Monday, July 12, 2010

ऐसे जीएंगे तो नहीं रहेगा मौत का डर

जीवन में जितना रस है मौत शब्द उतना ही भयानक। संसार में संभवत: कोई ही ऐसा हो जिसे मौत का डर न सताता हो। दरअसल डर का कारण मौत या उसके आने का तरीका नहीं, बल्कि हमारे जीना का तरीका है। हम संसार में संसार के होकर रह जाते हैं। इससे आगे की कभी नहीं सोचते इस कारण संसार छूटने का भय बना रहता है। संसार को निर्लिप्त भाव से भोगिए फिर मृत्यु से भय नहीं होगा।
जीवन में एक अज्ञात भय ऐसा है जो ज्ञात भी है, परन्तु है सबसे बड़ा और वह है मृत्यु का भय। उम्र, मौत और जिन्दगी इन तीनों के मामले में संसारी और साधु का फर्क पकड़ें तो भयमुक्त हुआ जा सकता है। संत कितना जिए यह महत्वपूर्ण नहीं होता, कैसे जिए यह उपयोगी होता है। देह त्यागने के पूर्व बुद्ध ने जो अंतिम वाक्य कहे थे उसे समझा जाए। च्च्हंद दानि भिक्खवे आमंत यामि वो, वह धम्मा संरवारा अप्पमादीन संपादे था इतिज्‍ज हर वस्तु नाशवान है, जीवन का संपादन अप्रमाद के साथ करो। आलस्य के साथ वासना का समावेश हो जाए तो प्रमाद शुरू होता है। बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को अपनी अंतिम क्रिया के लिए भी विस्तार से समझा दिया था। मौत को उन्होंने उत्सव बनाया।
भौतिकता की आंधी में आज तो हम इतने भयभीत हैं कि सांप को तो मार देते हैं और रस्सी से डसा जाते हैं। हमारी मौत अवसाद और संतों की मृत्यु उपदेश हो जाती है। इसे दिव्य बनाने का प्रयास उम्र के हर पल में और जिन्दगी के हर पड़ाव पर सतत करना होगा। कहते हैं जब बुद्ध संसार से गए तो उनकी उम्र अस्सी वर्ष थी लेकिन संत समाज मानता है वे चालीस साल के थे क्योंकि जब वे चालीस वर्ष के थे तब एक पीपल के वृक्ष के नीचे सात दिन सतत समाधि में रहे और तब ही उन्हें पूर्णिमा के दिन बुद्धत्व प्राप्त हुआ था। इस ज्ञान प्राप्ति को संबोधि कहा गया है और उसके बाद वे चालीस वर्ष और जीवित रहे। अध्यात्म कहता है उम्र तो उसी को मानेंगे जब, जिन क्षणों में आप स्वयं को जान गए। इसलिए याद रखा जाए कितना जिए यह संसार का समीकरण है कैसा जिए यह अध्यात्म का गणित है।

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