यह भी जरूरी है कि बच्चे की माँ और पिता में किसी तरह का कोई मतभेद नहीं हो। यानी बच्चे के लिए जो राय पिता की बनती है वहीं माँ की भी बननी चाहिए। एक निश्चित उम्र के बाद बच्चे माँ-बाप की बात मानने से इनकार करने लगते हैं। 

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इसका मतलब यह नहीं कि बच्चे में दोष है बल्कि हम उसके सामने सही मार्ग पर ईमानदारी से नहीं चल पाए। कहीं न कहीं इसके लिए हम खुद जिम्मेदार हैं। हमारे आदर्श पथ से भटकने का मतलब है कि बच्चा भी अपना सही रास्ता छोड़ सकता है। इसलिए हमें अपने पथ दृढ़ता के साथ पूरी ईमानदारी, सूझबूझ और चतुराई से चलना चाहिए। 
कुछ परिवारों में माता और पिता में एक राय नहीं बन पाती। माता-पिता की एकता में इस कमी के कारण बच्चों में गलत संदेश जाता है। माता-पिता को चाहिए कि बच्चों को ऐसी शिक्षा दें जिससे वह एक आदर्श पथ का अनुकरण कर सके। उसे सत्य की राह पर चलने के लिए प्रेरित करें। क्योंकि किसी भी चीज का मूलभूत आधार सत्य ही है। 'सत्यम्‌ शांति परो धर्मा' अर्थात सत्य के आचरण से बढ़कर कोई धर्म बड़ा नहीं होता। अगर हम सत्य के रास्ते पर चलते हैं तो निसंदेह हमारे देश में शांति और समृद्धि कायम होगी। 
मनस्यकामं, वचनस्यकामं कर्मण्यकामं महात्मानं अर्थात धार्मिकता से ही शांति आती है और शांति से प्रेम प्रकट होता है अर्थात जिसका कर्म, वचन और विचार में समानता होती है वह महान होता है। इनमें फर्क इंसान को गलत रास्ते की तरफ अग्रसर करता है। हमें अपने बच्चे को सत्य की सीख देने से पहले खुद अपने दैनिक जीवन में सत्य को उतारना चाहिए। हमें आत्मा की गहराई से सत्य का आचरण करना चाहिए। कृत्रिम जीवन नहीं जीना चाहिए। 
आज के युग में अकसर देखा जाता है कि शिक्षा को भी कृत्रिम बना दिया गया है। बच्चों में मंत्रों का भजन, ध्यान, चिंतन का समावेश कराना चाहिए ताकि पढ़ाई में कृत्रिमता से बचा जा सके। वे कहते हैं कि ईश्वर की तरफ ध्यान देकर अपने मन को नियंत्रित किया जा सकता है। ध्यान का मतलब यह नहीं कि आँखें बंद कर लीजिए और पैर मोड़कर बैठ जाइए। ईश्वर के ध्यान के लिए मन को नियंत्रित करना आवश्यक है। मनः इवा मनुष्यामं कर्मम बंधोआमोक्षयः अर्थात मन मनुष्य की उदारता और बंधन का कारण होता है। 
प्रेम सत्य है और सत्य ही प्रेम है। परंतु यह शारीरिक या शब्दों का प्रेम नहीं होना चाहिए। हमें अपनी आत्मा में आध्यात्मिक प्रेम को बसाना चाहिए। यदि हम प्रेम को ईश्वर की तरफ ले जाते हैं तो हमारा मन आसानी से 

नियंत्रित होने लगता है।



Priyatam Kumar Mishra